वैदिक वांग्मय की व्यक्तिगत व्याख्या वास्तविक अर्थ को क्यों धुंधला कर सकती है?

भगवान चैतन्य के अनुसार, जो लोग वैदिक कथनों की व्यक्तिगत व्याख्या करने का प्रयास करते हैं, वे बिलकुल भी बुद्धिमान नहीं हैं. वे अपने स्वयं की व्याख्या का आविष्कार करके अपने अनुयायियों को पथभ्रष्ट करते हैं. भगवान चैतन्य ने उपनिषदों की गलत व्याख्याओं का विरोध किया, और उन्होंने किसी भी ऐसे स्पष्टीकरण को अस्वीकार कर दिया, जो उपनिषद का सीधा अर्थ नहीं देता हो. प्रत्यक्ष व्याख्या को अभिधा-वृत्ति कहा जाता है, जबकि अप्रत्यक्ष व्याख्या को लक्षण-वृत्ति कहा जाता है. अप्रत्यक्ष व्याख्या का कोई उद्देश्य नहीं है. चार प्रकार की ज्ञप्ति होती है, जिन्हें यह कहा जाता है: (I) प्रत्यक्ष ज्ञप्ति , (2) काल्पनिक ज्ञप्ति , (3) ऐतिहासिक ज्ञप्ति , और (4) ध्वनि (शब्द) के माध्यम से ज्ञप्ति. इन चारों में, वैदिक ग्रंथों (जो परम सत्य के ध्वनि निरूपण हैं) से ज्ञान प्राप्ति सबसे श्रेष्ठ है. पारंपरिक वैदिक विद्यार्थी ध्वनि के माध्यम से ज्ञप्ति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. उदाहरण के लिए, किसी भी जीव के मल और हड्डी को वैदिक साहित्य के अनुसार अपवित्र माना जाता है, फिर भी, वैदिक साहित्य यह कहता है कि गाय का गोबर और शंख शुद्ध होते हैं. स्पष्ट रूप से ये कथन विरोधाभासी हैं, लेकिन क्योंकि गाय के गोबर और शंख को वेदों द्वारा शुद्ध माना जाता है, उन्हें वेदों के अनुयायियों द्वारा शुद्ध माना जाता है. यदि हम अप्रत्यक्ष व्याख्या द्वारा कथनों को समझना चाहते हैं, तब हमें वैदिक कथनों को चुनौती देनी होगी. दूसरे शब्दों में, वैदिक कथनों को हमारी अधूरी व्याख्या ध्वारा स्वीकार नहीं किया जा सकता; उन्हें यथारूप स्वीकार करना चाहिए. अन्यथा वैदिक कथनों की कोई प्रामाणिकता नहीं रहेगी.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 298