भले ही व्यक्ति वेदों में बताए गए अनुसार भोजन करता हो, संकट की आशंका तब भी होती है।

मछुआरा एक तीखे काँटे पर माँस वाला चारा लगाता है और सरलता से अज्ञानी मछली को आकर्षित कर लेता है, जो जिव्हा का आनंद लेने की लालची होती है। इसी प्रकार लोग अपनी जिव्हा को तृप्त करने के लिए पागल हो जाते हैं और भोजन करने की अपनी आदतों में भेदभाव करना छोड़ देते हैं। क्षणिक संतुष्टि के लिए वे विशाल वध-स्थल बनाते हैं और लाखों निर्दोष प्राणियों को मारते हैं, और इस तरह के क्रूर कष्टों को थोप कर वे अपने लिए एक भयानक भविष्य तैयार करते हैं। किंतु यदि व्यक्ति केवल वेदों में अधिकृत भोजन ही खाता है, तब भी संकट की आशंका होती है। हो सकता है कि कोई बहुत अधिक मात्रा में खा ले और फिर कृत्रिम रूप से भरा हुआ पेट यौन अंगों पर दबाव पैदा करेगा। इस प्रकार व्यक्ति प्रकृति के हीन गुणों में पतित हो जाएगा और ऐसे पापमय कार्य करेगा जो उसके आध्यात्मिक जीवन की मृत्यु का कारण बनते हैं। मछली से व्यक्ति को जिव्हा को संतुष्ट करने में शामिल वास्तविक संकटों का ज्ञान सावधानीपूर्वक लेना चाहिए।

स्रोत: अभय चरणारविंद. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद्भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 8 – पाठ 19.