भगवान का परम व्यक्तित्व सभी छः ऐश्वर्यों से संपन्न है, और इसके अतिरिक्त वे अपने भक्त के लिए बहुत दयालु हैं. यद्यपि वे अपने आप में संपूर्ण है, तब भी वे चाहते हैं कि सभी जीव उनके प्रति समर्पण कर दें ताकि वे भगवान की सेवा मे संलग्न हो सकें. इस प्रकार वे संतुष्ट होते हैं. यद्यपि वे अपने आप में संपूर्ण हैं, फिर भी उन्हें प्रसन्नता मिलती है जब उनके भक्त भक्ति में उन्हें पत्रम, पुष्पम, फलम, तोयम – एक पत्ती, फूल, फल या जल अर्पित करते हैं. कभी-कभी भगवान, माता यशोदा के बालक के रूप में, अपने भक्त से कुछ खाने के लिए अनुरोध करते हैं, जैसे कि वे बहुत भूखे हों. कभी वे अपने भक्त को स्वप्न में बताते हैं कि उनका मंदिर और उनकी वाटिका अब पुराने हो गए हैं और यह कि वे अब उनका आनंद नहीं ले सकते. अतः वे भक्त से उन्हें ठीक करने के लिए कहते हैं. कभी-कभी वे धरती में दबे होते हैं, और जैसे वे स्वयं बाहर निकलने में समर्थ न हों, वे अपने भक्त को उन्हें बचाने के लिए कहते हैं. इसलिए भगवान का अपने भक्तों के साथ संबंध अत्यंत गोपनीय होता है. केवल भक्त ही यह अनुभव कर सकता है कि कैसे भगवान, यद्यपि स्वयं में पूर्ण हैं, कुछ विशेष कार्य के लिए उनके भक्त पर निर्भर करते हैं. यह भगवद-गीता (11.33) में समझाया गया है, जहाँ भगवान अर्जुन से कहते हैं, निमित्त-मात्रम् भव सव्यसाचिन: “हे अर्जुन, युद्ध में केवल एक साधन बनो.” भगवान कृष्ण के पास कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने की क्षमता थी, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने भक्त अर्जुन को युद्ध करने और जीत का कारण बनने के लिए प्रेरित किया. श्री चैतन्य महाप्रभु पूरे संसार में भगवान का नाम और अभियान प्रसारित करने के लिए सक्षम थे, किंतु फिर भी इस कार्य को संपन्न करने के लिए उन्होंने अपने भक्त का भरोसा किया. इन सभी बिंदुओं पर विचार करते हुए, परम भगवान की आत्मनिर्भरता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वह अपने भक्तों पर निर्भर करते हैं. यह उनकी अहेतुक दया कहलाती है. वह भक्त जो परम भगवान की इस अहेतुक दया का बोधज्ञान रखता है, वह स्वामी और सेवक को समझ सकता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 5

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