यह ब्रह्माण्डीय व्यक्ति के रूप में परम भगवान का प्रतिनिधित्व है, जिसमें पृथ्वी उनके चरण है, आकाश उनकी नाभि, सूर्य उनकी आँखें, वायु उनके नासिकाग्र, प्रजनन के देवता उनके जननांग, मृत्यु उनकी गुदा और चंद्रमा उनका चित्त है। स्वर्ग के ग्रह उनके सिर हैं, दिशाएँ उनके कान हैं, और विभिन्न ग्रहों की रक्षा करने वाले देवता उनकी अनेक भुजाएँ हैं। मृत्यु के देवता उनकी भौहें हैं, लज्जा उनका निचले होंठ है, लोभ उनका ऊपरी होंठ है, विमोह उनकी मुस्कान है, और चंद्रमा की कांति उनके दाँत हैं, जबकि वृक्ष सर्वशक्तिमान पुरुष के शारीर के रोम हैं, और मेघ उनके सिर के बाल हैं। जिस प्रकार व्यक्ति इस संसार के एक सामान्य व्यक्ति के विभिन्न अंगों को मापकर उसके आयामों को निर्धारित कर सकता है, ठीक उसी प्रकार व्यक्ति महापुरुष के आयामों को उनके ब्रह्माण्डीय रूप के भीतर ग्रह प्रणालियों की व्यवस्था को माप कर निर्धारित कर सकता है। परम भगवान के सर्वशक्तिमान, अजन्मे व्यक्तित्व की छाती पर कौस्तुभ मणि शोभित है, जो शुद्ध आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, साथ ही श्रीवत्स चिह्न, जो इस मणि के विस्तृत तेज की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उनकी फूलों की माला उनकी भौतिक ऊर्जा है, जिसमें प्रकृति के गुणों के विभिन्न संयोजन सम्मिलित हैं। उनका पीला वस्त्र वैदिक छंद है, और उनका पवित्र धागा तीन ध्वनियों से बना शब्दांश ऊँ है। उनके दो मत्स्य के आकार के कान की बालियों के रूप में, भगवान सांख्य और योग की प्रक्रियाओं को धारण करते हैं, और समस्त संसारों के निवासियों को निर्भयता प्रदान करने वाला उनका मुकुट, ब्रह्मलोक की सर्वोच्च स्थिति है। भगवान के आसन, अनंत, भौतिक प्रकृति की अव्यक्त अवस्था है, और भगवान का कमल सिंहासन मंगल गुण है, जो धर्म और ज्ञान से संपन्न है। भगवान जिस गदा को धारण करते हैं वह मुख्य तत्व, प्राण है, जिसमें संवेदी, मानसिक और शारीरिक बल की शक्तियां क्षमताएँ सम्मिलित होती हैं। उनका उत्कृष्ट शंख जल तत्व है, उनका सुदर्शन चक्र अग्नि तत्व है, और उनकी खड्ग, आकाश के समान शुद्ध, व्योम तत्व है। उनकी ढाल अज्ञानता की अवस्था का प्रतीक है, उनका सारंग नामक धनुष, समय, और उनके बाणों से भरा तूणीर कार्य करने वाले संवेदी अंग हैं। उनके बाणों को इन्द्रियाँ कहा जाता है, और उनका रथ सक्रिय, बलशाली मन है।

स्रोत – अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद भागवतम”, बारहवाँ सर्ग, अध्याय 11 – पाठ 6 से 16.

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