पुरुष और स्त्री की समझ में अंतर होता है.
“एक दिन यात्रा के दौरान, चित्रकेतु सुमेरु पर्वत की लतामंडपों में भटक गया, जहाँ उसे सिद्धों, चारण और महान संतों की सभा में घिरे, पार्वती का आलिंगन करते भगवान शिव दिख गए. भगवान को उस स्थिति में देखकर चित्रकेतु बहुत जोर से हँसा, किंतु पार्वती उस पर बहुत क्रोधित हुईं और उसे श्राप दे दिया. भगवान शिव ने पार्वती से कहा, “मैं और चित्रकेतु दोनों ही परम भगवान को बहुत प्रिय हैं. दूसरे शब्दों में, वह और मैं दोनों ही भगवान के सेवक के समान पद पर हैं. हम सदैव मित्र हैं, और कभी-कभी हम अपने बीच उपहास का आनंद लेते हैं. जब चित्रकेतु मेरे व्यवहार पर जोर से हँसा, तो उसने ऐसा मित्रवत भाव से किया था, और इसलिए उसे श्राप देने का कोई कारण न था.” अतः भगवान शिव ने अपनी पत्नी, पार्वती को मनाने का प्रयास किया, कि चित्रकेतु को श्राप देना अर्थपूर्ण नहीं था. यहाँ पुरुष और स्त्री में अंतर है जो जीवन के उच्चतर प्रतिमाओं में भी विद्यमान होता है–वास्तव में, भगवान शिव और उनकी पत्नी के बीच भी. भगवान शिव चित्रकेतु को बहुत भली भाँति समझ सकते थे, लेकिन पार्वती नहीं.
अतः जीवन की उच्चतर अवस्थाओं में भी पुरुष और स्त्री की समझ में अंतर होता है. स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि स्त्री की समझ पुरुष की अपेक्षा सदैव कम होती है. पश्चिमी देशों में यह हलचल है कि पुरुष और स्त्रियों को समानता से देखा जाना चाहिए, किंतु इस श्लोक से ऐसा लगता है कि स्त्री सदैव पुरुष से कम बुद्धिमान होती है. यह स्पष्ट है कि चित्रकेतु अपने मित्र भगवान शिव की आलोचना करना चाहते थे क्योंकि भगवान शिव अपनी पत्नी को अपनी गोद में लेकर बैठे हुए थे. तब भी भगवान शिव चित्रकेतु द्वारा स्वयं को महान भक्त दिखाने किंतु विद्याधारी स्त्रियों के साथ आनंद करने की रुचि रखने के कारण उसकी आलोचना करना चाहते थे. ये सभी मित्रवत प्रहसन थे; ऐसा कुछ गंभीर नहीं था जिसके लिए चित्रकेतु को पार्वती द्वारा श्राप दिया जाता. भगवान शिव के निर्देशों को सुनकर निश्चित ही पार्वती चित्रकेतु को राक्षस बन जाने का श्राप देने के लिए बहुत लज्जित हुई होंगी. माँ पार्वती चित्रकेतु के पद का महत्व नहीं पहचान पाईं, और इसलिए उन्होंने उसे श्राप दिया, किंतु जब उन्होंने भगवान शिव के निर्देशों को समझा तो वे लज्जित हुईं.”
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 17- परिचय और पाठ 35


	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	






