जीव पहले वह शरीर स्वीकार करता है जो मानव रूप में हो.

“मूल रूप से जीव एक आध्यात्मिक प्राणी होता है, लेकिन जब वह वास्तव में इस भौतिक संसार का भोग करने की लालसा करता है, तब वह नीचे आ जाता है. इस श्लोक से हम समझ सकते हैं कि जीव पहले वह शरीर स्वीकार करता है जो मानव रूप होता है, लेकिन धीरे-धीरे, उसकी पतित गतिविधियों के कारण, वह जीवन के और निचले रूपों–पशु, पौधों और जलचर रूपों– में पतित होता जाता है. क्रमिक विकास की धीमी प्रक्रिया द्वारा, जीव इकाई फिर से एक मानव का शरीर पा लेती है और और उसे देहांतरण की प्रक्रिया से निकलने का एक और अवसर दिया जाता है. यदि वह मानव रूप में अपनी स्थिति को समझने का अपना अवसर फिर से खो देता है, तो उसे दोबारा विभिन्न प्रकार के शरीरों में जन्म और मृत्यु के चक्र में डाल दिया जाता है. भौतिक संसार में आने की जीव की लालसा को समझना कठिन नहीं है. हालाँकि व्यक्ति का जन्म आर्यों के परिवार में हो सकता है, जहाँ मांस-भक्षण, नशा करना, जुआ और अवैध संभोग की मनाही होती है, फिर भी व्यक्ति इन प्रतिबंधित वस्तुओं का उपभोग करना चाहता है. ऐसा कोई हमेशा होता है जो अनैतिक संभोग के लिए वेश्या के पास या किसी होटल में मांस खाने या मदिरा पीने के लिए जाना चाहता है. ऐसा कोई हमेशा होता है जो नाइटक्लबों में जुआ खेलना या तथाकथित खेल का आनंद लेना चाहता है. ये सभी प्रवृत्तियाँ जीवों के हृदय में पहले से ही हैं, लेकिन कुछ जीव इन घृणास्पद गतिविधियों का भोग करने के लिए रुक जाते हैं और फलस्वरूप पतित होकर निचले स्तर पर पहुँच जाते हैं. व्यक्ति जितना अधिक निम्न स्तरीय जीवन की कामन हृदय में करता है, उतना ही घृणास्पद अस्तित्व के विभिन्न रूप लेने के लिए पतित होता है. यही देहांतरण और विकास की प्रक्रिया है. विशिष्ट पशुओं में किसी एक प्रकार के इंद्रिय भोग की शक्तिशाली प्रवृत्ति हो सकती है, लेकिन मानव रूप में व्यक्ति सभी इंद्रियों से सुख भोग सकता है. मानव रूप के पास संतुष्टि के लिए सभी इंद्रियों का उपयोग करने की सुविधा है. जब तक कि व्यक्ति उचित रूप से शिक्षित न हो, वह भौतिक प्रकृति के प्रकारों का पीड़ित बन जाता है”, जैसा कि भागवद्-गीता (3.27) में पुष्ट किया गया है: प्राकृतेः क्रियामनानि गुणैः कर्माणि सर्वसः अहंकार-विमुधात्म कर्ताहम् इति मान्यते “भौतिक प्रकृति की तीन प्रणालियों के प्रभाव में किंकर्तव्यविमूढ़ आत्मा स्वयं को उन गतिविधियों की कर्ता समझती है जो वास्तव में प्रकृति द्वारा निष्पादित की जाती हैं”. जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी इंद्रियों के भोग की इच्छा करता है, वह स्वयं को भौतिक ऊर्जा के नियंत्रण में दे देता है और अपने आप, या यंत्रवत, विभिन्न जीवन-रूपों में जन्म और मृत्यु के चक्र में रख दिया जाता है.”

<span style=”color: #00ccff;”>स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, चौथा सर्ग, खंड 29 – पाठ 04</span>