सामान्यतः लोग इस प्रभाव में होते हैं कि आध्यात्मिक जीवन का अर्थ स्वेच्छा से निर्धनता को स्वीकार करना है, जो कि सत्य नहीं है. कोई निर्धन व्यक्ति भौतिकवादी हो सकता है, और कोई संपन्न व्यक्ति बहुत धार्मिक हो सकता है. आध्यात्मिक जीवन निर्धनता या संपत्ति दोनों पर निर्भर नहीं होता है. आध्यात्मिक जीवन पारलौकिक होता है. उदाहरण के लिए अर्जुन पर विचार करें. अर्जुन राजसी परिवार का सदस्य था, फिर भी वह भगवान का विशुद्ध भक्त था. और भगवद्-गीता (4.2) में श्री कृष्ण कहते हैं, एवम् परंपरा-प्राप्तम् इमम् राजर्षयो विदुः: “यह सर्वोच्च विज्ञान शिष्य उत्तराधिकार की श्रृंखला के माध्यम से प्राप्त किया गया था, और संत राजाओं ने इसे उसी तरह से समझा”. पूर्व में, जो राजा साधु समान थे वे आध्यात्मिक विज्ञान को समझते थे. इसलिए, आध्यात्मिक जीवन व्यक्ति की भौतिक अवस्था पर निर्भर नहीं होता. व्यक्ति की भौतिक स्थिति चाहे जो हो – वह चाहे राजा हो या दरिद्र हो – वह तब भी आध्यात्मिक जीवन को समझ सकता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान”, पृ. 76

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