भगवान कभी-कभी अपनी युद्ध भावना को प्रकट करने के लिए एक अवतार के रूप में भौतिक संसार में आते हैं.

भगवान ने कहा है कि द्वारपाल जय और विजय को ऋषियों द्वारा दिया गया श्राप स्वयं भगवान द्वारा कल्पित था. बिना भगवान की स्वीकृति के कुछ नहीं हो सकता. ये समझना चाहिए कि वैकुंठ में भगवान के भक्तों को श्राप देने की एक योजना थी, और उनकी योजना को कई दिग्गज विद्वानों द्वारा समझाया गया है. भगवान कभी-कभी युद्ध करने की इच्छा करते हैं. परम भगवान में युद्ध भावना भी होती है, अन्यथा युद्ध कैसे प्रकट होता? चूँकि भगवान ही सब कुछ का स्रोत हैं, क्रोध और लड़ाई भी उनके व्यक्तित्व में निहित हैं. जब वे किसी से युद्ध के इच्छुक होते हैं, तो उन्हें एक शत्रु खोजना होता है, लेकिन वैकुंठ लोक में कोई शत्रु नहीं होता क्योंकि हर कोई पूर्णरूपेण उनकी सेवा में लगा हुआ है. इसलिए वे कभी-कभी भौतिक संसार में एक अवतार के रूप में अपनी युद्ध भावना को प्रकट करने के लिए आते हैं.

भगवद-गीता (4.8) में यह भी कहा गया है कि भगवान भक्तों को सुरक्षा देने और अ-भक्तों का सर्वनाश करने के लिए प्रकट होते हैं. अ-भक्त भौतिक जगत में पाए जाते हैं, न कि आध्यात्मिक जगत में; इसलिए भगवान जब युद्ध करना चाहते हैं, तो उन्हें इस संसार में आना पड़ता है. लेकिन परम भगवान के साथ कौन लड़ेगा? कोई भी उनसे लड़ने में सक्षम नहीं है! इसलिए, चूँकि भौतिक संसार में भगवान की लीलाओं को हमेशा उनके सहयोगियों के साथ निभाया जाता है, दूसरों के साथ नहीं, अतः उन्हें कुछ भक्त ढूंढने पड़ते हैं जो किसी शत्रु की भूमिका निभाएँ. भगवद-गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं, “मेरे प्रिय अर्जुन, तुम और मैं दोनों इस भौतिक संसार में कई बार प्रकट हुए हैं, लेकिन तुम भूल गए हो, जबकि मुझे याद है”. इस प्रकार, जय और विजय को भगवान द्वारा भौतिक संसार में उनके साथ लड़ने के लिए चुना गया था, और यही कारण था कि ऋषि उनसे मिलने आए और त्रुटिवश द्वारपाल को शाप दिया. यह भगवान की इच्छा थी कि उन्हें हमेशा के लिए नहीं बल्कि कुछ समय के लिए भौतिक संसार में भेजा जाए. इसलिए, जैसे किसी रंगमंच पर कोई व्यक्ति मंच के स्वामी के प्रति शत्रु की भूमिका लेता है, यद्यपि नाटक कुछ ही समय के लिए होता है और सेवक और स्वामी में कोई स्थायी शत्रुता नहीं होती, अतः सुर जनों (भक्तों) को ऋषियों द्वारा अ सुर जनों, या नास्तिक परिवारों के पास जाने का श्राप दिया गया. किसी भक्त का एक नास्तिक परिवार में आना आश्चर्य जनक है, लेकिन वह बस एक दिखावा है. अपना छद्म युद्ध समाप्त कर लेने के बाद, भक्त और भगवान दोनों आध्यात्मिक ग्रहों में दोबारा संबद्ध हो जाते हैं. इसे यहाँ बहुत स्पष्ट रूप से समझाया गया है. निष्कर्ष यह है कि कोई भी आध्यात्मिक दुनिया या वैकुंठ ग्रह से पतित नहीं होता है, क्योंकि वह शाश्वत निवास है. लेकिन कभी-कभी, भगवान की इच्छा के अनुसार, भक्त इस भौतिक संसार में धर्मोपदेशक या नास्तिक के रूप में आते हैं. प्रत्येक प्रसंग में हमें समझना चाहिए कि वह भगवान की कोई योजना है. उदाहरण के लिए, भगवान बुद्ध एक अवतार थे, फिर भी उन्होंने नास्तिकता का प्रचार किया: “कोई ईश्वर नहीं है.” लेकिन जैसा कि भागवतम् में बताया गया है, वह वास्तव में एक योजना थी.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 16- पाठ 26