भगवान के पास कौन पहुँच सकता है?
सभी लोग कृष्ण की पूजा कर सकते हैं. ऐसा कोई नियम नहीं है कि केवल निश्चित वर्ग – ब्राम्हण या ब्रम्हचारी या हिंदू – ही भाग ले सकते हैं. नहीं, कृष्ण सभी के लिए उपलब्ध हैं. मम हि पार्थ व्यपश्रित्य ये पि स्यूः पापा-योनयः(भा.गी. 9.32). यहाँ तक कि कृष्ण नीच कुल में जन्मे व्यक्ति के लिए भी उपलब्ध हैं. व्यक्ति को बस उन तक पहुंचने का साधन अपनाना होगा – अर्थात् इंद्रिय सुख का त्याग और कृष्ण चेतना की शुद्धिकारी प्रक्रिया का अभ्यास करना होगा. श्री कृष्ण द्वारा कही गई बातों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे प्रतीत होता हो कि ऐेसे भक्त किसी विशेष जाति, पंथ, रंग या देश की सीमाओं के अंतर्गत प्रकट होंगे. बल्कि, वे कहीं भी हो सकते हैं और होते हैं. इसलिए सभी लोग, वे कोई भी हों, श्रीकृष्ण के भक्त होने के योग्य हैं. इस सत्य की पुष्टि करने के लिए, भगवान के परम व्यक्ति्व ने भगवद्-गीता में कहा है, “हे पृथ के पुत्र, वे भी जो भक्ति हीन और नीच जन्म के हैं – पतिता स्त्रियों सहित, या वेश्याएँ, अज्ञानी श्रमिक, या व्यापारी – सभी पूर्णत्व प्राप्त करेंगे और भगवान के राज्य में पहुंचेंगे यदि वे आध्यात्मिक भक्ति में मेरी शरण लेते हैं.” दूसरे शब्दों में, भक्तिहीनों के समाज में आजकल व्याप्त विवेकहीन जाति व्यवस्था भी, श्रीकृष्ण, भगवान के विशुद्ध परम व्यक्तित्व तक पहुँचने में बाधक नहीं है. श्री कृष्ण ने स्वयं जाति व्यवस्था के मूल सिद्धांतों की कल्पना की है जो वास्तविक और सार्वभौमिक है. चार सामाजिक व्यवस्था – ब्राह्मण (पुजारी और बुद्धिजीवी), क्षत्रिय (प्रशासक और सैनिक), वैश्य (व्यापारी और किसान), और शूद्र (श्रमिक) – उन सामाजिक व्यवस्थाओं के सदस्यों के प्रकृति की विधियों के अधीन उनके कर्मों के द्वारा संचित गुणों के अनुसार स्थापित किए गए हैं. इसलिए हालाँकि एक अर्थ में कृष्ण ही सारे संसार में इस जाति व्यवस्था के निर्माता हैं, फिर भी, दूसरे अर्थ में, वे इसके निर्माता नहीं हैं. अर्थात्, वह एक अत्याचारी और अप्राकृतिक जाति व्यवस्था का निर्माता नहीं हैं जिसमें भक्तिहीन व्यक्ति किसी व्यक्ति के जन्म के अनुसार उसकी स्थिति तय करता है. बल्कि वे ऐक ऐसी जाति व्यवस्था के निर्माता हैं जो सार्वभौमिक रूप से लागू की जा सकती है, स्वैच्छिक और प्राकृतिक है, और किसी व्यक्ति के गुणों और क्षमताओं पर आधारित है. चार सामाजिक क्रमों की व्यवस्था का ध्येय जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था बनाने का नहीं था. यह व्यवस्था लोगों की साधारण, प्रायोगिक योग्यताओं और कार्य के संबंध में सार्वभौमिक रूप से उपयुक्त है. ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद्र का वर्गीकरण व्यक्ति के संयोगवश जन्म के संदर्भ में नहीं बनाया गया है, केवल जन्म अधिकार द्वारा कोई चिकित्सक नहीं बन सकता है – केवल इसलिए कि वह किसी चिकित्सक का बेटा है. जब हम बद्ध होते हैं, तब हम अपनी मूल वैधानिक स्थिति को छोड़ देते हैं, जिसका वर्णन चैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण की चिरंतन सेवा में होना बताया है (जीवेर स्वरूप हय कृष्णर नित्य दास).लेकिन जैसे ही हम स्वयं को भगवान की सेवा में लगा देते हैं, हम तुरंत मुक्ति पा जाते हैं. किसी पूर्व प्रक्रिया से निकलने की आवश्यकता नहीं होती. व्यक्ति द्वारा अपनी इंद्रियाँ भगवान की सेवा में लगाने की क्रिया मात्र ही यह प्रमाण है कि वह मुक्त हो गया है. यह स्वतंत्रता प्रत्येक (समां कारंतम) के लिए खुली है. भगवद् गीता में कृष्ण अर्जुन से यह नहीं कहते, “केवल तुम ही मेरे पास आ सकते हो और मु्क्त हो सकते हो”. नहीं, भगवान सबके लिए उपलब्ध हैं. जब वे कहते हैं, सर्व-धर्मन परित्यज्य मम एकम शरणम व्रज – “अन्य सभी कर्तव्य छोड़ दो और मेरी शरण में आओ” – तब वे केवल अर्जुन से संवाद नहीं कर रहे बल्कि सभी से कह रहे हैं. अर्जुन मूल लक्ष्य था, लेकिन वास्तव में भगवद्-गीता को सबके लिए कहा गया था, सभी मानवों के लिए, और इसलिए व्यक्ति को इसका लाभ लेना चाहिए. कृष्ण की पक्षपातहीनता की तुलना सूर्य से की जाती है. सूर्य यह विचार नहीं करता “यह व्यक्ति निर्धन है, यह व्यक्ति नीच जाति का है, और यह एक शूकर है. मैं अपना प्रकाश इन्हें नहीं दूंगा.” नहीं, सूर्य सबके प्रति समान है, और व्यक्ति को बस उसका लाभ लेना चाहिए. सूर्य का प्रकाश उपलब्ध रहता है, लेकिन यदि हम दरवाज़े बंद कर लें और स्वयं को अंधेरे में रखना चाहें, तो वह हमारा निर्णय है. उसी समान, कृष्ण सभी ओर हैं, सभी के लिए हैं, और जैसे ही हम समर्पण करते हैं कृष्ण हमें स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. समम चरंतम. कोई प्रतिबंध नहीं है. लोग ऊँच-नीच कि भेद-भाव बना सकते हैं, लेकिन कृष्ण कहते हैं. माम हि पार्थ व्यपश्रित्य ये’पि स्यूः पापा-योनयः (भ.गी.32) “भले ही कोई निचली जाति का माना जाता हो, उसका महत्व नहीं है. यदि वह मेरे प्रति समर्पण करता है तो वह भी घर वापस आ सकता है, वापस भगवान के पास लौट सकता है.”
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “आत्मज्ञान की खोज”, पृ. 52
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “परम भगवान का संदेश”, पृ. 50
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “रानी कुंती की शिक्षाएँ”, पृ. 80