जीवन के मानव रूप को महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है?
जब यह शरीर समाप्त हो जाता है तो इसकी कोई गारंटी नहीं होती कि व्यक्ति को अगला शरीर कौनसा मिलेगा. मान लीजिए कि अगले जन्म में संयोगवश मुझे वृक्ष का शरीर मिल जाता है. मुझे सहस्त्रों वर्षों के लिए खड़ा रहना पड़ेगा. लेकिन लोग बहुत गंभीर नहीं हैं. वे यहाँ तक कहते हैं, कि “वह क्या है? भले ही मुझे खड़ा रहना पड़े, मुझे याद नहीं रहेगा.” जीवन की निम्न प्रजातियाँ विस्मृति में स्थित होती हैं. यदि कोई वृक्ष विस्मृति में न हो तो उसेक लिए जीवित रहना असंभव होगा. मान लीजिए हमें कहा जाए, “आप तीन दिनों तक यहाँ खड़े रहिए!” तो चूँकि हम भूलते नहीं हैं, हम पागल हो जाएंगे. इसलिए, प्रकृति के नियम द्वारा, जीवन की ये सभी निम्न प्रजातियाँ विस्मृति युक्त होती हैं. उनकी चेतना विकसित नहीं होती है. एक वृक्ष में जीवन होता है, लेकिन भले ही उसे कोई काट दे, तो चूँकि उसकी चेतना विकसित नहीं है, वह प्रतिक्रिया नहीं करता. इसलिए हमें जीवन के इस मानव रूप का उचित उपयोग करने में बहुत सावधान रहना चाहिए. कृष्ण चेतना आंदोलन का उद्देश्य जीवन में पूर्णता प्राप्त करना है. यह कोई झाँसा या शोषण नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से लोग झाँसे में आने के अभ्यस्त हैं. एक भारतीय कवि का छंद है: “यदि कोई लुभावनी बातें करता है, तो लोग उससे झगड़ा करते हैं: ‘ओह, क्या बकवास कर रहे हो.’ लेकिन यदि वह उनसे छल करे और उन्हें धोखा दे, तो वे बड़े प्रसन्न रहेंगे.” अतः यदि एक धोखेबाज कहे, “बस यह करो, मुझे मेरा शुल्क दो, और छः महीने में तुम भगवान बन जाओगे,” तो वे सहमत होंगे: “हाँ, ये शुल्क ले लो, और मैं छः महीनों में भगवान बन जाऊँगा.” नहीं. ये छलकारी प्रक्रियाएँ हमारी समस्या को हल नहीं करेंगी. यदि कोई इस युग में जीवन की समस्याओं का वास्तव में हल चाहता है, तो उसे कीर्तन की यह प्रक्रिया अपनानी होगी. यही प्रस्तावित प्रक्रिया है. हरेर् नाम हरेर् नाम, हरेर् नामैव केवलम, कलौ नास्त्येव नास्त्येव, नास्त्येव गतिरन्यथा विभिन्न युगों के लिए ध्यान की विभिन्न प्रक्रियाएँ सुझाई गई हैं; हालाँकि, कलि के इस युग में, व्यक्ति कीर्तन के अलावा आत्म-साक्षात्कार या जीवन की पूर्णता की कोई प्रक्रिया निष्पादित नहीं कर सकता. इस युग में कीर्तन आवश्यक है. सभी वैदिक साहित्य में इसकी पुष्टि की गई है कि वयक्ति को परम सत्य, विष्णु (कृष्ण) पर ही ध्यान लगाना होगा, किसी भी अन्य वस्तु पर नहीं.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान” पृ. 162