गृहस्थ जीवन की तुलना अंधकूप से क्यों की जाती है?
गृहस्थ प्रसंगों में पहला आकर्षण सुंदर और सुखदायक पत्नी होती है, जो गृहस्थी के आकर्षण को अधिक से अधिक बढ़ाती है. व्यक्ति अपनी पत्नी का भोग दो प्रमुख इंद्रियों के साथ करता है, अर्थात् जिव्हा और जननांग. पत्नी बहुत मीठा बोलती है. यह निश्चित रूप से एक आकर्षण होता है. फिर वह जिव्हा को संतुष्ट करने के लिए बहुत ही स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ तैयार करती है, और जब जिव्हा संतुष्ट हो जाती है तो व्यक्ति को अन्य इंद्रियों, विशेषकर जननेंद्रियों में शक्ति मिलती है. इस प्रकार पत्नी संभोग में आनंद देती है. गृहस्थ जीवन का अर्थ है यौन जीवन (यन मैथुनादि-गृहमेधि-सुखम हि तुच्छम्). इसे जिव्हा द्वारा बढ़ावा दिया जाता है. फिर संतानें होती हैं. एक बालक टूटी-फूटी भाषा में मीठे बोल बोलकर प्रसन्नता देता है, और जब पुत्र और पुत्रियाँ बड़े हो जाते हैं तो व्यक्ति उनकी शिक्षा और विवाह में व्यस्त हो जाता है. फिर देखभाल करने के लिए व्यक्ति के माता पिता होते हैं, और व्यक्ति सामाजिक वातावरण और अपने भाई बहनों को प्रसन्न करने के बारे में भी चिंता करने लगता है. एक व्यक्ति गृहस्थ प्रसंगों में अधिकाधिक उलझता जाता है, इतना अधिक कि उन्हें छोड़ना लगभग असंभव हो जाता है. इस प्रकार गृहस्थी गृहम् अंधकूपम् बन जाती है, एक अंधा कुआँ जिसमें व्यक्ति गिर गया हो. एसे वयक्ति के लिए बाहर निकलना अत्यंत कठिन होता है जब तक कि उसकी सहायता कोई शक्तिशाली व्यक्ति, आध्यात्मिक गुरु न करे, जो गिरे हुए व्यक्ति की सहायता आध्यात्मिक निर्देशों की रस्सी द्वारा करते हैं. एक गिरे हुए व्यक्ति को इस रस्सी का लाभ उठाना चाहिए, और फिर आध्यात्मिक गुरु, या भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण, उसे अंधे कुएँ से बाहर निकाल देंगे.
स्रोत :अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, सातवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 13