Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 6

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प्रायश्चित व्यक्ति के पाप कर्मों की गंभीरता के अनुसार होना चाहिए.

मनु-संहिता जैसे धर्म-शास्त्रों में कहा गया है कि हत्या करने वाले व्यक्ति को फाँसी दी जानी चाहिए और उसका जीवन प्रायश्चित में बलिदान कर देना चाहिए. पूर्व में पूरे संसार में इस प्रणाली का पालन किया जाता था, लेकिन चूँकि लोग नास्तिक बन रहे हैं, वे मृत्युदंड को रोक रहे हैं. यह बुद्धिमानी नहीं है. यहाँ कहा गया है कि कोई चिकित्सक जो किसी रोग का निदान करना जानता है, वह उसी के अनुसार दवा निर्धारित करता है. यदि रोग बहुत गंभीर है, तो दवा शक्तिशाली होनी चाहिए. किसी हत्यारे का पाप का भार बहुत बड़ा होता है, और इसलिए मनु-संहिता के अनुसार हत्यारे को मारा जाना चाहिए. हत्यारे को मृत्यु देकर सरकार उस पर दया करती है क्योंकि यदि इस जीवन में हत्यारा नहीं मारा जाता है, तो भविष्य में उसे कई बार मरने और पीड़ित होने के लिए विवश होना पड़ेगा. चूँकि लोग आगामी जीवन और प्रकृति की जटिल कार्यप्रणाली के बारे में नहीं जानते हैं, वे अपने स्वयं के नियमों का निर्माण कर लेते हैं, लेकिन उन्हें शास्त्रों के स्थापित निषेधों से परामर्श लेना चाहिए और उनके अनुसार व्यवहार करना चाहिए. भारत में आज भी हिंदू समुदाय अक्सर पापमयी गतिविधियों का प्रतिकार करने के बारे में विशेषज्ञ विद्वानों से परामर्श लेता है. ईसाई धर्म में भी पाप- स्वीकरण और प्रायश्चित की एक प्रक्रिया है. इसलिए प्रायश्चित की आवश्यकता रहती है, और प्रायश्चित व्यक्ति के पाप कृत्यों के गंभीरता के अनुसार ही होना चाहिए.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 1 – पाठ 8

भगवान का गुणगान व्यक्ति के हृदय से मैल को पूर्ण रूप से मिटा देता है.

“धार्मिक शास्त्रों में सुझाए गए प्रायश्चित के अनुष्ठान समारोह हृदय को पूर्ण रूपेण शुद्ध करने के लिए अपर्याप्त हैं क्योंकि प्रायश्चित के बाद व्यक्ति का मन फिर से भौतिक गतिविधियों की ओर भागता है. फलस्वरूप, जो भौतिक कर्मों की परिणामी प्रतिक्रियाओं से मुक्ति चाहते हैं, उनके लिए हरे कृष्ण मंत्र का जाप या भगवान के नाम, प्रसिद्धि और लीलाओं का गुणगान प्रायश्चित की सबसे सटीक विधि के रूप में सुझाया गया है क्योंकि ऐसा जाप व्यक्ति के हृदय से मैल को संपूर्ण रूप से मिटा देता है.

श्रीमद-भागवतम (1.2.17):
श्रण्वतम् स्व-कथः कृष्ण पुण्य-श्रवण-कीर्तनः
हृद्यंतः-स्थो हि अभद्राणि विधुनोति सुहृत शतम

“श्रीकृष्ण, भगवान के व्यक्तित्व, जो सभी के हृदय में परमात्मा [परम आत्मा] हैं और सच्चे भक्त के दाता हैं, अपने संदेशों, जो ठीक से सुनने और जपने पर स्वयं बहुत गुणी होते हैं, की प्रशंसा करने वाले भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को मिटा देते हैं.” यह परम भगवान की विशेष कृपा है कि उन्हें जैसे ही पता चलता है कि कोई उनके नाम, प्रसिद्धि और गुणों का महिमामंडन कर रहा है, तो वे व्यक्तिगत रूप से उसके हृदय से मैल हटाने में सहायता करते हैं. इसलिए इस प्रकार के महिमामंडन से न केवल व्यक्ति पवित्र होता है, बल्कि पवित्र कार्यों (पुण्य-श्रवण-कीर्तन) के परिणाम भी प्राप्त करता है. पुण्य-श्रवण-कीर्तन भक्ति सेवा की प्रक्रिया को संदर्भित करता है. भले ही कोई भगवान के नाम, लीलाओं या गुणों का अर्थ नहीं समझता, तो भी व्यक्ति केवल उनका श्रवण या जाप करके शुद्ध हो जाता है. ऐसा शुद्धिकरण सत्व-भावना कहलाता है.

मानव जीवन में व्यक्ति का मुख्य उद्देश्य अपने अस्तित्व को शुद्ध करना और मोक्ष प्राप्त करना होना चाहिए. जब तक व्यक्ति के पास भौतिक शरीर होता है, उसे अशुद्ध समझा जाता है. ऐसी अशुद्ध, भौतिक अवस्था में, व्यक्ति वास्तविक आनंदमय जीवन का आनंद नहीं ले सकता है, यद्यपि हर कोई ऐसा चाहता है. इसलिए श्रीमद्-भागवतम (5.5.1) कहता है, तपो दिव्यं पुत्रक येन सत्वम् शुद्ध्येत: व्यक्ति को आध्यात्मिक स्तर पर आने के लिए अपने अस्तित्व को शुद्ध करने के लिए तपस्या, साधना करनी चाहिए. भगवान के नाम, प्रसिद्धि और गुणों का जाप और यशोगान करने की तपस्या एक बहुत ही सरल शुद्धिकरण प्रक्रिया है जिसके द्वारा हर कोई प्रसन्न रह सकता है. इसलिए, जो कोई भी अपने हृदय की पूर्ण शुद्धि की कामना करता है उसे इस प्रक्रिया को अपनाना चाहिए. कर्म, ज्ञान और योग जैसी अन्य प्रक्रियाएँ, हृदय की पूर्ण शुद्धि नहीं कर सकती हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 12

केवल भगवान का नाम जपने से ही वयक्ति को पापमय जीवन की प्रतिक्रियाओं से मुक्ति मिलेगी.

