कृष्ण के लिए गोपियों का आकर्षण और यदुवंश के सदस्यों का स्नेह दोनों ही स्वाभाविक, या रागानुराग के रूप में स्वीकारे जाते हैं. कृष्ण के प्रति कंस के भीरुता में और शिशुपाल के ईर्ष्या में आकर्षण को आध्यात्मिक सेवा के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, हालाँकि, चूँकि उनके व्यवहार हितकारी नहीं हैं. आध्यात्मिक सेवा केवल हितकारी मानसिक अवस्था में ही पूर्ण की जानी चाहिए. इसलिए, श्रील रूप गोस्वामी के अनुसार, इस प्रकार के आकर्षण आध्यात्मिक सेवा के अंतर्गत नहीं माने जाते. पुनः, वे यदुओं के स्नेह का विश्लेषण करते हैं, तब वह स्वाभाविक प्रेम होता है, लेकिन यदि वह नियामक सिद्धातों के स्तर पर है, तो फिर नहीं है. और जब स्नेह स्वाभाविक प्रेम के स्तर पर आता है केवल तभी उसे शुद्ध आध्यात्मिक सेवा की श्रेणी में गिना जाता है. यह समझने में कुछ कठिनाई हो सकती है कि गोपी और कंस दोनों ने एक ही लक्ष्य प्राप्त किया, इसलिए इस बिंदु को स्पष्टता से समझना चाहिए,क्योंकि कंस और शिशुपाल के व्यवहार गोपियों के व्यवहार से भिन्न थे. यद्यपि इन सभी प्रसंगों में एकाग्रता भगवान के परम व्यक्तित्व पर है, और सभी भक्तों को आध्यात्मिक-संसार में उत्थान किया जाता है, आत्मा की इन दो श्रेणियों में अब भी अंतर है. श्रीमद्-भागवतम् के पहले सर्ग में कहा गया है कि परम सत्य एक है, और उसकी रचना अवैयक्तिक ब्राम्हण, परमात्मा (परम-आत्मा), और भगवान (भगवान का परम व्यक्तित्व) के रूप में हुई है. यह एक आध्यात्मिक अंतर है. यद्यपि ब्राम्हण, परमात्मा और भगवान समान हैं और एक ही परम सत्य हैं, फिर भी कंस और शिशुपाल जैसे श्रद्धालु केवल ब्राम्हण दीप्ति को प्राप्त कर सके. वे परमात्मा या भगवान की अनुभूति नहीं कर सके. यही अंतर है. सूर्य पिण्ड और सूर्य प्रकाश के साथ एक समरूपता दी जा सकती है: धूप में रहने का यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति सूर्य पिण्ड तक पहुँच गया है. सूर्य का तापमान उसके प्रकाश से अलग होता है. जो भी जेट विमान या अंतरिक्ष यान में धूप से होकर गुज़रा है, आवश्यक नहीं कि सूर्य तक गया हो. यद्यपि सूर्य का प्रकाश और सूर्य पिण्ड एक ही हैं, फिर भी एक अंतर है, क्योंकि एक ऊर्जा है और दूसरा ऊर्जा का स्रोत है. परम सत्य और उसकी शारीरिक दीप्ति समान रूप से एक साथ एक भी हैं और भिन्न भी. कंस और शिशुपाल ने परम सत्य पाया, किंतु उन्हें गोलोक वृंदावन धाम में प्रवेश नहीं मिला. अवैयक्तिकवादी और भगवान के शत्रुओं को, भगवान के आकर्षण के कारण, उनके राज्य में अनुमति तो मिलती है, लेकिन उन्हें परम भगवान के वैकुंठ ग्रह या गोलोक वृंदावन ग्रह में प्रवेश की अनुमति नहीं होती. राज्य में प्रवेश लेना और राजा के महल में प्रवेश लेना समान नहीं है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण, अंग्रेजी), “समर्पण का अमृत”, पृ. 120 और 121

(Visited 35 times, 1 visits today)
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •