पद्म पुराण के अनुसार विभिन्न प्रकार के देवताओं की पूजा करने के लिए विभिन्न प्रकार के शास्त्र हैं. चैतन्य महाप्रभु के अनुसार ऐसे निर्देशों के कारण लोग केवल यह सोचते हैं कि देवता ही श्रेष्ठतम हैं. तथापि यदि व्यक्ति सावधानी से पुराणों का अध्ययन और पड़ताल करे, तो उसे पता चलेगा कि, परम भगवान के व्यक्तित्व, कृष्ण ही पूजा के एकमात्र पात्र हैं. उदाहरण के लिए, मार्कण्डेय पुराण में देवी पूजा, या दुर्गा या काली माता की पूजा का वर्णन मिलता है, लेकिन उसी छंदिका में यह भी कहा गया है कि सभी देवता – दुर्गा या काली के रूप में भी परम विष्णु (कृष्ण) की विभिन्न ऊर्जाएँ हैं. इसलिए पुराणों के अध्ययन से प्रकट होता है भगवान के परम व्यक्तित्व, विष्णु ही पूजा के एकमात्र पात्र हैं. निष्कर्ष यह कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, सभी प्रकार की पूजा न्यूनाधिक यही पुष्टि करती हैं कि जो भी देवताओं की पूजा कर रहा है वास्तव में कृष्ण को ही पूज रहा है क्योंकि देवता और कुछ नहीं बल्कि विष्णु, या कृष्ण के शरीर के विभिन्न भाग हैं. चूँकि नवदीक्षित लोग समान पारलौकिक स्तर पर नहीं होते, इसलिए उन्हें उनकी स्थिति के अनुसार विभिन्न भौतिक प्रकृति की अवस्था के अनुसार विभिन्न देवताओं की पूजा करने का सुझाव दिया जाता है. विचार यही है कि ऐसे नवदीक्षित धीरे-धीरे पारलौकिक स्तर पर उदित हो सकते हैं और भगवान के परम व्यक्तित्व विष्णु की सेवा में सम्मिलित हो सकते हैं. लोग देवताओं के विभिन्न रूपों को पूजने के अभ्यस्त होते हैं; हालाँकि, भगवद्-गीता में ऐसी मानसिकता की भर्त्सना की गई है; इसलिए व्यक्ति को इतना बुद्धिमान होना चाहिए कि वह केवल भगवान के परम व्यक्तित्व जैसे लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम और राधा-कृष्ण की ही पूजा करे. इस प्रकार उसके साथ कभी छल नहीं होगा. देवताओं की पूजा से व्यक्ति स्वयं को उच्चतर ग्रहों तक उठा तो सकता है, लेकिन भौतिक संसार के विघटन के दौरान, देवता और उनके धाम नष्ट हो जाएंगे. लेकिन जो भगवान के परम व्यक्तित्व की पूजा करता है उसे वैकुंठ ग्रह पर पदोन्नत किया जाता है, जहाँ कोई, समय, विनाश या विलय नहीं होता. निष्कर्ष यह कि समय उन भक्तों पर प्रभावकारी नहीं होता जिन्होंने भगवान के परम व्यक्तित्व को सबकुछ के रूप में स्वीकार कर लिया है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 74
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति के पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 229

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