“श्रीकृष्ण, भगवान के व्यक्तित्व, जो सभी के हृदय में परमात्मा [परम आत्मा] हैं और सच्चे भक्त के दाता हैं, ऐसे भक्त के हृदय से भौतिक भोग की इच्छा को साफ कर देते हैं जो उनके संदेशों का आनंद लेने वाले होते हैं, जिनको सुनने और जपने पर वे स्वयं में ही गुणवान होते हैं. यह परम भगवान की विशेष दया है कि जैसे ही उन्हें पता चलता है कि कोई उनके नाम, प्रसिद्धि और विशेषताओं का गुणगान कर रहा है, तो वे उसके हृदय से मैल हटाने में स्वयं ही सहायता करते हैं. इसलिए इस तरह के गुणगान से न केवल व्यक्ति पवित्र होता है, बल्कि पवित्र कार्यों (पुण्य-श्रवण-कीर्तन) के परिणाम भी प्राप्त करता है.पुण्य-श्रवण-कीर्तन भक्ति सेवा की प्रक्रिया को संदर्भित करता है. यहाँ तक कि अगर कोई भगवान के नाम, लीलाओं या विशेषताओं के अर्थ को नहीं समझता है, तो भी उन्हें सुनने या जप करने मात्र से व्यक्ति शुद्ध हो जाता है. ऐसी शुद्धि को सत्व-भाव कहा जाता है.
मृत्यु के समय, अजामिल ने असहाय अवस्था मे बहुत ऊँचे स्वर में भगवान के पवित्र नाम का जाप किया, ऐसा अजामिल द्वारा परम भगवान के पवित्र नाम के गुणगान के कारण था कि वह दंड देने योग्य नहीं था. विष्णुदूतों ने इसे ऐसे समझाया है: “बस एक बार नारायण के पवित्र नाम का जप करके, यह ब्राह्मण पापी जीवन की प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो गया. वास्तव में, वह न केवल इस जीवन के पापों से मुक्त हो गया, बल्कि कई, अन्य सहस्त्रों जीवन के पापों से मुक्त हो गया. उसने पहले ही अपने सभी पापपूर्ण कार्यों के लिए सच्चा प्रायश्चित कर लिया. यदि कोई शास्त्रों के निर्देशों के अनुसार प्रायश्चित करता है, तो व्यक्ति वास्तव में पापमय प्रतिक्रियाओं से मुक्त नहीं होता है, लेकिन यदि कोई भगवान के पवित्र नाम का जप करता है, तो ऐसे जप की एक झलक सभी पापों से तुरंत मुक्त कर सकती है. भगवान के पवित्र नाम की महिमा का जप करने से सभी सौभाग्य जाग जाते हैं.

भगवद्-गीता (8.5) में कहा गया है:
अन्त-काले च मम एव स्मरण मुक्त्वा कलेवरम्
यः प्रयति स मद-भावम् यति नास्त्य अत्र संशयः

यदि किसी को मृत्यु के समय, कृष्ण, नारायण की याद आती है, तो निश्चित रूप से तुरंत घर, वापस परम भगवान के पास लौटने के योग्य है.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 12, 13, परिचय

हरे कृष्ण मंत्र के जाप की शक्ति.

अग्नि अपना कार्य करती है, चाहे वह किसी अबोध बालक के हाथ में हो या कोई ऐसा जो इसकी शक्ति को जानता हो. उदाहरण के लिए, भूसे या सूखी घास के किसी मैदान में किसी वयस्क व्यक्ति द्वारा जो अग्नि की शक्ति जानता है या किसी बालक द्वारा आग लगाई जाती है, तो घास जलकर राख हो जाएगी. उसी प्रकार किसी व्यक्ति को हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने की शक्ति का ज्ञान हो सकता है या नहीं भी, लेकिन यदि कोई पवित्र नाम का जप करता है तो वह सभी पापमय प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाएगा. पश्चिमी देशों में, जहाँ हरे कृष्ण आंदोलन फैल रहा है, विद्वान और अन्य विचारशील पुरुष इसकी प्रभावशीलता को महसूस कर रहे हैं, यह आंदोलन नशीली दवाओं के आदी हिप्पियों को शुद्ध वैष्णवों में परिवर्तित कर रहा है, जो स्वेच्छा से कृष्ण और मानवता के सेवक बन गए हैं. कुछ वर्षों पहले, ऐसे हिप्पियों को हरे कृष्ण मंत्र का पता नहीं था, लेकिन अब वे इसका जप कर रहे हैं और शुद्ध वैष्णव बन रहे हैं. इस प्रकार वे सभी पापमय गतिविधियों से मुक्त हो रहे हैं, जैसे कि अवैध मैथुन, नशा, मांस-भक्षण और जुआ. यह हरे कृष्ण आंदोलन की प्रभावशीलता का व्यावहारिक प्रमाण है. हो सकता है व्यक्ति हरे कृष्ण मंत्र के जाप का महत्व समझता या न समझता हो, लेकिन यदि किसी प्रकार इसका जाप करता है, तो वह तुरंत शुद्ध हो जाता है, वैसे ही जैसे कोई शक्तिशाली औषधि लेकर उसका प्रभाव अनुभव करेगा, चाहे वह उसे जाने-अनजाने कैसे भी ग्रहण करे.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 18, 19

भक्तों के मध्य विवाह.

उच्च वर्गों के पुरुष–ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य–निम्न वर्ग की स्त्रियों के गर्भ में संतान को जन्म नहीं देते. इसलिए वैदिक समाज में विवाह योग्य युवती और युवक की कुंडली का परीक्षण करने की परंपरा यह देखने के लिए होती है कि उनका संगम अनुकूल होगा या नहीं. वैदिक ज्योतिष उजागर करता है कि जातक भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अनुसार विप्र-वर्ण, क्षत्रिय वर्ण, वैश्य वर्ण या शूद्र वर्ण में जन्मा है. इसकी जाँच आवश्यक है क्योंकि किसी विप्र वर्ण के युवक और शूद्र वर्ण की कन्या का विवाह प्रतिकूल होता है; दांपत्य जीवन पति-पत्नी दोनों के लिए कष्टमय होगा. अतः किसी युवक को अपने समान वर्ण की कन्या से विवाह करना चाहिए. निस्संदेह यह त्रै-गुण्य है, वेदों के अनुसार एक भौतिक गणना, लेकिन यदि युवक व कन्या दोनों भक्त हों तो इस प्रकार विचार करने की आवश्यकता नहीं होती है. भक्त अतींद्रिय होता है, और इसलिए भक्तों के बीच विवाह में, युवक और युवती एक बहुत सुखी संगम का निर्माण करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 26

दीक्षा के समय नाम परिवतर्ति करना आवश्यक क्यों होता है?

अपने जीवन के प्रारंभ में अजामिल निश्चित ही शुद्ध था, और वह भक्तों और ब्राम्हणों की संगत करता था; उस पवित्र कर्म के कारण, उसके पतित होने पर भी, उसे अपने पुत्र का नाम नारायण रखने की प्रेरणा मिली. निश्चित ही ऐसा भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा दिए गए भीतरी मंगल विमर्श के कारण था. जैसा कि भगवान भगवद-गीता (15.15) में कहते हैं, सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविस्तो मत्तः स्मृतिर ज्ञानं अपोहनं च:”मैं सभी के हृदय में बैठा हूं, और मुझ से ही स्मरण, ज्ञान और विस्मृति आते हैं.” भगवान, जो सभी के हृदय में स्थित हैं, वे इतने दयालु हैं कि यदि किसी ने कभी उनकी सेवा की है, तो वे उन्हें कभी नहीं भूलते. अतः, भगवान ने, अजामिल को अपने सबसे छोटे पुत्र को नारायण नाम देने का अवसर दिया ताकि स्नेह में वह लगातार “नारायण! नारायण!” पुकारे, और इस प्रकार वह अपनी मृत्यु के समय सबसे भयावह और घातक स्थिति से बच सके. ऐसी है कृष्ण की दया. गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाया भक्ति-लता-बीज: गुरु और कृष्ण की दया से, वयक्ति भक्ति का बीज पा जाता है. यह संगति भक्त को महानतम भय से भी बचा लेती है. इसलिए हमारे कृष्ण चेतना आंदोलन में हम भक्त के नाम को ऐसे रूप में परिवर्तित कर देते हैं जिससे विष्णु की स्मृति हो. यदि मृत्यु के समय भक्त अपना नाम को याद रख सकता है, जैसे कि कृष्णदास या गोविंद दास, तो उसे सबसे बड़ी घात से भी बचाया जा सकता है. इसलिए दीक्षा के समय नामों का परिवर्तन आवश्यक है. कृष्ण चेतना आंदोलन इतना सूक्ष्म है कि यह व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार से कृष्ण को याद करने का एक अच्छा अवसर देता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 32

अजामिल का जाप निरापद क्यों था?

