वेदों में लिखी बातों का विश्वास हमें क्यों करना चाहिए?
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: “मैं सभी के हृदय में विराजमान हूँ, और स्मरण, ज्ञान और विस्मरण मुझसे ही आते हैं. सभी वेदों में मैं जानने योग्य हूँ; वास्तव में मैंने ही वेदांत संकलित किए हैं, और मैं ही वेदों का ज्ञाता हूँ”. [भगवद्-गीता 15.15] इसलिए वेदों के शब्द सबसे प्रामाणिक हैं.
कोई ये पूछ सकता है, “कोई भी प्रामाणिकता को कैसे स्वीकार कर सकता है?” इसका उत्तर श्रील प्रभुपाद द्वारा दिया गया है: “किसी के पिता के प्रश्न के लिए वास्तविक माँ का उत्तर आधिकारिक है”. इस बारे में कोई भी तर्क या आपत्ति नहीं कर सकता. इसी प्रकार जब कोई बालक अपने पिता से यह सीखता है कि दो गुणा दो चार के बराबर होता है और यही बात वह गणित के किसी प्राध्यापक को कहता है, प्राध्यापक को स्वीकार करना पड़ेगा कि बालक बिलकुल ठीक कह रहा है. बालक शायद सटीक न हो, लेकिन वह जिस ज्ञान को कह रहा है वह सटीक है क्योंकि उसने वह किसी बुद्धिमान व्यक्ति से सीखा है. इसी प्रकार, समस्त वैदिक ज्ञान अचूक है. उदाहरण के लिए, वेदों में यह उल्लेख किया गया है कि गाय का गोबर शुद्ध होता है, जबकि अन्य मल अशुद्ध होता है, और आधुनिक विज्ञान ने इसे सच पाया है. रासायनिक विश्लेषण द्वारा वैज्ञानिक रूप से इसकी पुष्टि की गई है कि गाय के गोबर में वास्तव में विभिन्न सड़न रोधक गुण होते हैं.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “कृष्ण चेतना का वैज्ञानिक आधार”, पृ. 44