कृष्ण ही मूल भोक्ता हैं.

जैसा कि लब्ध ज्ञात है कि सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष पर आधारित है. पुरुष भगवान का परम व्यक्तित्व या वह कोई भी है जो भगवान के परम व्यक्तित्व का अनुसरण एक भोक्ता के रूप में करता है, और प्रकृति समस्त प्रकृति है. इस भौतिक संसार में, भौतिक प्रकृति का दोहन पुरुष या जीवों द्वारा किया जाता है. प्रकृति और पुरुष, या भोक्ता और भोग के पात्र के भौतिक संसार में जटिलता संसार, या भौतिक बंधनों को उदित करती है. भगवद-गीता के पंद्रहवें अध्याय में भौतिक अस्तित्व के वृक्ष को अशवत्थ के रूप में समझाया गया है जिसकी जड़ उर्ध्वगामी है और शाखाएँ अधोगामी हैं. वहाँ सुझाव दिया गया है कि व्यक्ति को इस भौतिक अस्तित्व के वृक्ष की जड़ों को अनासक्ति के कुल्हाड़े से काटना पड़ता है. आसक्ति क्या है? आसक्ति में प्रकृति और पुरुष शामिल हैं. जीव भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास कर रहे हैं. चूँकि बाधित आत्मा भौतिक प्रकृति को अपने आनंद का पात्र समझता है, और वह भोगी की स्थिति ले लेता है, इसलिए उसे पुरुष कहा जाता है. पुरुषों और स्त्रियों के रूप में जीव, भौतिक ऊर्जा का आनंद लेने का प्रयास करते हैं; इसलिए एक अर्थ में हर कोई पुरुष है क्योंकि पुरुष का अर्थ “भोगी” है, और प्रकृति का अर्थ “भोगपात्र” है. इस भौतिक संसार में तथाकथित पुरुष और स्त्री दोनों वास्तविक पुरुष का अनुकरण कर रहे हैं; भगवान का परम व्यक्तित्व पारलौकिक अर्थ में वास्तविक भोक्ता है, जबकि सभी अन्य प्रकृति हैं. भगवद्-गीता में, पदार्थ का विश्लेषण अपरा, या निम्न प्रकृति के रूप में किया जाता है, जबकि इस निम्नतर प्रकृति के आगे अन्य, उच्चतर प्रकृति, जीव है. जीव भी प्रकृति, या भोगपात्र हैं, लेकिन माया के भ्रमवश, जीव झूठ-मूठ भोक्ता की स्थिति लेने का प्रयास करते हैं. यही संसार-बंध, या बद्ध जीवन का कारण है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति के पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 68 और 69.