“अजामिल ने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा था, और चूँकि वह बालक को बहुत स्नेह करता था, वह उसका नाम बार-बार लेता था. हालाँकि वह अपने बेटे को पुकार रहा था, लेकिन नाम ही शक्तिशाली था क्योंकि नारायण नाम परम भगवान नारायण से अलग नहीं है. जब अजामिल ने अपने बेटे का नाम नारायण रखा, तो उसके पापपूर्ण जीवन की सभी प्रतिक्रियाएँ प्रभावहीन हो गईं, और जब उसने अपने पुत्र को पुकारना और इस तरह नारायण के पवित्र नाम का जाप सहस्त्रों बार करना जारी रखा, वास्तव में वह अनजाने में कृष्ण चेतना में प्रगति कर रहा था.

कोई यह तर्क दे सकता है, “चूँकि वह लगातार नारायण के नाम का जाप कर रहा था, इसलिए उसके लिए एक वेश्या से संबंध रखना और शराब के बारे में सोचना कैसे संभव था?” अपने पाप कर्मों के द्वारा वह बार-बार स्वयं को ही पीड़ित कर रहा था, और इसलिए कोई यह कह सकता है कि नारायण का परम जप ही उसके मुक्त होने का कारण था. यद्यपि, तब उसका जप नाम-अपराध होता. नमो बलात् यस्य हि पाप-बुद्धिः वह जो पापमय कृत्य करते रहता है और पवित्र नाम का जाप करके अपने पापों को प्रभावहीन बनाने का प्रयास करता है वह नाम-अपराधी, पवित्र नाम के प्रति अपराधी होता है. इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि अजामिल का जप निष्कपट था क्योंकि उसने अपने पापों का प्रतिकार करने के उद्देश्य से नारायण के नाम का जप नहीं किया था. वह नहीं जानता था कि वह पापमय कार्यों का आदी था, और न ही वह जानता था कि नारायण के नाम का जाप उन्हें प्रभावहीन कर रहा है. अतः उसने नाम-अपराध नहीं किया, और अपने पुत्र को पुकारते हुए नारायण के पवित्र नाम का बार-बार उच्चारण करने को शुद्ध जप कहा जा सकता है.

इस शुद्ध जप के कारण, अजामिल ने अनजाने में भक्ति के परिणामों को संचित किया. निस्संदेह, उसके द्वारा किया गया पवित्र नाम का पहला उच्चारण ही उसके जीवन की सभी पापमय प्रतिक्रियाओं को निष्प्रभावी करने के लिए पर्याप्त था. एक तार्किक उदाहरण देने के लिए, एक अंजीर का पेड़ तुरंत फल नहीं देता है, लेकिन समय के साथ उसमें फल उपलब्ध होते हैं. इसी प्रकार अजामिल की भक्ति सेवा में धीरे-धीरे वृद्धि हुई, और इसलिए भले ही उसने पापमय कृत्य किए थे, उसके परिणामों ने उसे प्रभावित नहीं किया. शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कोई भगवान के पवित्र नाम का एक बार भी जाप करता है, तो भूत, वर्तमान या भविष्य के पापमय जीवन की प्रतिक्रियाएँ उस पर प्रभाव नहीं डालती हैं. एक और उदाहरण देने के लिए, यदि कोई नाग के विषदंत को निकालता है, तो वह नाग के भविष्य के पीड़ितों को विष के प्रभाव से बचाता है, भले ही नाग बार-बार काटता हो. इसी प्रकार, यदि कोई भक्त पवित्र नाम का अहानिकारक रूप से एक बार भी जाप करता है, तो यह उसकी रक्षा सदैव करता है. उसे समय के साथ केवल जप का परिणाम देखने की प्रतीक्षा करनी है.”

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 49

वह भगवान के पवित्र नाम का जाप लगातार करते हैं उनका घर लौटना निश्चित होता है.

मृत्यु के समय व्यक्ति निश्चित रूप से व्यग्र होता है क्योंकि उसका शारीरिक संचालन अव्यवस्थित होता है. उस समय पर, वह भी जिसने पूरे जीवन भर भगवान के पवित्र नाम का जाप किया है, वह हरे कृष्ण मंत्र का जाप शायद थोड़ा भी न कर सके. फिर भी, ऐसे व्यक्ति को पवित्र नाम के जाप के सभी लाभ मिलते हैं, जबकि शरीर स्वस्थ हो, तो हमें भगवान के पवित्र नाम का जाप ऊँचे स्वर में और स्पष्ट रूप से क्यों नहीं करना चाहिए? यदि कोई ऐसा करता है, तो यह बहुत संभव है कि मृत्यु के समय भी वह प्रेम और विश्वास के साथ प्रभु के पवित्र नाम का सही जाप कर सकेगा. अंत में, जो भगवान के पवित्र नाम का लगातार जाप करता है, उसका बिना किसी संदेह के घर वापस लौटना निश्चित होता है.

अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 49

वर्तमान समय में कई संप्रदाय हैं जो प्रामाणिक नहीं हैं.

भगवद्-गीता में भगवान कृष्ण भागवत-धर्म का संदर्भ सबसे गोपनीय धार्मिक सिद्धांत (सर्व गुह्यतमम्, गुह्यद् गुह्यतरम्) के रूप में देते हैं. कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “चूँकि तुम मेरे बहुत प्रिय मित्र हो, मैं तुम्हारे लिए सबसे गोपनीय धर्म की व्याख्या कर रहा हूँ.” “ सर्व-धर्मम परित्याज्य मम एकम शरणम् व्रज : अन्य सभी कर्तव्यों को त्याग दो और मेरी शरण में आ जाओ.” कोई पूछ सकता है, “यदि इस सिद्धांत को बहुत बिरले ही समझा जा सकता है, तो इसका क्या उपयोग है?” उत्तर में, यमराज यहाँ बताते हैं कि इस धार्मिक सिद्धांत को समझा जा सकता है यदि व्यक्ति भगवान ब्रम्हा, भगवान शिव, चार कुमारों और अन्य मानक विद्वानों की परंपरा प्रणाली का पालन करता है. शिष्य उत्तराधिकार की चार शाखाएँ हैं: एक भगवान ब्रम्हा से, एक भगवान शिव से, एक लक्ष्मी, भाग्य की देवी से, और एक कुमारों से. भगवान ब्रम्हा का शिष्य उत्तराधिकार ब्रम्ह-संप्रदाय कहलाता है, भगवान शिव (शम्भू) का शिष्य उत्तराधिकार रुद्र-संप्रदाय कहलाता है, भाग्य की देवी लक्ष्मी की परंपरा श्री-संप्रदाय कहलाती है, और कुमारों की पंपरा को कुमार-संप्रदाय कहते हैं. सबसे गोपनीय धार्मिक प्रणाली को समझने के लिए व्यक्ति को इन चारों संप्रदाय में से किसी एक की शरण में जाना आवश्यक है. पद्म पुराण में यह कहा गया है, संप्रदाय-विहीन ये मंत्रस ते निष्फल मतः यदि व्यक्ति चार मान्य शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मंत्र या दीक्षा निष्फल है. आज के समय में कई अपसंप्रदाय, या संप्रदाय हैं, जो प्रामाणिक नहीं हैं, जिनका भगवान ब्रम्हा, भगवान शिव, कुमारों या लक्ष्मी से कोई जुड़ाव नहीं है. ऐसे संप्रदायों से लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं. शास्त्र कहते हैं कि ऐसे किसी संप्रदाय में दीक्षित होना समय नष्ट करना है, क्योंकि वह वास्तविक धार्मिक सिद्धांत समझने में व्यक्ति को कभी समर्थ नहीं बनाएगा.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छटा सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 21

