यह श्लोक उन लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो स्वयं को कृष्ण चेतना के उच्चतर स्तर पर उठाना चाहते हैं. जब किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक गुरु द्वारा दीक्षा दी जाती है, तो वह अपनी आदतें बदल लेता है और अवांछित खाद्य पदार्थ नहीं खाता या मांस भक्षण, मदिरापान, शास्त्र विरुद्ध मैथुन या जुआ आदि में रत नहीं होता. सात्विक-आहार, सदाचारी अवस्था वाले खाद्यपदार्थों का वर्णन शास्त्रों में गेहूँ, चावल, सब्ज़ियाँ, फल, दूध, शक्कर, और दूध के उत्पाद के रूप में किया गया है. चावल, दाल, चपाती, सब्ज़ियाँ, दूध और शक्कर से मिलकर संतुलित भोजन बनता है, लेकिन कभी-कभी पाया जाता है कि एक दीक्षित व्यक्ति, प्रसाद के नाम पर, अत्यंत वैभव वाला भोजन खाता है. उसके पिछले पापमय जीवन के कारण वह कामदूतों के प्रति आकर्षित हो जाता है और बहुत गरिष्ठ भोजन भूखों के जैसे खाता है. यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि जब कृष्ण चेतना में कोई नवदीक्षित बहुत अधिक खाता है, तो वह पतित हो जाता है. विशुद्ध कृष्ण चेतना मे उत्थित होने के स्थान पर, वह कामदूतों के प्रति आकर्षित हो जाता है. तथाकथित ब्रम्हचारी स्त्रियों द्वारा उत्तेजित हो जाता है, और वानप्रस्थ फिर से अपनी पत्नी के साथ मैथुन करने के प्रति मोहित हो सकता है. या वह एक और पत्नी की खोज में लग सकता है. कुछ भावुकता के कारण, वह स्वयं अपनी पत्नी को छोड़ सकता है और भक्तों और एक आध्यात्मिक गुरु की संगति में आ सकता है, लेकिन अपने पिछले पापमय जीवन के कारण वह ठहर नहीं सकता. कृष्ण चेतना में ऊंचा उठने के बजाय, कामदूत से आकर्षित हो, वह पतित हो जाता है, और यौन सुख के लिए दूसरी पत्नी को ले आता है. श्रीमद्-भागवतम् (1.5.17) में किसी नवदीक्षित का कृष्ण चेतना के मार्ग से भौतिक जीवन में पतित होने का वर्णन नारद मुनि द्वारा किया गया है. त्यक्त्व स्व-धर्मण चरणाम्बुजम हरेर् भजन अपक्वो थ पतेत ततो यदि यत्र क्व वभद्रम अभुद अमुस्य किं को वर्थ आप्तो भजतम् स्व-धर्मतः एक नवदीक्षित भक्त को न तो बहुत अधिक खाना चाहिए न ही आवश्यकता से अधिक धन एकत्र करना चाहिए. बहुत अधिक खाना या बहुत अधिक संग्रह करना अत्याहार कहलाता है. ऐसे अत्याहार के लिए व्यक्ति को बहुत अधिक प्रयास करना पड़ता है. इसे प्रयास कहते हैं. सतही रूप से व्यक्ति स्वयं को नियमों और विनियमों के प्रति बहुत अधिक आज्ञाकारी दिखा सकता है, लेकिन उसी समय विनियामक सिद्धांतों में अस्थिर हो सकता है. इसे नियमाग्रह कहते हैं. अवांछित लोगों के साथ मिलने या जन-संग द्वारा, व्यक्ति वासना और लालच के वशीभूत हो जाता है और भक्ति सेवा के मार्ग से गिर जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 26- पाठ 13

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