जिस प्रकार माता का लगाव शिशु के साथ सहज होता है, उसी प्रकार, भगवान हमेशा प्रत्येक जीव के प्रति स्नेहिल होते हैं.

हममें से हर व्यक्ति जीवन में सच्ची प्रसन्नता की खोज कर रहा है, जैसे अमर जीवन, शाश्वत या असीमित ज्ञान और समाप्त न होने वाला आनंदमयी जीवन. लेकिन मूर्ख लोग जिन्हें तत्व का ज्ञान नहीं होता वे जीवन के सत्य की खोज भ्रम में करते हैं. यह भौतिक शरीर हमेशा के लिए टिकाऊ नहीं होता, और इस अस्थायी शरीर से संबंधित सभी चीज़ें, जैसे पत्नी, बच्चे, समाज और देश भी शरीर के परिवर्तनों के साथ बदलते हैं. इसे संसार, या जन्म, मृत्यु, जरा और रोग को दोहराव कहा जाता है. हम जीवन की इन सभी समस्याओं के लिए हल खोजना चाहेंगे, लेकिन हम उसकी विधि नहीं जानते. यहाँ सुझाया गया है कि जो कोई भी जीवन के इन कष्टों, जैसे जन्म, मृत्यु, रोग और वृद्धावस्था के दोहराव का अंत चाहता है, उसे किसी अन्य को नहीं बल्कि परम भगवान को पूजने की इस प्रक्रिया को अपनाना चाहिए, क्योंकि अंततः भगवद्-गीता (18.65) में भी यही सुझाव दिया गया है. यदि हम अपने बद्ध जीवन के कारण को थोड़ा भी समाप्त करना चाहते हैं, तो हमें भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को अपनाना चाहिए, जो सभी जीवों के प्रति अपने सहज स्नेह द्वारा सभी लोगों के हृदय में विद्यमान हैं, जो वास्तव में भगवान के ही अंश हैं (भ.गी. 18.61). अपनी माँ की गोद में बच्चे का जुड़ाव सहज ही माँ की ओर होता है, और माँ बच्चे से जुड़ी होती है. लेकिन जब बच्चा बड़ा हो जाता है और परिस्थितियों से विवह्ल हो जाता है, वह धीरे-धीरे माँ से विलग हो जाता है, यद्यपि माँ बड़े हो चुके बच्चे से हमेशा सेवा की आशा करती है और अपने बच्चे के प्रति उतनी ही स्नेहिल होती है, भले ही बच्चा भूल जाए. उसी प्रकार, चूँकि हम सभी भगवान के अंश हैं, भगवान हम पर स्नेह रखते हैं, और वे सदैव हमें वापस घर, परम भगवान तक ले जाने का प्रयास करते हैं. लेकिन हम, बद्ध आत्माएँ, उनकी चिंता नहीं करते और उसके स्थान पर भ्रामक शारीरिक संबंधों के पीछे भागते हैं. इसलिए हमें संसार के सभी मायावी संबंधों से स्वयं को मुक्त करना चाहिए और भगवान से पुनर्मिलन की खोज करना चाहिए, उनकी सेवा करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वे ही परम सत्य हैं. वास्तव में हम उनकी ही लालसा रखते हैं जैसे शिशु अपनी माँ को खोजता है. और भगवान के परम व्यक्तित्व को खोजने के लिए, हमें कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भगवान हमारे हृदयों में ही हैं. यद्यपि इसका अर्थ यह नहीं है, कि हमें पूजा के स्थानों जैसे मंदिर, चर्चों, और मस्जिदों में नहीं जाना चाहिए. उपासना के ऐसे स्थलों में भी भगवान रहते हैं क्योंकि भगवान सर्वव्यापी हैं. सामान्य लोगों के लिए ये पवित्र स्थल भगवान के विज्ञान को सीखने के केंद्र होते हैं. जब मंदिरों में गतिविधियाँ नहीं होती, तो लोग सामान्यतः ऐसे स्थानों में रुचि खो देते हैं, और परिणामवश अधिकांश लोग धीरे-धीरे भगवानविहीन हो जाते हैं, और उसका परिणाम एक भगवानविहीन सभ्यता होती है. ऐसी नर्क समान सभ्यता जीवन की परिस्थितियाँ कृत्रिम रूप से बढ़ाती है, और अस्तित्व सभी के लिए असहनीय हो जाता है. भगवानहीन सभ्यता के नेता भौतिकवाद के एक पेटेंट ट्रेडमार्क के तहत भगवानहीन संसार में शांति और समृद्धि लाने के लिए विभिन्न योजना का यत्न करते हैं, और चूँकि ऐसे प्रयास केवल भ्रामक होते हैं, लोग अक्षम, अंधे नेताओं का चयन एक के बाद एक करते जाते हैं, जो समाधान प्रदान करने में असमर्थ होते हैं. यदि हम चाहते हैं कि भगवानहीन सभ्यता की इस विसंगति को समाप्त करें, तो हमें श्रीमद्-भागवतम जैसे प्रकट शास्त्रों के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और श्री शुकदेव गोस्वामी जैसे व्यक्ति के निर्देशों का पालन करना चाहिए जिन्हें भौतिक लाभ का कोई आकर्षण नहीं होता.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग,अध्याय 2- पाठ 6