वैदिक अनुष्ठानिक समारोहों से संकीर्तन अधिक महत्वपूर्ण है.

“चूँकि व्यक्ति भगवान के पवित्र नाम का जाप करके सरलता से उच्चतम सफलता अर्जित कर सकता है, तो कोई पूछ सकता है कि फिर इतने सारे वैदिक आनुष्ठानिक समारोह क्यों हैं और लोग उनकी ओर आकर्षित क्यों होते हैं. जैसा कि भगवद-गीता (15.15) में कहा गया है, वेदै च सर्वैर अहम् एव वेद्यः वेदों के अध्ययन का वास्तविक उद्देश्य भगवान कृष्ण के चरण कमलों तक पहुँचना है. दूर्भाग्य से, बुद्धिहीन लोग वैदिक यज्ञों से प्रभावित होकर भव्य बलि होते देखना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि वैदिक मंत्रों का जाप किया जाए और इस तरह के समारोहों के लिए भारी मात्रा में धन खर्च किया जाए. कभी-कभी हमें ऐसे बद्धिहीन पुरुषों को प्रसन्न करने के लिए वैदिक आनुष्ठानिक समारोह करने पड़ते है.

कलि के इस युग में विशेष रूप से संकीर्तन मात्र ही पर्याप्त है. यदि संसार के विभिन्न भागों में हमारे मंदिरों के सदस्य विग्रह के समक्ष, विशेषकर श्री चैतन्य महाप्रभु के समक्ष संकीर्तन करें, तो वे परिपूर्ण रहेंगे. किसी अन्य प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है. फिर भी, स्वयं को आदतों और मन में निर्मल रखने के लिए, विग्रह पूजा और अन्य नियामक सिद्धांतों की आवश्यकता होती है. श्रील जीव गोस्वामी का कहना है कि यद्यपि संकीर्तन जीवन की पूर्णता, के लिए पर्याप्त है, मंदिर में विग्रह की पूजा या अर्चना इसलिए जारी रहनी चाहिए ताकि भक्त स्वच्छ और शुद्ध बने रहें. इसलिए श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने सुझाव दिया है कि व्यक्ति को दोनों प्रक्रियाओं का पालन करे. हम समानांतर स्तर पर विग्रह पूजा और संकीर्तन करने के उनके सिद्धांत का कड़ाई से पालन करते हैं.”

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 3- पाठ 25

जो मांस भक्षण करना चाहते हैं वे निम्नतर प्राणियों को खाकर अपनी जिव्हा को तृप्त कर सकते हैं.

प्रकृति की व्यवस्था द्वारा, फलों और फूलों को कीटों और पक्षियों का भोजन माना जाता है; घास और अन्य पादहीन जीवों को चौपाए जीवों जैसे गाय और भैंसों का भोजन माना गया है; पशु जो अपने आगे के पैरों का उपयोग हाथ के रूप में नहीं कर सकते उन्हें बाघ, जिनके पंजे होते हैं, उनका भोजन माना गया है; और चौपाये जीव साथ ही अन्न के दानों को मानव का भोजन माना गया है. ये चौपाए पशु हिरण और बकरी जैसे जीव होते हैं, गाय नहीं, जिनका संरक्षण करना होता है. सामान्यतः समाज के उच्च वर्गों के लोग — ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य– मांस नहीं खाते. कभी-कभी क्षत्रिय हिरण जैसे पशुओं का वध करने वन में जाते हैं क्योंकि उन्हें वध करने की कला सीखनी होती है, और कभी-कभी वे पशुओं का भक्षण भी करते हैं. शूद्र भी बकरी जैसे पशुओं को खाते हैं. यद्यपि, गायें कभी भी मारने और मानव द्वारा भक्षण किए जाने के लिए नहीं होतीं. सभी शास्त्रों में, गौ-हत्या की घोर निंदा की गई है. निस्संदेह, गौ-हत्या करने वाले व्यक्ति को उतने ही वर्षों का कष्ट भोगना पड़ता है जितने गाय के शरीर पर बाल होते हैं. मनु-संहिता कहती है, प्रवृत्तिर ऐषा भूतानाम् निवृत्तिस् तु महा-फल : इस भौतिक संसार में हमारी कई प्रवृत्तियाँ होती हैं, किंतु मानव जीवन में व्यक्ति को सीखना होता है कि उन प्रवृत्तियों पर कैसे वश पाया जाए. जो मांस खाना चाहते हैं वे अपनी जिव्हा को निम्नतर पशुओं को खाकर संतुष्ट कर सकते हैं, किंतु उन्हें गौ-हत्य कभी भी नहीं करना चाहिए, जिन्हें मानव सभ्यता की माता के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि वे दूध की आपूर्ति करती हैं. शास्त्र विशेष रूप से सुझाव देते हैं, कृषि-गौ-रक्ष्य : मानवता के वैश्य प्रभाग को कृषि गतिविधियों के माध्यम से समस्त समाज के लिए भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए और गायों का पूर्ण संरक्षण करना चाहिए, जो कि परम उपयोगी पशु हैं क्योंकि वे मानव समाज को दूध की आपूर्ति करती हैं.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 4- पाठ 9

यदि व्यक्ति परम भगवान तक वापस लौटना चाहता है, तो उसे स्वयं ही यौन जीवन से परहेज करना चाहिए.

“भगवद्-गीता (7.11) में भगवान कहते हैं, धर्मविरुद्धो भूतेषु कामो’स्मि: “मैं वह काम हूँ जो धार्मिक सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं है.” भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा स्वीकृत यौन कर्म धर्म, धार्मिक सिद्धांत होता है, लेकिन इसका उद्देश्य इंद्रिय भोग नहीं है. संभोग के माध्यम से इंद्रिय भोग वैदिक सिद्धांतों में अनुमत नहीं है. व्यक्ति यौन जीवन की प्रवत्ति का अनुसरण केवल संतान प्राप्ति के लिए कर सकता है. इसलिए इस श्लोक में भगवान ने दक्ष से कहा है, “यह कन्या यौन जीवन के लिए तुम्हें केवल संतान प्राप्ति के लिए प्रस्तुत की गई है, किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं. वह अत्यंत उर्वर है, और इसलिए तुम जितनी चाहो उतनी संतान उत्पन्न करने में समर्थ होगे.”

