“पश्चिमी विद्वान कभी-कभी सोचते हैं कि ज्ञान की प्राचीन पुस्तकों में समुद्र के देवता, सूर्य के देवता आदि के संदर्भ में एक असभ्य, काल्पनिक विचार को प्रकट करते हैं. वे कभी-कभी कहते हैं कि असभ्य लोगों को लगता है कि समुद्र एक देवता है या कि सूर्य और चंद्रमा देवता हैं. वास्तव में, इस श्लोक में सिंधु शब्द, जिसका अर्थ “महासागर” है, जैसे संदर्भ उस व्यक्ति की ओर इंगित करते हैं जो भौतिक प्रकृति के उस पहलू को नियंत्रित करता है.

हम कई आधुनिक उदाहरण दे सकते हैं. हम संयुक्त राष्ट्र में कह सकते हैं, “संयुक्त राज्य का मत ‘हाँ’, सोवियत संघ का मत ‘नहीं’ है”. हमारा शायद ही यह अर्थ होता है कि भौतिक देशों या उनकी इमारतों ने मतदान किया है. हमारा अर्थ है कि उस राजनीतिक और भौगोलिक इकाई का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी विशेष व्यक्ति ने मतदान किया है. फिर भी समाचार पत्र बस यही कहेंगे, “संयुक्त राज्य ने मतदान किया, निर्णय लिया, आदि.” और हर कोई जानता है कि इसका अर्थ क्या है.

इसी समान, व्यवसाय में हम कह सकते हैं, “एक बड़े समूह ने एक छोटी फर्म को निगल लिया है”. हमारा ये आशय नहीं होता कि इमारतों, कार्यालयीन यंत्रों और या उसके समान चीज़ों ने कर्मचारियों और यंत्रों से भरी किसी दूसरी इमारत को निगल लिया है. हमारा आशय है कि अधिकार प्राप्त प्राधिकारीगण अपनी संबंधित कॉर्पोरेट संस्थाओं की ओर से किसी विशेष कार्य में लगे हुए हैं.

दुर्भाग्य से आधुनिक विद्वान अपने मनचाहे सिद्धांतों की पुष्टि करने के लिए उत्सुक हैं कि प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान आदिम, काल्पनिक है और बड़े पैमाने पर विचार के अधिक आधुनिक तरीकों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, जिसका उदाहरण उनकी अपनी वाक्पटु टिप्पणियों से है. यद्यपि, आधुनिक विद्वता में से बहुत कुछ पर कृष्ण भावनामृत के आलोक में पुनर्विचार किया जाना चाहिए.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 45 – पाठ 38

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