कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं। वे समस्त सुखों के सागर हैं, और वे किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक वस्तु की वासना नहीं रखते। यह तर्क दिया जा सकता है कि कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से एक पारिजात फूल चुराया और इस प्रकार वे अपनी प्यारी पत्नी के नियंत्रण में एक मूर्ख पति लगते हैं। किंतु भले ही कृष्ण कभी-कभी अपने भक्तों के प्रेम से पराजित हो जाते हैं, तब भी वे कभी भी एक साधारण, कामी भौतिकवादी व्यक्ति की तरह आनंद लेने की इच्छा से प्रभावित नहीं होते हैं। अभक्त भगवान और उनके शुद्ध भक्तों के बीच अतीव स्नेह के आदान-प्रदान को नहीं समझ सकते। कृष्ण को उनके प्रति हमारे तीव्र प्रेम द्वारा जीता जा सकता है, और इस प्रकार शुद्ध भक्त भगवान को नियंत्रित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, वृंदावन में अधिक आयु की गोपियाँ कृष्ण को नचाने के लिए अलग-अलग लय में अपने हाथों से ताली बजाती थीं, और द्वारका में सत्यभामा ने कृष्ण को अपने लिए उनके प्रेम के प्रमाण के रूप में एक फूल लाने का आदेश दिया। जैसा कि छह गोस्वामियों के लिए श्रीनिवास आचार्य के गीत में कहा गया है, गोपी-भाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुः: भगवान और उनके शुद्ध भक्त के बीच का प्रेम आध्यात्मिक आनंद का एक सागर है। किंतु उसी समय, कृष्ण पूरी तरह से आत्म-संतुष्ट रहते हैं। कृष्ण ने उदासीन रूप से व्रज-भूमि की अतुलनीय युवा कन्याओं, गोपियों का साथ छोड़ दिया, और अपने चाचा अक्रूर के अनुरोध पर मथुरा चले गए। इस प्रकार न तो वृंदावन की गोपियाँ और न ही द्वारका की रानियाँ कृष्ण के मन में आनंद लेने की भावना जगा पाईं। पर्याप्त विचार किया जाए तो इस संसार में आनंद का अर्थ है संभोग। किंतु यह सांसारिक यौन आकर्षण आध्यात्मिक दुनिया में कृष्ण और उनके शाश्वत सहयोगियों के बीच पारलौकिक प्रेम संबंधों का एक विकृत प्रतिबिंबन है। वृंदावन की गोपियाँ अपरिष्कृत गाँव की युवतियाँ हैं, जबकि द्वारका की रानियाँ कुलीन युवतियाँ हैं। किंतु गोपियाँ और रानियाँ दोनों ही कृष्ण के प्रति प्रेम से अभिभूत हैं। भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप में, कृष्ण सुंदरता, शक्ति, धन, प्रसिद्धि, ज्ञान और त्याग की उच्चतम पूर्णता को प्रदर्शित करते हैं और इस प्रकार वे अपने स्वयं के सर्वोच्च पद से पूरी तरह संतुष्ट रहते हैं। वे गोपियों और रानियों के साथ आध्यात्मिक प्रेम संबंधों का आदान-प्रदान केवल स्वयं उनके लिए ही करते है। केवल मूर्ख ही सोचते हैं कि भगवान कृष्ण उन विकृत मायावी सुखों से आकर्षित हो सकते हैं जिनसे हम विपन्न बद्ध आत्माएँ अंधेपन में जुड़ी हुई हैं। इसलिए सभी को भगवान के परम व्यक्तित्व की सर्वोच्च पारलौकिक स्थिति को पहचानना चाहिए और उनके प्रति समर्पण करना चाहिए। देवताओं के इस कथन का स्पष्ट निहितार्थ यही है।

स्रोत – अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 18.

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