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संबंध में टिप्पणी करते हैं कि दक्ष को असीमित संभोग करने की सुविधा दी गई थी. दक्ष के पूर्वजन्म में वे दक्ष नाम से भी जाने जाते थे, लेकिन तप करते हुए उन्होंने भगवान शिव को अपमानित कर दिया था, और इसलिए उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा दिया गया था. अपनी पतित स्थिति के कारण दक्ष ने जीवन त्याग दिया, लेकिन चूँकि उनकी असीमित संभोग की इच्छा बनी रही, उन्होंने भीषण तप किया और उसके द्वारा परम भगवान को संतुष्ट किया, जिन्होंने उन्हें असीमित संभोग क्षमता का वर दिया.

ध्यान देना चाहिए कि भले ही संभोग के लिए ऐसी सुविधा भगवान के परम व्यक्तित्व की कृपा से अर्जित कर ली जाती है, यह सुविधा उन्नत स्तर के भक्तों को नहीं दी जाती, जो भौतिक इच्छाओं से मुक्त (अन्यभिलाषित शून्यम्) होते हैं. इस संबंध में यह देखा जा सकता है कि यदि कृष्ण चेतना आंदोलन में लगे अमेरिकी लड़के और लड़कियाँ भगवान की प्रेममयी सेवा के परम लाभ को प्राप्त करने के लिए कृष्ण चेतना में उन्नत होना चाहते हैं, तो उन्हें यौन जीवन की इस सुविधा से परहेज करना पड़ेगा. इसलिए हमारा सुझाव है कि व्यक्ति को कम से कम अवैध यौन संबंध से परहेज करना चाहिए. भले ही यौन जीवन के अवसर हों, व्यक्ति को केवल गर्भधान के उद्देश्य से ही मैथुन करने की सीमितता को स्वयं ही स्वीकार करना चाहिए. कर्दम मुनि को भी यौन जीवन की सुविधा दी गई थी, लेकिन उनकी उसमें बहुत कम रुचि थी. इसलिए देवाहुति के गर्भ में संतान पाकर, कर्दम मुनि पूर्णरूप से त्यागी बन गए. उद्देश्य यही है कि यदि कोई घर वापस, परम भगवान के पास लौटना चाहता है, तो उसे स्वेच्छा से यौन जीवन से बचना चाहिए. संभोग को केवल आवश्यकतानुसार स्वीकार किया जाना चाहिए, असीमित रूप से नहीं. व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि असीमित यौन संबंध के लिए सुविधाओं को प्राप्त करके दक्ष को भगवान का पक्ष प्राप्त हुआ. बाद के श्लोकों से पता चलेगा कि दक्ष ने फिर से एक अपराध किया, इस बार नारद के चरण कमलों में. इसलिए यद्यपि यौन जीवन भौतिक संसार में उच्चतम आनंद होता है और यद्यपि किसी को भगवान की कृपा से यौन आनंद का अवसर मिल सकता है, लेकिन इससे अपराध करने का जोखिम बना रहता है. दक्ष ऐसे अपराधों के लिए उन्मुख थे, और इसलिए, कड़े शब्दों में कहें तो, वे वास्तव में परम भगवान उन पर कृपालु नहीं थे. यौन जीवन में असीमित शक्ति हेतु भगवान की कृपा की इच्छा नहीं होनी चाहिए.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 52

सभी शास्त्र निवृत्ति मार्ग, या भौतिकवादी जीवन शैली को छोड़ने का सुझाव देते हैं.

भगवद्-गीता (16.7) कहता है, प्रवृत्तिम् च निवृत्तिम् च जना न विदुर असुरः दैत्य, जो मानव से कुछ कम होते हैं लेकिन पशु नहीं कहलाते, वे प्रवृत्ति और निवृत्त् को, क्या करना है और क्या नहीं ऐसा नहीं जानते. भौतिक संसार में, प्रत्येक जीव की कामना जितना हो सके भौतिक संसार पर आधिपत्य जमाने की होती है. यद्यपि सभी शास्त्र, निवृत्ति मार्ग, या जीवन की भौतिकवादी प्रवृत्ति से छुटकारे का सुझाव देते हैं. संसार के सबसे पुराने वैदिक सभ्यता के शास्त्रों के अतिरिक्त, अन्य शास्त्र इस बात पर सहमत हैं. उदाहरण के लिए, बौद्ध शास्त्रों में भगवान बुद्ध यह सुझाव देते हैं कि व्यक्ति को भौतिक वादी जीवन प्रवृत्ति छोड़ने पर निर्वाण मिलता है. बाइबल में, वह भी शास्त्र है, हमें समान सुझाव मिलता है: भौतिकवादी जीवन का त्याग कर देना चाहिए और परमेश्वर के राज्य में लौट जाना चाहिए. हम चाहे जिस शास्त्र का परीक्षण करें, विशेषकर वैदिक शास्त्र की, समान सुझाव ही दिया गया है: व्यक्ति को अपने भौतिक वादी जीवन का त्याग करना चाहिए और अपने मूल, आध्यात्मिक जीवन में लौट जाना चाहिए. शंकाराचार्य भी समान निष्कर्ष प्रतिपादित करते हैं. ब्रम्ह सत्यम जगन् मिथ्या: यह भौतिक संसार या भौतिकवादी जीवन केवल भ्रम है, और इसलिए व्यक्ति को उसके भ्रममय कर्मों को रोकना चाहिए और ब्राम्हण के स्तर पर आ जाना चाहिए.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 5- पाठ 20

पिता का कर्तव्य अपने पुत्रों को सांस्कृतिक शिक्षा देना होता है.

प्रजापित दक्ष ने अपने पुत्रों के दूसरे समूह को उसी स्थान पर भेजा, जहाँ उनके पूर्व पुत्रों ने दक्षता प्राप्त की थी. उन्होंने अपने पुत्रों के दूसरे समूह को समान स्थान पर भेजने में संकोच नहीं किया, यद्यपि वे भी नारद के निर्देशों के शिकार बन सकते थे. वैदिक संस्कृति के अनुसार, वयक्ति को संतान प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ जीवन में जाने से पहले एक ब्रम्हचारी के रूप में आध्यात्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए. यह वैदिक व्यवस्था है. अतः प्रजापति दक्ष ने अपने पुत्रों के दूसरे समूह को सांस्कृतिक विकास के लिए भेजा, इस जोखिम के बावजूद कि नारद की शिक्षा द्वारा वे भी अपने बड़े भाइयों के जैसे बुद्धिमान बन जाएंगे. एक कर्तव्यपरायण पिता के रूप में, वह अपने बेटों को जीवन की पूर्णता के विषय में सांस्कृतिक निर्देश प्राप्त करने की अनुमति देने में संकोच नहीं करते थे; वे यह चुनने के लिए उन पर निर्भर थे कि वे घर वापस, भगवान के पास आएँ या जीवन की विभिन्न प्रजातियों के रूप में इस भौतिक संसार में विगलित हों. सभी परिस्थितियों में, पिता का कर्तव्य अपने पुत्रों को सांस्कृतिक शिक्षा देना होता है, जिन्हें बाद में निर्णय लेना होता है के वे किस मार्ग पर जाएँ. कर्तव्यनिष्ठ पिताओं को अपने पुत्रों को विचलित नहीं करना चाहिए जो कृष्ण चेतना आंदोलन की संगति में सांस्कृतिक प्रगति कर रहे हैं. पिता का कर्तव्य होता है कि अपने आध्यात्मिक गुरु के निर्देशों का पालन करके आध्यात्मिक प्रगति कर लेने के बाद अपने पुत्र को अपना चुनाव करने की स्वतंत्रता दें.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 5- पाठ 25

ओंकार से प्रारंभ होने वाले वैदिक मंत्रों का जप करना सीधे कृष्ण के नाम का जप करना होता है.

