शास्त्रों द्वारा संपत्ति संचय करने की अनुमति नहीं दी गई है.
“भगवान की कृपा से कभी-कभी हमें अन्न की बहुत बड़ी मात्रा मिल जाती है या हम अचानक कोई अनुदान या व्यवसाय में अनपेक्षित लाभ पा जाते हैं. इस प्रकार हमें आवश्यकता से अधिक धन मिल सकता है. अतः, उसका व्यय कैसे करना चाहिए? केवल बैंक बैलेंस बढ़ाने के लिए बैंक में धन जमा करने की कोई आवश्यकता नहीं है. इस प्रकार की मानसिकता को भगवद-गीता (16.13) में आसुरी मानसिकता बताया गया है.
इदं आद्य माया लब्धं इमाम प्रपस्ये मनोरथम
इदं अस्तिदम अपि मे भविष्यसति पुनर धनम्
“आसुरी व्यक्ति सोचता है, ‘मेरे पास आज बहुत संपत्ति है, और मैं अपनी योजनानुसार और भी अर्जित करूँगा. आज मेरे पास बहुत है, और भविष्य में यह और अधिक, और अधिक बढ़ेगा.’ ” असुर का विचार यही होता है कि उसके पास आज बैंक में कितनी संपत्ति है और वह कल कितनी बढ़ेगी, लेकिन संपत्ति का असीमित संचयन शास्त्रों या आधुनिक युग में, सरकार द्वारा अनुमत नहीं है. वास्तव में, यदि किसी के पास अपनी आवश्यकता से अधिक है, तो अतिरिक्त धन को कृष्ण के लिए व्यय करना चाहिए. वैदिक सभ्यता के अनुसार, वह सारा कृष्ण चेतना आंदोलन को दे देना चाहिए, जैसा कि स्वयं भगवान द्वारा भगवदा-गीता (9.27) में आदेश किया गया है:
यत् करोसी यद असनासी यज जुहोसी दादासी यत्
यत् तपस्यासि कौन्तेय तत् कुरुस्व मद्-अर्पणम
“हे कुंती पुत्र, जो कुछ भी तुम करते हो, जो कुछ भी तुम खाते हो, जो कुछ भी तुम अर्पण करके दान करते हो, और साथ ही समस्त तप जो तुम करते हो, वह सब मुझे अर्पण करते हुए करना चाहिए.” गृहस्थों को अतिरिक्त धन केवल कृष्ण चेतना आंदोलन के लिए व्यय करना चाहिए.
गृहस्थों को परम भगवान के मंदिर निर्माण के लिए और समस्त संसार में श्रीमद् भगवद् -गीता, या कृष्ण चेतना के प्रचार के लिए योगदान करना चाहिए. श्रवण भगवतो भिक्षाणम् अवतार-कथामृतम्. शास्त्रों –पुराणों और अन्य वैदिक साहित्य–में भगवान के परम व्यक्तित्व की पारलौकिक गतिविधियों का वर्णन करने वाले कई विवरण हैं, और सभी को उनका श्रवण बार-बार करना चाहिए. उदाहरण के लिए, यदि हम संपूर्ण भगवद्-गीता, का पाठ हर दिन भी करें, तो सभी अठारह अध्यायों को हर बार पढ़ने पर हमें एक नई व्याख्या मिलेगी. पारलौकिक साहित्य का यही स्वभाव होता है. इसलिए कृषण चेतना आंदोलन व्यक्ति को अपनी अतिरिक्त आय का व्यय कृष्ण चेतना के प्रसार के द्वारा समस्त मानव समाज के लाभ के लिए करने का अवसर देता है. विशेषकर भारत में हम सैकड़ों – सहस्त्रों मंदिर देखते हैं जिनका निर्माण समाज के धनिक व्यक्तियों द्वारा कराया गया था जो स्वयं को चोर कहलाना और दंड भोगना नहीं चाहते थे. यह श्लोक बहुत महत्वपूर्ण है. जैसा कि यहाँ कहा गया है, वह जो आवश्यकता से अधिक धन का संचय करता है, चोर होता है, और प्रकृति के नियम द्वारा उसे दंड दिया जाएगा. वह व्यक्ति जो आवश्यकता से अधिक धन अर्जित करता है, वह अधिक से अधिक भौतिक सुखों को भोगने का इच्छुक बन जाता है. भौतिकवादी बहुत सी कृत्रिम आवश्यकताओं को जन्म दे रहे हैं, और जिनके पास धन है, वे ऐसी कृत्रिम आवश्यकताओं से आकर्षित होकर अधिक से अधिक वस्तुओं को पाने हेतु धन का संग्रह करने का प्रयास करते हैं. आधुनिक आर्थिक विकास की यही अवधारणा है. हर कोई धन कमाने में लगा हुआ है, और धन को बैंक में रखा जाता है, जो धन को जनता को प्रस्तुत करते हैं. गतिविधियों के इस चक्र में, हर कोई अधिक से अधिक धन पाने में लगा हुआ है, और इसलिए मानव जीवन का आदर्श लक्ष्य खोता जा रहा है. संक्षिप्त में, यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति चोर है और दंड पाने के योग्य है.
प्रकृति के नियमों द्वारा दंड जन्म और मृत्यु के चक्र में घटित होता है. कोई भी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से संतुष्ट होकर नहीं मरता, क्योंकि ऐसा संभव नहीं है. इसलिए व्यक्ति की मृत्यु के समय, वह अपनी कामनाओं को पूरा करने में अक्षम होने के कारण दुखी रहता है. फिर प्रकृति के नियमों द्वारा वयक्ति को उसकी असंतुष्ट इच्छाओं की पूर्ति के लिए एक और शरीर दे दिया जाता है, और पुनः जन्म लेते, एक और भौतिक शरीर स्वीकारते समय, व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन के त्रिविध कष्टों को स्वीकार कर लेता है. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14 – पाठ 8