वेद किसने लिखे और उन्हें कब लिखा गया?
संसार के शास्त्रों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है, वे जो भगवान द्वारा सीधे दिए गए हैं और वे जो पवित्र पुरुषों द्वारा संकलित किए गए हैं. प्रामाणिक होने के लिए, पवित्र पुरुषों की रचनाओं को भगवान द्वारा सीधे दिए गए मूल पाठ का अनुपालन करने की आवश्यकता होती है. यदि कोई संदर्भ नहीं है, तो ऐसे कथन अस्वीकार कर दिए जाते हैं; क्योंकि हर मनुष्य चार दोषों के अधीन होता है: (1) गलतियाँ करना, (2) भ्रम होना, (3) दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति और (4) सीमित अपूर्ण इंद्रियाँ. ईसाई, इस्लाम और वैदिक साहित्य आदि सभी, शास्त्रों के इन दो भागों को प्रदर्शित करते हैं.
वैदिक साहित्य समान रूप से श्रुति और स्मृति में विभाजित किया गया है. भगवान द्वारा सीधे दिए गए शास्त्रों को श्रुति कहा जाता है. इस ज्ञान को सुनने के बाद, ऋषियों ने श्रुति का संदर्भ देकर अपने अनुभवों को लिखा. इसे स्मृति कहते हैं. वेदों को मूल रूप से स्वयं परम भगवान द्वारा ब्रम्हा को कहा गया था, जो उनके हृदय से उत्पन्न, भौतिक संसार के पहले जीव हैं.
चूँकि वैदिक ज्ञान को श्रुति कहा जाता है, इससे इंगित होता है कि इसे सुन कर सीखा जाता है.इसलिए वैदिक ज्ञान को उच्चतर विद्वानों से सुनकर (श्रवणम्) प्राप्त करना पड़ता है. पिछले युगों में लोग बहुत बुद्धिमान हुआ करते थे. उनकी स्मृति बहुत तीक्ष्ण होती थी. किसी आध्यात्मिक गुरु से केवल एक बार सुनकर वे कुछ भी याद रख सकते थे. इसलिए, उन युगों में वेदों को लिखित रूप में रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी, हालाँकि श्रील वेदव्यास ने पहले ही देख लिया था कि इस वर्तमान कलियुग में, विवाद और अधूरी समझ के युग में, विज्ञान और तकनीक के शोर से घिरे लोग, बहुत कम बुद्धिमान होंगे, और उनकी स्मृति बहुत कम होगी. इसलिए लगभग 5,000 साल पहले उन्होंने इस वर्तमान युग की सभी जिज्ञासु आत्माओं के लाभ के लिए वेदों को लिखित रूप में संकलित किया. वे समस्त वैदिक ज्ञान को पुराणों, वेदांत, महाभारत और श्रीमद्-भागवतम् जैसी पुस्तकों के रूप में हमारे लिए छोड़ कर गए.
वास्तव में वेद का अर्थ ज्ञान है, और वेदांत का अर्थ है ज्ञान का अंत है, जो कि भगवान श्रीकृष्ण, परमात्मा के परम व्यक्तित्व को जानना है. भगवद्-गीता समस्त वैदिक ज्ञान का सार है. इसे परम भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अंतरंग मित्र और शिष्य अर्जुन को उपदेश में कहा था. श्रीमद्-भागवतम समस्त वैदिक साहित्य का फल है. यह जीवन का परमार्थ, भगवान श्रीकृष्ण का व्यक्तिरूप है. यह भगवान के असीमित पारलौकिक गुणों का वर्णन करता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “कृष्ण चेतना का वैज्ञानिक आधार”, पृ. 43
अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण, अंग्रेजी), “भक्ति का अमृत”, पृ.51
रसमंडल दास (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “इस्लाम और वेद - विलुप्त समन्वय”, पृ. 111, 112 और 114