विभिन्न व्यक्तियों द्वारा भगवान को भिन्न-भिन्न क्यों माना जाता है, यद्यपि वे एक ही हैं?

माया के प्रतिनिधित्व द्वारा, भगवान की बाह्य शक्ति, भौतिक प्रकृति निरंतर परिवर्तन की स्थिति, विकार में रहती है. एक अर्थ में, भौतिक प्रकृति “असत्य,” असत् है. किंतु चूँकि ईश्वर सर्वोच्च वास्तविकता है, और क्योंकि वह सभी वस्तुओं में अस्तित्वमान है और सभी वस्तुएँ उसकी शक्ति ही हैं, भौतिक वस्तुओं और ऊर्जाओं में एक सीमा तक वास्तविकता होती है. इसलिए कुछ लोग भौतिक ऊर्जा के एक पक्ष को देखते हैं और सोचते हैं, “यह वास्तविकता है,” जबकि अन्य लोग भौतिक ऊर्जा का एक अन्य पक्ष देखते हैं और सोचते हैं, “नहीं, यह वास्तविकता है.” बद्ध आत्मा होने के कारण, हम भौतिक प्रकृति के विभिन्न विन्यासों से आच्छादित हैं, और इस प्रकार हम अपनी भ्रष्ट दृष्टि के संदर्भ में ही परम सत्य या परम भगवान का वर्णन करते हैं. तब भी भौतिक प्रकृति के आवरण के गुण, जैसे कि हमारी बद्ध बुद्धि, मन और इंद्रियाँ, वास्तविक होते हैं (परम भगवान की शक्ति होने के नाते), और इसलिए हम सभी वस्तुओं के माध्यम से व्यक्तिपरक ढंग से, भगवान के परम व्यक्तित्व को, न्यूनाधिक देख सकते हैं. इसीलिए वर्तमान श्लोक में कहा गया है, प्रतीयसे: “तुम्हें प्रतीत किया जाता है.” इसके अतिरिक्त, भौतिक प्रकृति के आवरण के गुणों की अभिव्यक्ति के बिना, सृष्टि अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती थी – अर्थात्, बद्ध आत्माओं को भगवान के बिना आनंद लेने का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने देना ताकि वे अंततः इस तरह की भ्रामक धारणा की निरर्थकता को समझ सकें.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 63- पाठ 38