यह प्रमाण कहाँ है कि मैं पिछले कर्मों के प्रतिफल का ही कष्ट उठा रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ?
नास्तिक लोग पिछले कर्मों की परिणामी प्रतिक्रिया का प्रमाण चाहते हैं. इसलिए वे पूछते हैं, “यह प्रमाण कहाँ है कि मैं पिछले कर्मों के प्रतिफल का ही कष्ट उठा रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ?” उन्हें अनुमान नहीं होता कि सूक्ष्म शरीर किस तरह वर्तमान शरीर के कर्मों को अगले स्थूल शरीर तक ले जाता है. स्थूल रूप में वर्तमान शरीर समाप्त हो सकता है, लेकिन सूक्ष्म शरीर समाप्त नहीं होता है; यह आत्मा को अगले शरीर में ले जाता है. वास्तव में स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर पर निर्भर होता है. इसलिए आगामी शरीर को सूक्ष्म शरीर के अनुसार ही कष्ट और आनंद भोगना होता है. सूक्ष्म शरीर आत्मा का वहन लगातार करता रहता है जब तक कि वह स्थूल भौतिक बंधन से मु्क्त न हो जाए. जीवों के शरीर दो प्रकार के होते हैं–सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर. वास्तव में वह सूक्ष्म शरीर से सुख लेता है, जो मन, बुद्धि, और अहंकार से बना होता है. स्थूल शरीर सहायक बाहरी कवच है. जब स्थूल शरीर खो जाता है, या मृत हो जाता है, तब स्थूल शरीर का मूल–मन, बुद्धि और अहंकार–बना रहता है और एक और स्थूल शरीर निर्मित कर लेता है. भले ही स्थूल शरीर स्पष्टतः बदल जाता है–मन का सूक्ष्म शरीर, बुद्धि और अहंकार–हमेशा बना रहता है. सूक्ष्म शरीर की गतिविधियाँ–चाहे पवित्र हों या अपवित्र–जीव के लिए भोगने या कष्ट पाने हेतु बाद के स्थूल शरीर में अन्य परिस्थितियाँ बना देती हैं. इसलिए सूक्ष्म शरीर चिरंतन रहता है जबकि स्थूल शरीर एक के बाद एक बदलते रहते हैं. चूँकि आधुनिक वैज्ञानिक और दार्शनिक बहुत भौतिकवादी हैं, और चूँकि उनके ज्ञान को मायावी ऊर्जा ने हर लिया है, वे नहीं बता सकते कि स्थूल शरीर कैसे बदल रहा है. भौतिकवादी दार्शनिक डार्विन ने स्थूल शरीर के बदलावों का अध्ययन करने का प्रयास किया था, लेकिन चूँकि उसे सूक्ष्म शरीर या आत्मा का कोई ज्ञान नहीं था, वह स्पष्ट रूप से नहीं समझा सका कि विकास की प्रक्रिया किस तरह से चल रही है. व्यक्ति स्थूल शरीर बदल सकता है, लेकिन वह सूक्ष्म शरीर में कार्यरत रहता है. लोग सूक्ष्म शरीर की गतिविधियों को नहीं समझ सकते, और परिणामस्वरूप वे व्यग्र रहते हैं कि एक स्थूल शरीर के कर्म दूसरे स्थूल शरीर को कैसे प्रभावित करते हैं. सूक्ष्म शरीर की गतिविधियों का मार्गदर्शन परमात्मा भी करता है, जैसा कि भागवद्गीता (15.15) में समझाया गया है:
सर्वस्य चहम् हृदि सन्निविष्टो स्मृतिर्ज्ञानम् अपोहनम् च
“मैं प्रत्येक के हृदय में विराजमान हूँ, और मुझसे स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आते हैं.” क्योंकि परमात्मा के रूप में भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा व्यक्तिगत आत्मा को हमेशा मार्गदर्शन दिया जाता है, व्यक्तिगत आत्मा हमेशा जानती है कि उसके पिछले कर्मों के प्रतिफलों के अनुसार कैसे कर्म करना है. दूसरे शब्दों में, परमात्मा उसे उस तरह व्यवहार करने की याद दिलाता है. इसलिए हालाँकि स्थूल शरीर में स्पष्टतः परिवर्तन आता है, किसी व्यक्तिगत आत्मा के जीवनों में एक निरंतरता होती है.”
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, चौथा सर्ग, खंड 29 – पाठ 59 और 60