वैदिक पारलौकिक ज्ञान सीधे परम भगवान के व्यक्तित्व से आता है.
तर्क किया जा सकता है कि शुकदेव स्वामी ही पारलौकिक ज्ञान के एकमात्र विद्वान नहीं हैं क्योंकि बहुत से अन्य संत और उनके अनुयायी भी हैं. व्यासदेव के समकालीन या उनके भी पहले बहुत से अन्य महान ऋषिहुए हैं जैसे गौतम, कणाद, जैमिनी, कपिल और अष्टावक्र, और उन सभी ने अपना स्वयं का दार्शनिक पथ प्रस्तुत किया है. पतंजलि भी उनमें से एक हैं, और इन सभी छः महान ऋषियों का विचार करने का अपना स्वयं का ढंग था, बिलकुल आधुनिक दार्शनिकों और विचारकों के समान. उपर्युक्त प्रसिद्ध दार्शनिकों द्वारा बताए गए छह दार्शनिक मार्गों और श्रीमद्-भागवत में प्रस्तुत शुकदेव गोस्वामी के बताए मार्ग के बीच का अंतर, यह है कि उपरोक्त सभी छः ऋषि अपनी-अपनी सोच के अनुसार तथ्यों को बताते हैं, किंतु शुकदेव गोस्वामी सीधे ब्रह्माजी द्वारा आने वाला ज्ञान बताते हैं, जिन्हें आत्म-भूः, या परम भगवान के सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व द्वारा जन्मा और शिक्षित किया गया जाना जाता है.
वैदिक पारलौकिक ज्ञान सीधे परम भगवान के व्यक्तित्व से आता है. उनकी दया से, ब्रह्मांड के पहले प्राणी ब्रम्हा, को ज्ञान प्राप्त हुआ, और ब्रह्मा जी से, नारद को ज्ञान प्राप्त हुआ, और नारद से, व्यास को प्राप्त हुआ था. शुकदेव गोस्वामी को अपने पिता व्यासदेव से सीधे इस पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति हुई. इस प्रकार, शिष्य उत्तराधिकार की श्रृंखला से प्राप्त किया जा रहा ज्ञान ही परिपूर्ण होता है. व्यक्ति पूर्णता में आध्यात्मिक गुरु तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि वह उसे शिष्य उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त नहीं होता. यही पारलौकिक ज्ञान प्राप्त करने का रहस्य है. ऊपर वर्णित छः महान ऋषि महान विचारक हो सकते हैं, लेकिन मानसिक अटकलों द्वारा उनका ज्ञान परिपूर्ण नहीं है. एक अनुभववादी दार्शनिक एक दार्शनिक थीसिस प्रस्तुत करने में सिद्ध हो सकता है, लेकिन ऐसा ज्ञान कभी भी अचूक नहीं हो सकता है क्योंकि यह एक अविकसित मष्तिष्क द्वारा निर्मित होता है. इतने महान ऋषियों का शिष्य उत्तराधिकार भी है, लेकिन वे मान्य नहीं हैं क्योंकि वह ज्ञान सीधे स्वतंत्र परम भगवान के व्यक्तित्व, नारायण से नहीं आ रहा है. नारायण के अतिरिक्त कोई भी आत्मनिर्भर नहीं है; इसलिए किसी का भी ज्ञान संपूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि सभी का ज्ञान अस्थिर मस्तिष्क पर निर्भर होता है. मन भौतिक है और इसलिए भौतिक विचारकों द्वारा प्रस्तुत ज्ञान कभी भी पारलौकिक नहीं है और संपूर्ण नहीं हो सकता. साधारण दार्शनिक, स्वयं असंपूर्ण होते हुए भी, अन्य दार्शनिकों से सहमत नहीं होते क्योंकि साधारण दार्शनिक किसी भी तरह दार्शनिक नहीं हो सकता जब तक कि वह स्वयं अपना सिद्धांत प्रस्तुत न करे. महाराज परीक्षित जैसे बुद्धिमान व्यक्ति एसे विचारकों की मानसिक अटकलों को नहीं मानते, चाहे वे कितने भी महान हों, बल्कि वे शुकदेव गोस्वामी जैसे विद्वानों की बात सुनते हैं, जो परंपरा प्रणाली में परम भगवान के व्यक्तित्व से अभिन्न हैं, जिसका विशेष उल्लेख भगवद्-गीता में हुआ है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 8 - पाठ 25