चार युग होते हैं: सत्य युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलि युग. पहले युग सत्ययुग में, लोग बड़े पवित्र होते थे. हर कोई आध्यात्मिक ज्ञान और भगवान की अनुभूति के लिए गूढ़ योग पद्धति का अभ्यास करता था. क्योंकि सभी लोग सदैव समाधि में लीन रहते थे, कोई भी भौतिक इंद्रिय भोग में रुचि नहीं रखता था. त्रेता युग में, लोग इंद्रिय भोग का आनंद बिना किसी पीड़ा के लिया करते थे. भौतिक कष्ट द्वापर युग से प्रारंभ हुए, लेकिन वे बहुत घोर नहीं थे. घोर भौतिक दुखों का प्रारंभ कलि युग की शुरुआत से हुआ. इस श्लोक में एक और बात है कि इन आठों स्वर्गीय वर्षों में, यद्यपि पुरुष और स्त्रियाँ मैथुन का आनंद लेते हैं, लेकिन कोई गर्भधारण नहीं होता है. श्लोक हमें बताता है कि हमारे जीवन से उच्चतर वर्ग के जीवों में गर्भधारण पूरे जीवनकाल में एक बार होता है. उन ग्रहों के निवासी जीवन का आनंद ताज़े खिले कमल के फूलों से भरी झीलों और फलों, फूलों, विभिन्न प्रकार के पक्षियों और भंवरों से भरपूर वाटिकाओं के आनंदमयी वातावरण में लेते हैं. उस वातावरण में वे अपनी सुंदर पत्नियों के साथ जीवन का आनंद लेते हैं, जो सदैव कामातुर रहती हैं. तथापि वे सभी भगवान के परम व्यक्तित्व के भक्त होते हैं. इस पृथ्वी के निवासी भी वैसा ही स्वर्गीय आनंद चाहते हैं, लेकिन जब वे किसी प्रकार बनावटी सुख जैसे मैथुन और नशा अर्जित कर लेते हैं, तो वे परम भगवान की सेवा को पूरी तरह भूल जाते हैं. स्वर्गीय ग्रहों में हालाँकि, वहाँ के निवासी उच्चतर इंद्रिय सुख भोगते हैं, लेकिन वे परम भगवान के सेवक होने की अपनी स्थिति को कभी नहीं भूलते. तब भी लोगों का यौन जीवन होता है, लेकिन कोई गर्भाधान नहीं है. आध्यात्मिक संसार में, लोग उनके अति भक्तिपूर्ण व्यवहार के कारण यौन जीवन की ओर बहुत आकर्षित नहीं होते. व्यावहारिक रूप से, आध्यात्मिक संसार में कोई यौन जीवन नहीं होता, लेकिन यदि कभी-कभी ऐसा होता भी है, तो कोई भी गर्भधारण नहीं होता. गर्भधारण केवल निचले स्तर के जीवन में होता है. पृथ्वी ग्रह पर, मानव को गर्भधारण होता है, यद्यपि प्रवृत्ति संतान उत्पत्ति से बचने की होती है. कलि के इस पापमयी युग में, लोग शिशु को गर्भ में ही मारने तक की प्रक्रिया में लिप्त हो गए हैं. यह सबसे तुच्छ व्यवहार है; इससे इसे निष्पादित करने वाले लोगों की दयनीय भौतिक स्थितियों केवल और भी स्थायी बन सकती है.

अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 12 और 13

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