एक मनुष्य इस भौतिक संसार से किस प्रकार आसक्त रहता है?

निश्चित ही ट्रेन के फ़र्स्ट क्लास के डब्बे में बहुत आराम होता है, लेकिन यदि ट्रेन अपने गंतव्य की ओर न बढ़े, तो वातानुकूलित डब्बे का क्या लाभ रहेगा? समसामयिक सभ्यता भौतिक शरीर को आराम देने के प्रति कुछ अधिक ही चिंतित है. किसी को भी जीवन के वास्तविक गंतव्य की जानकारी नहीं है, जो परम भगवान तक वापस जाना होता है. हमें केवल एक आरामदायक डिब्बे में नहीं बैठना चाहिए; हमें देखना चाहिए कि हमारा वाहन अपने वास्तविक गंतव्य की ओर बढ़ रहा है या नहीं. जीवन की प्रमुख आवश्यकता को भूल जाने के मूल्य पर भौतिक शरीर को सुख पहुँचाने में कोई अंतिम लाभ नहीं है, जो हमारी खोई हुई आध्यात्मिक पहचान को फिर से पा जाना है. मानव जीवन की नाव इस प्रकार से बनी है कि उसका आध्यात्मिक गंतव्य की ओर बढ़ते रहना आवश्यक है. दुर्भाग्य से यह शरीर पाँच शक्तिशाली जंजीरों द्वारा तुच्छ चेतना से बंधा हुआ है, जो निम्न हैं: (1) आध्यात्मिक तथ्यों के प्रति अज्ञानतावश भौतिक शरीर के प्रति आसक्ति, (2) शरीर जन्य संबंधों के कारण नातेदारों के प्रति आसक्ति, (3) जन्मभूमि के प्रति और घर, फ़र्नीचर, संपत्ति, व्यावसायिक कागज़ात जैसे भौतिक स्वामित्व के प्रति आसक्ति, (4) भौतिक विज्ञान के प्रति आसक्ति जो हमेशा आध्यात्मिक प्रकाश की लालसा में रहस्यमय बना रहता है, और (5) भगवान के परम व्यक्तित्व या उनके भक्त, और उन्हें कौन पवित्र बनाता है को जाने बिना धार्मिक रूपों और पवित्र अनुष्ठानों के प्रति आसक्ति. ये आसक्तियाँ, जो मानव शरीर को बाँध कर रखती हैं, इनका वर्णन भगवद्-गीता के पंद्रहवें अध्याय में विस्तार से किया गया है. जहाँ उनकी तुलना गहरी जड़ों वाले वटवृक्ष से की गई है जो सदैव धरती में अपनी पकड़ बढ़ाता रहता है. इस प्रकार के वटवृक्ष को उखाड़ना बहुत कठिन होता है, लेकिन भगवान इस प्रक्रिया का सुझाव देते हैं: “इस वृक्ष के वास्तविक रूप का अनुभव करना इस संसार में नहीं किया जा सकता. कोई नहीं समझ सकता, कि इसकी समाप्ति कहाँ होती है, कहाँ इसका आरंभ होता है, या कहाँ इसका मूल है. लेकिन दृढ़निश्चय के साथ व्यक्ति को विरक्ति के अस्त्र के साथ इस वृक्ष को काट डालना चाहिए. ऐसा करते हुए व्यक्ति को उस स्थान को खोजना चाहिए, जहाँ, एक बार जाने के बाद कोई लौटता नहीं, और वहाँ भगवान के उस परम व्यक्तित्व के समक्ष समर्पण करना चाहिए जिनसे सब कुछ का आरंभ हुआ है और जिनमें सब कुछ अनादि काल से चला आ रहा है.” [भ.गी. 15.3-4]

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान” पृ. 6