प्रत्येक पति अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त होता है. इसलिए, व्यक्ति का अपनी पत्नी से संबंध त्यागना बड़ा कठिन होता है, लेकिन यदि व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा के लिए किसी तरह इसका त्याग करता है, तो स्वयं भगवान, जिन पर कोई विजय नहीं पा सकता, भक्त के नियंत्रण के अधीन हो जाते हैं. और यदि भगवान किसी भक्त से प्रसन्न होते हैं, तो ऐसा क्या है जिसे अर्जित नहीं किया जा सकता? व्यक्ति को क्यों नहीं अपनी और बच्चों के स्नेह को त्यागना चाहिए और भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लेनी चाहिए? किसी भी भौतिक वस्तु की क्या हानि है? गृहस्थ जीवन का अर्थ है व्यक्ति के पत्नी के प्रति आसक्ति, जबकि सन्यास का अर्थ है पत्नी से विरक्ति और कृष्ण के प्रति आसक्ति. यदि व्यक्ति बुद्धिमान है, तो वह अपनी पत्नी के शरीर के बारे में यह विचार कर सकता है कि वह और कुछ नहीं पदार्थ का एक ढेला है जो अंततः छोटे कीड़ों, मल या राख में परिवर्तित हो जाएगा. विभिन्न समाजों में अंत्येष्टि के समय मानव शरीर का क्रियाकर्म करने की विभिन्न विधियाँ होती हैं. कुछ समाजों में मृत शरीर को गिद्धों को खाने के लिए दे दिया जाता है, और इस प्रकार मृतशरीर अंततः गिद्ध के मल में बदल जाता है. कभी-कभी शरीर को बस ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, और उस प्रसंग में शरीर को छोटे कीटों द्वारा खा लिया जाता है. कुछ समाजों में शरीर को मृत्यु के तुरंत बाद जला दिया जाता है, और इस प्रकार वह राख बन जाता है. किसी भी प्रकार, यदि वय्क्ति बुद्धिमानी से शरीर और उसके बाद आत्मा के विधान पर विचार करे, तो शरीर का क्या मूल्य है? अंतवंत इमे देह नित्यस्योक्तः शरीरिणाः : शरीर का क्षरण किसी भी समय हो सकता है, लेकिन आत्मा अमर है. यदि व्यक्ति शरीर की आसक्ति त्याग दे और आत्मा के प्रति आसक्ति बढ़ा ले, तो उसका जीवन सफल होगा. यह केवल विचार-विमर्श का विषय है.

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14 – पाठ 12 व 13

(Visited 278 times, 1 visits today)
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •