आध्यात्मिक संसार के अतिरिक्त, भगवान की पूजा हमेशा अर्च-विग्रह के रूप में की जाती है.

देवता परम भगवान की उपासना उनके विभिन्न अर्च-विग्रह रूपों में करते हैं क्योंकि आध्यात्मिक संसार के अतिरिक्त, भगवान के परम व्यक्तित्व की प्रत्यक्ष उपासना व्यक्तिगत रूप में नहीं की जा सकती. भौतिक जगत में, भगवान की पूज हमेशा मंदिर में अर्च-विग्रह के रूप में की जाती है. अर्च विग्रह और मूल व्यक्तित्व के बीच कोई अंतर नहीं होता, और इसलिए जो लोग, भले ही इस ग्रह पर, किसी संपूर्ण वैभवपूर्ण मंदिर में अर्च-विग्रह की पूजा में रत हैं, उसे निस्संदेह भगवान के परम व्यक्तित्व की सीधे संपर्क में समझा जाना चाहिए. जैसा कि शास्त्रों में निर्देश है, अर्च्ये विष्णौ शील-धीर गुरुषु नर-मतिः : “किसी को भी मंदिर में अर्च-विग्रह को मात्र शिला या धातु नहीं मानना चाहिए न ही उसे यह विचार करना चाहिए कि आध्यात्मिक गुरु कोई सामान्य मानव है.” इस शास्त्रीय आज्ञा का पालन व्यक्ति को कठोरता से करना चाहिए और भगवान के परम व्यक्तित्व, अर्च-विग्रह की उपासना बिना अभद्रता के करना चाहिए. आध्यात्मिक गुरु भगवान के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होता है, और किसी को भी उसे एख साधारण मनुष्य नहीं मानना चाहिए. अर्च-विग्रह और आध्यात्मिक गुरु के प्रति अपराध से बचकर, व्यक्ति, आध्यात्मिक जीवन, या कृष्ण चेतना में उन्नति कर सकता है. पद्म पुराण में कहा गया है कि आध्यात्मिक संसार में भगवान व्यक्तिगत रूप से सभी दिशाओं में विस्तार लेते हैं और उन्हें वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूप में पूजा जाता है. उन्हीं भगवान का प्रतिनिधित्व इस संसार में अर्च-विग्रह करते हैं, जो उनकी रचना का केवल एक चौथाई अंश है. वासुदेव, शंकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी इस भौतिक संसार की चार दिशाओं में विद्यमान हैं. इस भौतिक संसार में जल से आच्छादित एक वैकुंठलोक है, और उस ग्रह पर वेदवती नामक एक स्थान है, जहाँ वासुदेव स्थित हैं. एक अन्य ग्रह जिसे विष्णुलोक के नाम से जाना जाता है, सत्यलोक के ऊपर स्थित है, और वहाँ संकर्षण उपस्थित हैं. उसी प्रकार, द्वारका-पुरी में, प्रद्युम्न प्रमुख हैं. श्वेतद्वीप के रूप में ज्ञात द्वीप पर, दूध का एक महासागर है, और उस महासागर के बीच में एक स्थान है जिसे ऐरावती-पुर कहा जाता है, जहाँ अनिरुद्ध अनंत पर लेटे हुए हैं. कुछ सत्वत-तंत्रों में नौ वर्षों और प्रत्येक में पूजित प्रमुख अर्च-विग्रह का वर्णन मिलता है: (1) वासुदेव (2) संकर्षण (3) प्रद्युम्न (4) अनिरुद्ध (5) नारायण (6) नृसिंह (7) हयग्रीव (8) महावराह, और (9) ब्रम्हा. “इस संबंध में वर्णित भगवान ब्रम्हा भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. जब भगवान ब्रम्हा के रूप में सशक्त करने योग्य कोई मनुष्य न हो, तो भगवान स्वयं ही भगवान ब्रम्हा का पद धारण करते हैं. तत्र ब्रम्हा तु विज्ञेयः पूर्वोक्त-विधाय हरिः. यहाँ वर्णित ब्रम्हा स्वयं हरि हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 14