भागवद् गीता जाति प्रथा के बारे में क्यों कहती है?

भागवद्-गीता में कृष्ण कहते हैं, चतुर्-वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागश: “मैंने उनकी गुणवत्ता और कार्य के अनुसार पुरुषों के चार विभाग बनाए हैं.” [भ.गी. 4.13] उदाहरण के लिए, आप समझ सकते हैं कि समाज में इंजीनियर और साथ ही चिकित्सक होते हैं. क्या आप कहते हैं कि वे भिन्न जाति से संबंध रखते हैं- कि एक इंजीनियर जाति का है और दूसरा चिकित्सक जाति का? नहीं. यदि किसी व्यक्ति ने स्वयं को चिकित्सा विद्यालय में दीक्षित किया है तो आप उसे डॉक्टर के रूप में स्वीकार करते हैं; और यदि दूसरे व्यक्ति ने इंजीनियरिंग में डिग्री पाई है , तो आप उसे एक इंजीनियर के रूप में स्वीकार करते हैं. इसी प्रकार, भागवद्-गीता समाज में पुरुषों के चार वर्ग परिभाषित करती है: बहुत बुद्धिमान पुरुषों का एक वर्ग, प्रशासकों का एक वर्ग, उत्पादक पुरुषों का एक वर्ग, और सामान्य कार्य करने वाले. ये भेद प्राकृतिक हैं. उदाहरण के लिए, पुरुषों का एक वर्ग बहुत बुद्धिमान है. लेकिन भागवद्-गीता में वर्णित पहले-वर्ग के पुरुष की योग्यता वास्तव में पूरी करने के लिए, उन्हें प्रशिक्षण देने की आवश्यकता होती है, वैसे ही जैसे योग्य डॉक्टर बनने के लिए किसी बुद्धिमान बालक को महाविद्यालय में प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है. इसलिए कृष्ण चेतना आंदोलन में लोगों को उनके मन को नियंत्रित करने, उनकी इंद्रियों को नियंत्रित करने, सच्चा बनने, आंतरिक और बाहरी रूप से निर्मल होने, बुद्धिमान बनने, अपने ज्ञान को व्यावहारिक जीवन में लगाने, और भगवान के प्रति सचेत होने की विधि की शिक्षा दी जाती है. आंदोलन ऐसी जाति प्रथा को प्रस्तुत नहीं कर रहा है, जिसमें किसी ब्राम्हण परिवार में जन्मा दुष्ट स्वतः रूप से ब्राम्हण होता है. चाहे उसकी आदतें पाँचवी श्रेणी के पुरुष की हों, लेकिन उसे ब्राम्हण परिवार में उसके जन्म के कारण पहली श्रेणी के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है. यह स्वीकार्य नहीं है. उस पुरुष को पहली श्रेणी का माना जाता है जिसका प्रशिक्षण ब्राह्मण के रूप में हुआ है. इसका महत्व नहीं है कि वह भारतीय, यूरोपीय, या अमेरिकी है; नीचे या ऊँचे कुल में जन्मा है – इसका महत्व नहीं है. किसी भी बुद्धिमान पुरुष को पहली-श्रेणी अपनाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी),”आत्म-साक्षात्कार का विज्ञान”, पृ. 16