मृत्यु का भय सभी को लगता है.
भगवद्-गीता में भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं, मृत्यु सर्व-हारस चहम : “मैं सब कुछ को निगल जाने वाला मृत्यु हूँ. ” इसलिए मृत्यु वह प्रतिनिधि है जो उस जीव से सबकुछ ले जाता है जिसने एक भौतिक शरीर ले रखा है. कोई भी नहीं कह सकता, “मुझे मृत्यु का भय नहीं है.” यह एक मिथ्या प्रस्ताव है. सभी को मृत्यु से डर लगता है. तथापि, वह जो भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लेता है, उसे मृत्यु से बचाया जा सकता है. कोई यह तर्क कर सकता है, “क्या भक्त नहीं मरते?” उत्तर है कि भक्त को निश्चित ही शरीर छोड़ना होता है, क्योंकि शरीर भौतिक है. यद्यपि, अंतर यह है कि, उसके लिए जो संपूर्ण रूप से कृष्ण को समर्पित है और जिसकी सुरक्षा कृष्ण करते हैं, उसके लिए वर्तमान शरीर अंतिम होता है; उसे दोबारा भौतिक शरीर नहीं मिलेगा जो कि मृत्यु के अधीन होता है. यह भगवद्-गीता (4.9) में सुनिश्चित किया गया है. त्यक्त्व देहं पुनर्जन्म नैति मम इति सो’र्जुनः : अपना शरीर त्यागने के बाद भक्त, कोई भौतिक शरीर नहीं स्वीकारता, बल्कि घर, वापस परम भगवान की ओर लौट जाता है. हम हमेशा खतरे में हैं क्योंकि किसी भी क्षण मृत्यु आ सकती है. ऐसा नहीं है कि केवल गजेंद्र, गजों के राजा को ही मृत्यु का भय था.
सभी को मृत्यु का भय होना चाहिए क्योंकि सभी को शाश्वत समय का मगरमच्छ पकड़ लेता है और वह किसी भी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं. इसलिए कृष्ण, भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लेना, और इस भौतिक संसार में अस्तित्व के संघर्ष से बचना ही सबसे श्रेष्ठ है, जिसमें व्यक्ति बार-बार जन्म लेता और मरता है. इस ज्ञान तक पहुँचना ही जीवन का परम लक्ष्य है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 33


	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
	
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
			
			
		
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	
		
		
	