प्रत्येक वैदिक मंत्र को ब्रम्हा कहा जाता है क्योंकि प्रत्येक मंत्र से पहले ब्रम्हाक्षर (ऊँ या ऊँकार) आता है. उदाहरण के लिए ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय. भगवान कृष्ण भगवद-गीता (7. 8) में कहते हैं, प्रणव सर्व-वेदेषु: “सभी वैदिक मंत्रों में, मेरा प्रतिनिधित्व प्रणव, या ऊँकार द्वारा किया जाता है.” इस प्रकार ऊँकार से शुरू होने वाले वैदिक मंत्रों का जाप सीधे कृष्ण के नाम का जाप है. इसमें कोई अंतर नहीं है. चाहे कोई ऊँकार का जाप करे या भगवान को “कृष्ण” संबोधित करे, परंतु श्री चैतन्य महाप्रभु ने सुझाया है कि इस युग में हरे कृष्ण मंत्र (हरेर्नाम एव कैवलम) का जाप करें. यद्यपि हरे कृष्ण और ऊँकार से प्रारंभ होने वाले वैदिक मंत्रों में कोई अंतर नहीं है, तब भी इस युग के लिए आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता श्री चैतन्य महाप्रभु सुझाव देते हैं कि वयक्ति को हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जाप करना चाहिए.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 5- पाठ 26

भौतिक संसार में व्यक्ति प्रत्येक पग पर कष्ट भोगता है, वह भोग करने के अपने प्रयास बंद नहीं करेगा.

ऐसा कहा जाता है कि जब तक एक स्त्री गर्भवती नहीं होती, वह शिशु को जन्म देने के कष्ट को नहीं समझ सकती. बंध्या की बूझिबे प्रसव-वेदना. बंध्या शब्द का अर्थ होता है बांझ स्त्री. ऐसी स्त्री एक शिशु को जन्म नहीं दे सकती.फिर वह प्रसव का कष्ट कैसे समझ सकती है? प्रजापति दक्ष के दर्शन के अनुसार, किसी स्त्री को पहले गर्भवती होना चाहिए और फिर शिशु जन्म की पीड़ा का अनुभव करना चाहिए. उसके बाद, यदि वह बुद्धिमान है, तो वह दोबारा गर्भवती होना नहीं चाहेगी. यद्यपि, ऐसा सच नहीं है. मैथुन का आनंद इतना शक्तिशाली होता है कि स्त्री गर्भवती होती है और शिशुजन्म के समय कष्ट भोगती है किंतु वह अपने अनुभव के पश्चात भी फिर से गर्भ धारण करती है. दक्ष के दर्शन के अनुसार व्यक्ति को भौतिक भोग में लिप्त होना चाहिए ताकि ऐसे भोग के कष्ट का अनुभव करने के बाद, वह स्वतः ही त्यागी हो जाएगा. भौतिक प्रकृति, यद्यपि, इतनी शक्तिशाली होती है कि प्रत्येक चरण पर कष्ट भोगने पर भी व्यक्ति, भोग के अपने प्रयास नहीं छोड़ता (तृप्यंति नेह कृपण-बहु-दुख-भजः). परिस्थितियों के अधीन, जब तक व्यक्ति को नारद मुनि या शिष्य परंपरा में उनके सेवक जैसे किसी भक्त की संगति न मिले, त्याग की उसकी सुप्त भावना को जाग्रत नहीं किया जा सकता है. ऐसा सच नहीं है क्योंकि भौतिक भोग में बहुत सी कष्टमय परिस्थितियाँ होती हैं कि व्यक्ति स्वतः ही निर्लिप्त बन जाता है. फिर व्यक्ति भौतिक संसार के लिए अपनी आसक्ति को तज देता है. कृष्ण चेतना आंदोलन के युवक और युवतियों ने भौतिक भोग की भावना को अभ्यास से नहीं त्यागा है बल्कि भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु और उनके सेवकों की दया से त्यागा है.

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 5- पाठ 41

वैदिक नियमों के बिना एक समाज मानवता के लिए बहुत सहायक नहीं होगा.

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संबंध में कहते हैं कि जब एक राष्ट्रपति या राजा अपने सिंहासन पर बैठा हो, तो उसे अपनी सभा में आने वाले हर व्यक्ति को सम्मान विदित करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन उसे अपने से उच्चतर लोगों जैसे उसके आध्यात्मिक गुरु, ब्राम्हणों और वैष्णवों का आदर करना होता है. उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए इसके कई उदाहरण हैं. जब भगवान कृष्ण अपने सिंहासन पर विराजमान थे और सौभाग्य से नारद उनकी सभा में आए, तब स्वयं भगवान कृष्ण भी नारद के प्रति सम्मान ज्ञापित करने के लिए अपने अधिकारियों और मंत्रियों सहित तुरंत उठ खड़े हुए. नारद जानते थे कि कृष्ण भगवान के परम व्यक्तित्व हैं, और कृष्ण जानते थे कि नारद उनके भक्त थे, लेकिन यद्यपि कृष्ण परम भगवान हैं और नारद भगवान के भक्त हैं, तब भी भगवान ने धार्मिक शिष्टाचार का पालन किया. चूँकि नारद एक ब्रह्मचारी, एक ब्राह्मण और एक अनन्य भक्त थे, इसलिए कृष्ण ने राजा की भूमिका में होते हुए भी, नारद के प्रति अपना सम्मानजनक व्यवहार प्रस्तुत किया. वैदिक सभ्यता में ऐसा आचरण दिखाई देता है. एक सभ्यता जिसमें लोगों को यह नहीं पता है कि नारद और कृष्ण के प्रतिनिधि का सम्मान कैसे किया जाना चाहिए, समाज का गठन कैसे किया जाना चाहिए और किस तरह से कृष्ण चेतना में आगे बढ़ना चाहिए-हर साल केवल नई कारों और नई गगनचुंबी इमारतों के निर्माण और फिर उन्हें तोड़ने और नए बनाने के लिए चिंतित एक समाज – तकनीकी रूप से उन्नत हो सकता है, लेकिन यह एक मानव सभ्यता नहीं है. किसी मानव सभ्यता की उन्नति तब होती है जब उसके लोग चतुर्वर्ण प्रणाली, जीवन की चार व्यवस्थाओं की प्रणाली का पालन करते हैं. प्रथम श्रेणी के व्यक्ति सलाहकारों के रूप में कार्य करने के लिए, द्वितीय श्रेणी के व्यक्ति प्रशासकों के रूप में, तृतीय श्रेणी के व्यक्ति भोजन का उत्पादन करने और गौवंश की रक्षा करने हेतु और समाज की तीन उच्च श्रेणियों का आज्ञापालन करने वाले चौथी श्रेणी के व्यक्ति होने चाहिए. जो समाज की मानक प्रणाली का पालन नहीं करता है, उसे पाँचवी श्रेणी का व्यक्ति माना जाना चाहिए. वैदिक नियमों के बिना एक समाज मानवता के लिए बहुत उपयोगी नहीं होगा. जैसा कि इस श्लोक में कहा गया है, धर्मम् ते न परम विदुः ऐसे समाज को जीवन का उद्देश्य और धर्म का सर्वोच्च सिद्धांत नहीं पता होता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 7- पाठ 13

पत्थर की नाव में न बैठें.

