भले ही भौतिक उद्देश्यों के लिए, किंतु व्यक्ति को भगवान के परम व्यक्तित्व के अतिरिक्त किसी भी और की उपासना नहीं करना चाहिए.
“श्रीमद्-भागवतम् (2.3.10) में सुझाव है:
अकामः सर्व-कामो व मोक्ष-काम उदार-धिः
तीव्रेण भक्ति-योगेन यजेता पुरुषम् परम
“चाहे व्यक्ति सभी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो, भौतिक इच्छाओं से भरा हो, या परम के साथ एक बनने की इच्छा रखता हो, उसे भक्ति सेवा में संलग्न होना चाहिए.” इस प्रकार से, न केवल भक्त की कामनाएँ पूर्ण होगी, बल्कि ऐसा दिन आएगा जब भगवान के चरण कमलों की सेवा के अतिरिक्त उसकी कोई कामना नहीं रहेगी. किसी उद्देश्य के साथ भगवान की सेवा में आने वाला व्यक्ति सकाम-भक्त कहलाता है, और जो बिना किसी स्वार्थ के भगवान की सेवा करता है वह अकाम भक्त होता है. कृष्ण इतने दयालु हैं कि वे एक सकाम भक्त को अकाम भक्त में परिवर्तित कर देते हैं. एक शुद्ध भक्त, एक अकाम-भक्त, जिसका कोई भौतिक उद्देश्य नहीं होता, वह केवल भगवान के चरण कमलों की सेवा करके ही संतुष्ट हो जाता है. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता (6.22) में की गई है. यम लब्ध्वा चपरम लाभम मान्यते नाधिकम ततः, यदि वयक्ति भगवान के चरण कमलों की सेवा में रत हो जाता है, तो वह कुछ और नहीं चाहता. यह भक्ति सेवा की उच्चतम अवस्था है. भगवान सकाम-भक्तों, स्वार्थी भक्तों के प्रति भी इतने दयालु होते हैं, कि वे उनकी कामनाओं को इस प्रकार पूर्ण करते हैं कि एक दिन वह अकाम-भक्त बन जाता है. उदाहरण के लिए ध्रुव महाराज, अपने पिता से भी बढ़िया राज्य पाने के उद्देश्य से भक्त बने थे, किंतु अंततः वे एक अकाम-भक्त बन गए और उन्होंने भगवान से कहा, स्वमिन कृतार्थो’स्मि वर्णम न यचे : “मेरे प्रिय भगवान, मैं केवल आपके चरण कमलों की सेवा करके ही संतुष्ट हूँ. मुझे कोई भौतिक लाभ नहीं चाहिए.” कई बार ऐसा पाया जाता है कि एक छोटा बालक मैली वस्तुएँ खा लेता है, किंतु उसके माता-पिता वे वस्तुएँ दूर हटाकर उसे संदेश या कोई अन्य मिठाई देते हैं. भौतिक वरदान की आकांक्षा रखने वाले भक्तों की तुलना ऐसे बालकों से की जा सकती है. भगवान इतने दयालु हैं कि वे उनकी भौतिक इच्छाओं को हर लेते हैं और उन्हें सर्वोत्तम वरदान देते हैं. इसलिए, भले ही भौतिक स्वार्थ से, व्यक्ति को भगवान के परम व्यक्तित्व के अतिरिक्त किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए; व्यक्ति को स्वयं को भगवान की भक्ति सेवा में पूर्ण रूप से लगा देना चाहिए ताकि उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों और अंत में वह वापस घर, परम भगवान के पास जा सके.
इसकी व्याख्या चैतन्य-चित्रामृत (मध्य 22.37-39, 41) में इस प्रकार की गई है. अन्यकामी–एक भक्त भगवान के चरण कमलों की सेवा के अतिरिक्त कुछ और की कामना कर सकता है; यदि करे कृष्ण भजन–किंतु यदि वह भगवान कृष्ण की सेवा में रत होता है; न मगितेः कृष्ण तारे देना स्व-चरण–कृष्ण उसे अपने चरण कमलों में स्थान देते हैं, भले ही वह ऐसा न चाहता हो. कृष्ण कहे–भगवान कहते हैं ; अमा भजे–”वह मेरी सेवा में रत है.”मांगे विषय सुख–”किंतु वह भौतिक इंद्रिय संतुष्टि चाहता है. अमृता छाड़ि ‘विष मांगे:- “ऐशा भक्त उस व्यक्ति के समान है जो अमृत के स्थान पर विष की माँग कर रहा हो.” ऐई बड़ा मूर्ख: “यह उसकी मूर्खता है.” आमी-विज्ञ : किंतु मैं अनुभवी हूँ. “ऐई मूर्खे विषय केने दीबा: “ऐसे मूर्ख व्यक्ति को भौतिक सुख की बुरी वस्तुएँ मैं कैसे दे सकता हूँ?” स्व चरणामृत : “मेरे लिए उसे मेरे चरणों में शरण देना श्रेष्ठ होगा.” विषय भुलाइबा : “मैं उसकी सभी भौतिक इच्छाएँ विस्मृत कर दूँगा.” काम लागि’ कृष्ण भजे–यदि व्यक्ति इंद्रिय संतुष्टि के लिए भगवान के चरण कमलों की सेवा करता है; पाया कृष्ण रसे–परिणाम यह होता है कि वह अंततः भगवान के चरण कमलों की सेवा का स्वाद पा लेता है. काम छाड़ि दा हैते हय अभिलाषे : फिर वह सभी भौतिक कामनाओं को त्याग देता है और भगवान का शाश्वत सेवक बनना चाहता है.”
स्रोत:अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 27