किसी जीव की परिणामी कर्म उसे विभिन्न प्रकार के शरीरों के स्वीकार करने के लिए बाध्य करती हैं.
“सभी ओर से खतरा होने के बावजूद, हिरण किसी पुष्प वाटिका में ही घास चरता है, उसे अपने आस-पास के खतरे की कोई चेतना नहीं होती. सभी जीव, विशेषकर मानव, परिवारों के बीच स्वयं को बहुत प्रसन्न मानते हैं. जैसे भंवरों का मीठा गुंजन सुनते हुए किसी पुष्प वाटिका में रह रहे हों, सभी लोग उसकी पत्नी की ओर केंद्रित हैं, जो पारिवारिक जीवन का सौंदर्य है. भंवरों के गुंजन की तुलना बच्चों की किलकारियों से की जा सकती है. बिलकुल हिरण की तरह, मानव अपने पारिवारिक जीवन का आनंद लेता है यह जाने बिना कि काल तत्व उसके सामने है, जिसे बाघ माना जाता है. जीवों के परिणामी कर्म बस एक और खतरनाक स्थिति का निर्माण करते हैं और उसे विभिन्न शरीर स्वीकार करने को बाध्य करते हैं. किसी हिरण का मरुस्थल में मरीचिका के पीछे भागना असामान्य नहीं है. हिरण भी मैथुन बहुत पसंद करता है. निष्कर्ष यह कि जो व्यक्ति हिरण के समान जीवन जिएगा वह काल के साथ मारा जाएगा. इसलिए वैदिक साहित्य सुझाव देता है कि हमें अपनी स्थिति को समझना चाहिए और मृत्यु आने से पहले आध्यात्मिक सेवा में रत हो जाना चाहिए. भागवतम् (11.9.29) के अनुसार:
लब्ध्वा सुदुर्लभम् इदम् बहु-संभवंते मनुष्यम् अर्थदम् अनित्यम् अपिह धीरः
तूर्णम् यतेत न पतेदानुमृत्यु यवन निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात
यह मानव रूप कई जन्मों के बाद हमें मिला है; इसलिए मृत्यु आने से पहले, हमें प्रभु की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में संलग्न हो जाना चाहिए. यही मानव जीवन की पूर्णता है.
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, चौथा सर्ग, खंड 29 – पाठ 53