क्या हम योग के माध्यम से भगवान का अनुभव कर सकते हैं?
उनके लिए जो जीवन की शारीरिक अवधारणा में गहरे उलझे हुए हैं, योग प्रणाली बहुत अच्छी है, क्योंकि यह इंद्रियों को बाहरी संसार से उनके उलझाव से अलग करने का अभ्यास है. हालांकि, योग इतना सरल नहीं है. बहुत से तथाकथित योग शिक्षक लोगों का शोषण कर रहे हैं. योग अभ्यास के आठ स्तर होते हैं. पहले दो यम और नियम हैं. नियामक सिद्धांतों के अंतर्गत व्यक्ति को खाने, सोने, और कार्य करने में इंद्रियों को नियंत्रित करने का प्रयास करना होता है. यह अभ्यास यम-नियम कहलाता है. योग का पहला नियम यौन जीवन से दूर रहना है. यौन जीवन, नशा, और बहुत सी निरर्थक चीज़ों में लगे हुए लोगों के लिए योग में सफलता का कोई अवसर नहीं होता. फिर व्यक्ति को किसी एकांत, पवित्र स्थान पर गर्दन, सिर, और शरीर को एक सीधी रेखा में रख कर बैठना पड़ता है. फिर आपको आधी खुली आँखों से अपनी नाक के शीर्ष को देखना होता है. यदि आप अपनी आँखें खोल लेते हैं, तो भौतिक संसार आपको व्यवधान पहुँचाएगा. और यदि आप आँखें बंद कर लेते हैं, फिर आपको नींद आने लगती है. अष्टांग योग प्रणाली में एक और चरण धारणा, मन की एकाग्रता है. मानसिक एकाग्रता का उद्देश्य क्या है? शरीर के भीतर स्वयं को खोजना और फिर वहाँ भगवान को ढूंढना, यही योग की पूर्णता है. यद्यपि वैदिक साहित्य में योग को मान्यता दी गई है, तथापि आधुनिक युग में इसका अभ्यास कठिन है. यहाँ तक कि पाँच हज़ार वर्ष पहले – जब परिस्थितियाँ अधिक अनुकूल थीं, जब लोग अधिक दूषित नहीं थे और अधिक अनुकूल थे, और कई चीज़ों में अग्रणी थे – तब भी, उस समय पर अर्जुन जैसे व्यक्ति ने योग अभ्यास करने से मना कर दिया था. जब कृष्ण ने उनसे कहा, “इस प्रकार तुम योगी बनते हो,” अर्जुन ने कहा “मेरे लिए यह संभव नहीं है.” इसलिए योग अभी बिलकुल भी संभव नहीं है. यह सत्य-युग में संभव था, जब हर व्यक्ति अच्छाई के व्यवहार में था, हरेक पुरुष बहुत उन्नत था. योग बहुत उन्नत लोगों के लिए है, ना कि सामान्य व्यक्तियों के लिए. लेकिन योग को बहुत अच्छी प्रकार से और पूर्णता के साथ किए जाने पर भी, वह आपको परम भगवान तक नहीं ले जा सकता, यह इस श्लोक में कहा गया है. छद्म योग की क्या बात करें, भले ही आप योग सटीकता से करें, तब भी आप भगवान तक नहीं पहुँच सकते. यह यहाँ कहा गया है: न साध्यति मम योगः.
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण अंग्रेजी), “आत्म-साक्षात्कार की खोज” पृ. 95