चाहे संपन्न हों या दुख में, हम स्वतंत्र नहीं होते.
यह कहते हुए, झूठ ही अभिमान करना कि वयक्ति स्वयं के प्रयासों से ही संपन्न, शिक्षित, सुंदर या अन्य कुछ होता है. ऐसे सभी सौभाग्य भगवान की दया से प्राप्त होते हैं. दूसरे दृष्टिकोण से, कोई भी मरना नहीं चाहता है, और कोई भी विपन्न या कुरूप नहीं होना चाहता है. अतः, अपनी इच्छा के विरुद्ध भी जीव ऐसी अवांछित समस्याएँ क्यों पाता है? ऐसा भगवान के परम व्यक्तित्व की दया या दंड के कारण ही है कि व्यक्ति को भौतिक रूप से कुछ प्राप्त होता है या सब कुछ खो जाता है. कोई भी स्वतंत्र नहीं होता; सभी परम भगवान की दया या उनके दंड पर आश्रित हैं. बंगाल में एक आम कहावत है कि भगवान के दस हाथ होते हैं. इसका अर्थ यह है कि उनका नियंत्रण सभी ओर होता है – आठों दिशाओं में और ऊपर और नीचे. यदि वे अपने दस हाथों से हमारा सब कुछ छीन लेते हैं तो हम अपने दो हाथों से कुछ भी नहीं बचा सकते. उसी प्रकार, यदि वे अपने दस हाथों से हमें आशीर्वाद देना चाहते हैं, तो वास्तव में हम अपने दो हाथों में सब कुछ नहीं प्राप्त कर सकते; दूसरे शब्दों में, आशीर्वाद हमारी अपेक्षा से बहुत अधिक होते हैं. निष्कर्ष यह है कि भले ही हम अपनी संपत्ति से पृथक होने की इच्छा न रखते हों, लेकिन कभी-कभी भगवान उन्हें हमसे बलपूर्वक छीन लेते हैं; और कभी-कभी वे हम पर वरदानों की एसी बौछार कर देते हैं कि हम उन सब को एकत्र करने में असमर्थ होते हैं. इसलिए संपन्न हों या दुख में, हम स्वतंत्र नहीं होते; सब कुछ भगवान के परम व्यक्तित्व की प्रिय इच्छा पर निर्भर होता है.
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 12- पाठ 13