“जैसा कि वैदिक साहित्य (भग. 11.20.17):
नृ देहम अद्यम सुलभम सुदुर्लभम प्लावम सुकल्पम गुरु-कर्ण-धरम्

हम, बद्ध आत्माएँ, निस्सारता के सागर में गिरी हुई हैं, किंतु मानव शरीर हमें इस सागर को पार करने का अच्छा अवसर प्रदान करता है क्योंकि मानव शरीर एक बहुत अच्छी नौका जैसा होता है. जब कप्तान के रूप में किसी आध्यात्मिक गुरु द्वारा निर्देशित होती है, तो नौका बहुत सरलता से सागर को पार कर सकती है. साथ ही, नौका को अनुकूल पवन की सहायता मिलती है, जो कि वैदिक ज्ञान के निर्देश होते हैं. यदि व्यक्ति निस्सारता के इस सागर को पार करने की इन सुविधाओं का लाभ नहीं लेता, तो वह निश्चित ही आत्महत्या कर रहा है.

जो पत्थर से बनी नाव पर सवार होता है, वह अभिशप्त होता है. श्रेष्ठता के स्तर तक उठने के लिए, मानवता को पहले झूठे नेताओं का त्याग करना होगा जो पत्थर की नौका प्रस्तुत करते हैं. समस्त मानव समाज ऐक ऐसी खतरनाक स्थिति में है कि बचने के लिए उसे वेद के मानक निर्देशों का पालन करना ही होगा. इन निर्देशों का सार भगवद्-गीता के रूप में प्रकट होता है. वयक्ति को किसी अन्य निर्देश की शरण नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि भगवद्-गीता यह निर्देश प्रत्यक्ष देती है कि मानव जीवन के लक्ष्य की पूर्ति कैसे करना है. इसलिए भगवान कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मन् परित्याज्य मम एकम् शरणम् व्रज : “धर्म की अन्य सभी प्रक्रियाएँ त्याग दो और केवल मेरी शरण में आ जाओ.” भले ही व्यक्ति भगवान कृष्ण को भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप में नहीं स्वीकारता, तो भी उनके निर्देश मानवता के लिए इतने असाधारण और लाभदायक हैं कि यदि कोई उनके निर्देशों का पालन करता है तो वह तर जाएगा. अन्यथा व्यक्ति अप्रामाणिक ध्यान और योग की करतबों वाली विधि द्वारा छला जाएगा. अतः व्यक्ति पत्थर की ऐसी नौका में बैठ जाएगा जो डूब जाएगी और उसके सभी यात्री डूब जाएंगे.”

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 7- पाठ 14

अभक्त लोग परम भगवान या उनके भक्तों में उपस्थित विरोधाभास को नहीं समझ सकते.

“आत्म-निर्भर होते हुए भगवान का परम व्यक्तित्व पारलौकिक आनंद (आत्माराम) से भरा होता है. वह दो प्रकार से आनंद भोग करते है–जब वह सुखी दिखाई देते है और जब वह दुखी दिखाई देते है. उनके भीतर विभेद और विरोधाभासों का होना असंभव है क्योंकि केवल उनसे ही वे उत्पन्न होते हैं. भगवान का परम व्यक्तित्व सभी ज्ञान, सभी शक्ति, सभी शक्ति, संपन्नता और प्रभाव का भंडार होता है. उनकी शक्तियों की कोई सीमा नहीं है. चूँकि वह सभी पारलौकिक विशेषताओं से परिपूर्ण है, भौतिक दुनिया की कोई भी घृणित वस्तु उनमें उपस्थित नहीं हो सकती. वह पारलौकिक और आध्यात्मिक है, और इसलिए भौतिक सुख और संकट की अवधारणाएँ उन पर लागू नहीं होती हैं. भगवान के परम व्यक्तित्व में विरोधाभास पाकर हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए. वास्तव में कोई विरोधाभास नहीं हैं. उनके परम होने का अर्थ यही है. चूँकि वह सर्व-शक्तिमान है, इसलिए उनके अस्तित्व या अनस्तित्व के संबंध में वह बद्ध आत्मा के तर्कों के अधीन नहीं है. वह अपने भक्तों के शत्रुओं को मारकर उनकी रक्षा करने में प्रसन्न है. वह वध और सुरक्षा दोनों करने का आनंद लेते है. द्वैत से ऐसी मुक्ति केवल भगवान के लिए ही नहीं बल्कि उनके भक्तों के लिए भी लागू होती है. वृंदावन में वृजभूमि की सुंदरियाँ परम भगवान के व्यक्तित्व, कृष्ण की संगति में पारलौकिक आनंद भोगती हैं, और वे समान पारलौकिक आनंद का अनुभव विछोह में भी करती हैं जब कृष्ण और बलराम वृंदावन से मथुरा चले जाते हैं. यहाँ भगवान के परम व्यक्तित्व या उनके शुद्ध भक्तों के लिए भौतिक दुख या आनंद का कोई प्रश्न नहीं है, यद्यपि सतही रूप से उन्हें कभी-कभी दुखी या सुखी बताया जाता है. जो आत्माराम होता है वह दोनों प्रकार से आनंदमय होता है.

अभक्त लोग परम भगवान या उनके भक्तों में उपस्थित विरोधाभास को नहीं समझ सकते. इसलिए भगवद-गीता में भगवान कहते हैं, भक्त्य मम अभिज्ञानाति : पारलौकिक लीलाओं को भक्ति सेवा के माध्यम से समझा जा सकता है; अभक्तों के लिए वे कल्पनातीत होती हैं. अचिंत्य खलु ये भाव न तंस तर्केण योजयेत : परम भगवान और उनका स्वरूप, नाम, लीलाएँ और साज-सज्जा अभक्तों की कल्पना से बाहर होती हैं, और व्यक्ति को ऐसी वास्तविकताओं को केवल तार्किक अवधारणाओं से समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए. वे व्यक्ति को परम सत्य के बारे में सच्चे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा सकेंगी.”

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 9- पाठ 36

सकाम और अकाम भक्तों के बीच अंतर.

