यहां तक कि सबसे अच्छी भौतिक स्थिति भी वास्तव में पिछली नियमविरुद्ध गतिविधियों का ही एक दंड होती हैI

“वयक्ति को भौतिक इंद्रिय तुष्टि का पीछा करने में अपना जीवन व्यर्थ नहीं करना चाहिए, क्योंकि भौतिक प्रसन्नता का कोई विशिष्ट गुण व्यक्ति के पास उसके पिछले और वर्तमान फलदायी कर्मों के परिणाम के रूप में उसके पास स्वतः ही आएगा। यह शिक्षा अजगर से मिलती है, जो लेटा रहता है और अपने भरण-पोषण के लिए जो कुछ भी अपने आप आता है उसे स्वीकार करता है। उल्लेखनीय रूप से, भौतिक स्वर्ग और नरक दोनों में सुख और दुख हमारे पिछले कर्मों के कारण स्वत: ही आते हैं, यद्यपि, सुख और दुख के अनुपात निश्चित रूप से भिन्न होते हैं। स्वर्ग में या नरक में वयक्ति खा सकता है, पी सकता है, सो सकता है और यौन जीवन जी सकता है, लेकिन ये गतिविधियाँ, भौतिक शरीर पर आधारित होने के कारण, अस्थायी और महत्वहीन होती हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि सर्वोत्तम भौतिक स्थिति भी वास्तव में भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति सेवा की परिधि से बाहर की गई पिछली नियमविरुद्ध गतिविधियों का ही एक दंड होती है। एक बद्ध आत्मा थोड़े से सुख को प्राप्त करने के लिए बहुत कष्ट उठाती है। भौतिक जीवन में संघर्ष करने के बाद, जो कठिनाई और पाखंड से भरा होता है, व्यक्ति को थोड़ी इन्द्रियतृप्ति प्राप्त हो सकती है, किंतु यह मायावी सुख किसी भी तरह से उस कष्ट के बोझ को कम नहीं करता है जो इस सुख को प्राप्त करने के लिए उसे भोगना पड़ता है। अंततः, एक सुंदर टोपी पारिवारिक मुख का स्थान नहीं ले सकती। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में जीवन की समस्याओं को हल करना चाहता है, तो उसे सरलता से रहना चाहिए और अपने जीवन के बड़े भाग को कृष्ण की प्रेममयी सेवा के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। यहाँ तक कि जो लोग भगवान की सेवा नहीं करते हैं, वे भी उनकी ओर से भरण-पोषण का एक निश्चित स्तर प्राप्त करते हैं; अतः हम केवल उस सुरक्षा की कल्पना कर सकते हैं जो भगवान उन लोगों को प्रदान करते हैं जो अपना जीवन उनकी भक्तिमय सेवा के लिए समर्पित करते हैं।
अपरिष्कृत सकाम कर्मी मूर्खतापूर्वकि केवल वर्तमान जीवन की चिंता करते हैं, जबकि अधिक पवित्र कर्मी विवेकहीनता पूर्वक भविष्य में भौतिक इन्द्रियतृप्ति के लिए विस्तृत व्यवस्था करते हैं, और इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि ऐसा सभी आनंद अस्थायी होता है। यद्यपि वास्तविक समाधान इस बात को समझना है कि परम भगवान, जो सभी इंद्रियों और सभी इच्छाओं के स्वामी हैं उनके व्यक्तित्व को प्रसन्न करके, व्यक्ति स्थायी सुख प्राप्त कर सकता है। ऐसा ज्ञान जीवन की समस्याओं को सरलता से हल कर देता है।”

स्रोत – अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 8 – पाठ 1.