व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भगवान को स्वीकार कर सकने के पहले उन्हें देखे.
ऐसा कहा जाता है कि जब ब्रम्हा और अन्य देवता श्वेतद्वीप में भगवान के परम व्यक्तित्व से भेंट करने जाते हैं, तो वे प्रत्यक्ष उन्हें नहीं देख पाते, किंतु उनकी प्रार्थना भगवान सुन लेते हैं, और आवश्यक कार्य कर दिया जाता है. ऐसा हम कई उदाहरणों में देख चुके हैं. श्रुत-पूर्वाय शब्द महत्वपूर्ण है. हम प्रत्यक्ष देखने या सुनने पर अनुभव ले पाते हैं. यदि किसी को प्रत्यक्ष देखना संभव न हो तो, हम उनके बारे में प्रामाणिक स्रोतों से सुन सकते हैं. कई बार लोग पूछते हैं कि क्या हम उन्हें भगवान दिखा सकते हैं. यह हास्यास्पद है. व्यक्ति के लिए भगवान को स्वीकार करने से पहले उन्हें देखना आवश्यक नहीं है. हमारा इंद्रिय बोध हमेशा अपूर्ण होता है. इसलिए, यदि हम भगवान को देख भी लें, तो भी हो सकता है हम उन्हें समझने में सक्षम न हों. जब कृष्ण पृथ्वी पर थे, तो कई लोगों ने उन्हें देखा पर समझ नहीं सके कि वे भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. अवजानाति मम मूढ़ मनुषिम तनुमाश्रितम्. भले ही पापियों और मूर्खों ने व्यक्तिगत रूप से कृष्ण को देखा, वे नहीं समझ पाए कि वे भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. भगवान को व्यक्तिगत रूप से देखने पर भी, जो दुर्भाग्यशाली होता है उन्हें समझ नहीं सकता. इसलिए हमें भगवान, कृष्ण के बारे में प्रमाणिक साहित्य और उन लोगों द्वारा सुनना आवश्यक है जो वैदिक संस्करण को ठीक से समझते हैं. भले ही ब्रम्हा ने भगवान को पूर्व में नहीं देखा था, उन्हें विश्वास था कि भगवान श्वेतद्वीप में उपस्थित हैं. इसलिए उन्होंने वहाँ जाने और भगवान की अर्चना करने का अवसर स्वीकार किया. भगवान को देखना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनके गुणों के बारे में प्रामाणिक साहित्य या प्रामाणिक व्यक्तियों के वास्तविक व्यक्तव्यों द्वारा जानना है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 25