श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, भगवान की रचना का वास्तविक उद्देश्य एक मात्र होता है: स्वयं भगवान के लिए भक्ति सेवा की उन्नति को सुविधाजनक बनाना। यद्यपि यह कहा गया है कि भगवान इन्द्रियतृप्ति की सुविधा प्रदान करते हैं, यह समझा जाना चाहिए कि भगवान का परम व्यक्तित्व अंतत: बद्ध आत्माओं की मूर्खता को क्षमा नहीं करता है। भगवान इन्द्रियतृप्ति (मात्रा-प्रसिद्धये) की सुविधा प्रदान करते हैं ताकि जीव धीरे-धीरे उनके बिना आनंद लेने की कोशिश करने की व्यर्थता को समझ सकें। प्रत्येक जीव कृष्ण का अंश होता है । वैदिक साहित्य में भगवान एक नियामक कार्यक्रम प्रदान करते हैं ताकि जीव अपनी मूर्खता की प्रवृत्ति को धीरे-धीरे समाप्त कर सकें और उनके प्रति समर्पण का मूल्य सीख सकें। भगवान निस्संदेह सभी सौंदर्य, आनंद और संतुष्टि के आगार हैं, और यह प्रत्येक जीव का कर्तव्य है कि वह भगवान की प्रेममयी सेवा में संलग्न रहे। यद्यपि सृष्टि के स्पष्ट रूप से दो उद्देश्य हैं, किंतु यह समझना चाहिए कि अंततः उद्देश्य एक ही है। इन्द्रियतृप्ति की व्यवस्था अंततः जीवों को घर वापस जाने के एकमात्र उद्देश्य, भगवान के पास वापस लाने के लिए ही होती है।

स्रोत – अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 3.

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