भगवद्-गीता में देवताओं के वरदानों की निंदा की गई है.
“यहाँ देवताओं द्वारा दिए गए वरदानों और भगवान के परम व्यक्तित्व, विष्णु द्वारा प्रदान किए गए वरदानों में अतंर दिया गया है. देवताओं के भक्त केवल इंद्रिय तुष्टि के लिए वरदान माँगते हैं, और इसलिए उन्हें भगवद-गीता (7.20) में बुद्धि से रिक्त वर्णित किया गया है.
<span style=”color: #800000;”>कामैस तैस तैर हृत-ज्ञानाः प्रपद्यंते ‘न्या-देवताः</span>
<span style=”color: #800000;”>तम तम नियमम आस्थाय प्रकृत्य नियतः स्वय</span>
“जिन लोगों का मन भौतिक इच्छाओं से विकृत होता है वे देवताओं के प्रति समर्पण करते हैं और उनके निजी स्वभाव के अनुसार उपासना के विशेष नियमों का पालन करते हैं.” बद्ध आत्माएँ सामान्यतः इंद्रिय तुष्टि की गहरी कामनाओं के कारण बुद्धि से च्युत होती हैं. वे नहीं जानते कि क्या वरदान माँगना है. इसलिए शास्त्रों में अभक्तों को भौतिक लाभों की प्राप्ति के लिए विभिन्न देवताओँ की उपासना का सुझाव दिया जाता है. उदाहरण के लिए, यदि कोई सुंदर पत्नी चाहता है, तो उसे उमा, या देवी दुर्गा की पूजा करने का सुझाव दिया जाता है. यदि कोई रोग से ठीक होना चाहता है तो उसे सूर्य देवता की पूजा करने का सुझाव दिया जाता है.
यद्यपि, देवताओँ के आशीर्वाद के सभी अनुरोध भौतिक लिप्सा के कारण ही हैं. जगत उत्पत्ति की समाप्ति पर वरदान समाप्त हो जाएंगे, साथ ही वे भी जो उन्हें प्रदान करते हैं. यदि कोई भगवान विष्णु के पास दर्शन के लिए जाता है, तो भगवान उसे ऐसा आशीर्वाद देंगे जो उसे वापस परम भगवान के पास, घर लौटने में सहायता करेगा. इसकी पुष्टि स्वयं भगवान ने भगवद-गीता (10.10) में भी की है:
<span style=”color: #800000;”>तेषाम सतत युक्तानाम भजंतम प्रीति-पूर्वकम</span>
<span style=”color: #800000;”>ददामि बुद्धि-योगम् तम येन मम उपायंति ते</span>
भगवान विष्णु, या भगवान कृष्ण, उस भक्त को जो लगातार उनकी सेवा में संलग्न रहता है निर्देश देते हैं कि वह अपने भौतिक शरीर के अंत में कैसे उन तक पहुँचे. भगवान भगवद गीता (4.9) में कहते हैं:
<span style=”color: #800000;”>जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवं यो वेत्ति तत्वतः</span>
<span style=”color: #800000;”>त्यक्त्व देहं पुनर्जन्म नैति मम ऐति सो’र्जुना</span>
“हे अर्जुन, जो मेरे स्वरूप और क्रियाकलापों के पारलौकिक स्वरूप को जानता है, वह शरीर छोड़ने पर, इस भौतिक संसार में फिर से जन्म नहीं लेता है, अपितु मेरे शाश्वत निवास को प्राप्त करता है.” यह भगवान विष्णु, कृष्ण का वरदान है. अपने शरीर को छोड़कर, एख भक्त वापस घर, परम भगवान के पास लौटता है. कोई भक्त मूर्खतावश भौतिक वरदान माँग सकता है, परंतु भगवान कृष्ण भक्त की प्रार्थनाओं के बावजूद उसे इस तरह के वरदान नहीं देते हैं. इसलिए भौतिक जीवन से अत्यंत लगाव रखने वाले लोग सामान्यतः कृष्ण या विष्णु के भक्त नहीं बनते. इसके स्थान पर वे देवताओं के भक्त बन जाते हैं. (कामैस तैस तैर हृत-ज्ञानाः प्रपद्यंते ‘न्या-देवताः). यद्यपि भगवद्-गीता में देवताओँ के वरदानों की निंदा की गई है. अंतवत तु फलम तेषाम तद् भवत्यल्प-मेधषम: “छोटी बुद्धि के लोग अवगुणों की पूजा करते हैं, और उनके फल सीमित और अस्थायी होते हैं।” एक अ-वैष्णव जो भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा में संलग्न नहीं है, उसे अल्प मष्तिष्क वाला मूर्ख समझा जाता है.”
<span style=”color:#00ccff;”>स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 9- पाठ 50</span>