जो कृष्ण चेतना में होता है समझता है कि पशु और व्यक्ति के घर में उपस्थित बालकों में कोई अंतर नहीं होता. सामान्य जीवन मात्र में भी हमारा यह व्यावहारिक अनुभव है कि घरेलू कुत्ते या बिल्ली को भी बिना ईर्ष्या के, व्यक्ति के बच्चों के समान स्तर का माना जाता है. बच्चों के समान ही, बुद्धिहीन पशु भी भगवान के परम व्यक्तित्व की संतानें होती हैं, और इसलिए एक कृष्ण चेतन व्यक्ति को, भले ही वह गृहस्थ हो, संतानों और निरीह पशुओं में भेदभाव नहीं करना चाहिए. दुर्भाग्य से, आधुनिक समाज ने विभिन्न जीवन रूपों में पशुओं की हत्या करने के कई साधनों का अविष्कार कर लिया है. उदाहरण के लिए, खेतों में कई चूहे, मक्खियाँ और अन्य प्राणी हो सकते हैं जो उत्पादन में व्यवधान पैदा करते हैं, और कई बार उन्हें कीटनाशकों द्वारा मारा जाता है, यद्यपि, इस प्रकार हत्या करने की अनुमति नहीं है. प्रत्येक प्राणी का पोषण भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा दिए गए भोजन से होना चाहिए. मानव समाज को स्वयं को भगवान की समस्त संपत्तियों का एकमात्र भोक्ता नहीं समझना चाहिए; बल्कि, मानवों को समझना चाहिए कि भगवान की संपत्ति में अन्य सभी पशुओं का भी अधिकार है.

 

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14- पाठ 09

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