“एक भक्त पिछले पापमय कार्यों के पीड़ादायी प्रभावों को झेलते हुए भी दृढ़तापूर्वक परम भगवान की दया की प्रतीक्षा करता है. भगवान कृष्ण भगवद गीता में बताते हैं कि वह भक्त जो संपूर्ण रूप से उनके प्रति समर्पित हो जाता है, वह आगे अपने पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं को भुगतने के लिए उत्तरदायी नहीं रह जाता है, यद्यपि, अपने मानस के कारण, किसी भक्त में अपनी पिछली पापमय मानसिकता शेष रह सकती है, भगवान अपने भक्त को दंड देकर भोगी आत्मा के अंतिम अवशेषों को हटा देते हैं जो कभी-कभी पापमय प्रतिक्रियाओं के समान हो सकते हैं. भगवान के संपूर्ण सृजन का उद्देश्य जीवों द्वारा भगवान के बिना भोग करने की प्रवृत्ति को सुधारना है, और इसलिए किसी पापमय कर्म के लिए दिया गया दण्ड उस मानसिकता को कम करने के लिए विशेष रूप से रचा जाता है जिसके परिणाम से ऐसा कर्म किया गया था. यद्यपि भक्त ने भगवान की भक्तिमय सेवा में शरण ले ली है, जब तक वह कृष्ण चेतना में पूरी तरह निपुण नहीं हो जाता तब तक उसे संसार के असत्य आनंद को भोगने का रूझान बना रह सकता है. इसलिए भगवान उसकी शेष भोगवादी भावना को मिटाने के लिए कोई विशेष परिस्थिति का निर्माण करते हैं. किसी गंभीर भक्त द्वारा भोगी गई यह अप्रिय स्थिति तकनीकी रूप से कर्म का फल नहीं है; बल्कि यह अपने भक्त को भौतिक संसार से पूरी तरह से मुक्त होने और वापस घर, परम भगवान तक लौटने हेतु प्रेरित करने के लिए भगवान की विशेष दया होती है.

एक सच्चा भक्त ईमानदारी से भगवान के धाम में वापस जाने की इच्छा रखता है. इसलिए वह स्वेच्छा से भगवान के दया भरे दंड को स्वीकार करता है और अपने हृदय, शब्दों और शरीर के साथ भगवान को आदर देना और उनके प्रति श्रद्धा जारी रखता है. भगवान का ऐसा प्रामाणिक सेवक, सभी कठिनाइयों को भगवान की व्यक्तिगत संगति प्राप्त करने के लिए दिया गया एक तुच्छ मूल्य मानते हुए, निश्चित ही भगवान की वैध संतान बन जाता है, जैसा यहाँ दया-भाक शब्दों का संकेत मिलता है. जैसे कोई अग्नि बने बिना सूर्य तक नहीं पहुँच सकता, वैसे ही कोई कठोर शुद्धिकरण प्रक्रिया से गुजरे बिना परम शुद्ध, भगवान कृष्ण के पास नहीं पहुँच सकता, जो कि कष्ट के समान लग सकती है किंतु वास्तविकता में वह एक उपचारात्मक उपाय है जो व्यक्तिगत रूप से भगवान के करकमलों द्वारा ही अधिशासित किया जाता है.”

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण,अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 08

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