“दो प्रकार के भक्त होते हैं जो सकाम और अकाम के रूप में जाने जाते हैं. शुद्ध भक्त अकाम होते हैं, जबकि उच्चतर ग्रह प्रणालियों में स्थित भक्त, जैसे देवता, आदि सकाम कहलाते हैं क्योंकि वे अब भी भौतिक ऐश्वर्य का भोग करना चाहते हैं. उनके पवित्र कर्मों के कारण, सकाम भक्तों को उच्चतर ग्रह प्रणालियों पर पदोन्नत किया जाता है, लेकिन अपने हृदय में वे अब भी भौतिक स्रोतों का स्वामित्व चाहते हैं. सकाम भक्तों को कभी-कभी दैत्यों और राक्षसों के द्वारा व्यवधान डाला जाता है, किंतु भगवान इतने दयालु हैं कि वे सदैव किसी अवतार का रूप लेकर उनकी रक्षा करते हैं. भगवान के अवतार इतने शक्तिशाली होते हैं कि भगवान वामनदेव ने पूरे ब्रह्मांड को दो चरणों में ढँक दिया और इस प्रकार उनके तीसरे चरण के लिए कोई स्थान नहीं बचा था. भगवान को त्रिविक्रम कहा जाता है क्योंकि उन्होंने केवल तीन चरणों में पूरे ब्रह्मांड को पार करके अपनी शक्ति प्रदर्शित की थी.

सकाम और अकाम भक्तों के बीच का अंतर यही है कि सकाम भक्त, जैसे देवगण, जब कठिनाई में पड़ जाते हैं, तो वे मुक्ति के लिए भगवान के परम व्यक्तित्व से संपर्क करते हैं, जबकि अकाम भक्त, सबसे बड़े खतरे में भी, भौतिक लाभों के लिए भगवान को व्यवधान नहीं पहुँचाते हैं. यहाँ तक कि यदि कोई अकाम भक्त पीड़ित भी हो, तो वह यही विचार करता है कि ऐसा उसके अतीत के कर्मों के कारण है और वह परिणाम भोगने के लिए सहमत होता है. वह कभी भी भगवान को व्यवधान नहीं पहुँचाता. सकाम भक्त कठिनाई में पड़ने पर तुरंत भगवान से प्रार्थना करने लगते हैं, किंतु उन्हें पवित्र माना जाता है क्योंकि वे स्वयं को भगवान की दया पर पूरी तरह से निर्भर मानते हैं. जैसा कि श्रीमद-भागवतम (10.14.8) में कहा गया है:

तत् ते ‘अनुकम्पा सुसमीक्समानो भुंजन एवात्मा-कृतं विपाकम्
ह्रद-वाग-वपुरभिर विधान नमस् ते जिवेता यो मुक्ति-पदे स दया-भक

कठिनाइयों से पीड़ित होते हुए भी, भक्त केवल अपनी प्रार्थना और सेवा और अधिक उत्साह से करते हैं. इस तरह वे भक्ति सेवा में दृढ़ हो जाते हैं और बिना किसी संदेह के घर वापस, परम भगवान के पास लौटने के योग्य बन जाते हैं. निस्संदेह सकाम भक्त भी अपनी प्रार्थनाओं द्वारा भगवान से मनोवांछित फल अर्जित करते हैं, किंतु वे तुरंत परम भगवान तक वापस लौटने के योग्य नहीं बनते. ध्यान दिया जाना चाहिए कि भगवान विष्णु, अपने विभिन्न अवतारों में, हमेशा अपने भक्तों के रक्षक हैं. श्रील माधवाचार्य कहते हैं: विविधम भव-पत्रवत सर्वे विष्णोर विभूतय: कृष्ण ही भगवान के परम व्यक्तित्व (कृष्णस तु भगवान स्वयंम्) हैं. अन्य सभी अवतार भगवान विष्णु से ही प्रारंभ होते हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 9- पाठ 40

भगवद्-गीता में देवताओं के वरदानों की निंदा की गई है.

“यहाँ देवताओं द्वारा दिए गए वरदानों और भगवान के परम व्यक्तित्व, विष्णु द्वारा प्रदान किए गए वरदानों में अतंर दिया गया है. देवताओं के भक्त केवल इंद्रिय तुष्टि के लिए वरदान माँगते हैं, और इसलिए उन्हें भगवद-गीता (7.20) में बुद्धि से रिक्त वर्णित किया गया है.

कामैस तैस तैर हृत-ज्ञानाः प्रपद्यंते ‘न्या-देवताः
तम तम नियमम आस्थाय प्रकृत्य नियतः स्वय

“जिन लोगों का मन भौतिक इच्छाओं से विकृत होता है वे देवताओं के प्रति समर्पण करते हैं और उनके निजी स्वभाव के अनुसार उपासना के विशेष नियमों का पालन करते हैं.” बद्ध आत्माएँ सामान्यतः इंद्रिय तुष्टि की गहरी कामनाओं के कारण बुद्धि से च्युत होती हैं. वे नहीं जानते कि क्या वरदान माँगना है. इसलिए शास्त्रों में अभक्तों को भौतिक लाभों की प्राप्ति के लिए विभिन्न देवताओँ की उपासना का सुझाव दिया जाता है. उदाहरण के लिए, यदि कोई सुंदर पत्नी चाहता है, तो उसे उमा, या देवी दुर्गा की पूजा करने का सुझाव दिया जाता है. यदि कोई रोग से ठीक होना चाहता है तो उसे सूर्य देवता की पूजा करने का सुझाव दिया जाता है.

यद्यपि, देवताओँ के आशीर्वाद के सभी अनुरोध भौतिक लिप्सा के कारण ही हैं. जगत उत्पत्ति की समाप्ति पर वरदान समाप्त हो जाएंगे, साथ ही वे भी जो उन्हें प्रदान करते हैं. यदि कोई भगवान विष्णु के पास दर्शन के लिए जाता है, तो भगवान उसे ऐसा आशीर्वाद देंगे जो उसे वापस परम भगवान के पास, घर लौटने में सहायता करेगा. इसकी पुष्टि स्वयं भगवान ने भगवद-गीता (10.10) में भी की है:

तेषाम सतत युक्तानाम भजंतम प्रीति-पूर्वकम
ददामि बुद्धि-योगम् तम येन मम उपायंति ते

भगवान विष्णु, या भगवान कृष्ण, उस भक्त को जो लगातार उनकी सेवा में संलग्न रहता है निर्देश देते हैं कि वह अपने भौतिक शरीर के अंत में कैसे उन तक पहुँचे. भगवान भगवद गीता (4.9) में कहते हैं:

जन्म कर्म च मे दिव्यम् एवं यो वेत्ति तत्वतः
त्यक्त्व देहं पुनर्जन्म नैति मम ऐति सो’र्जुना

“हे अर्जुन, जो मेरे स्वरूप और क्रियाकलापों के पारलौकिक स्वरूप को जानता है, वह शरीर छोड़ने पर, इस भौतिक संसार में फिर से जन्म नहीं लेता है, अपितु मेरे शाश्वत निवास को प्राप्त करता है.” यह भगवान विष्णु, कृष्ण का वरदान है. अपने शरीर को छोड़कर, एख भक्त वापस घर, परम भगवान के पास लौटता है. कोई भक्त मूर्खतावश भौतिक वरदान माँग सकता है, परंतु भगवान कृष्ण भक्त की प्रार्थनाओं के बावजूद उसे इस तरह के वरदान नहीं देते हैं. इसलिए भौतिक जीवन से अत्यंत लगाव रखने वाले लोग सामान्यतः कृष्ण या विष्णु के भक्त नहीं बनते. इसके स्थान पर वे देवताओं के भक्त बन जाते हैं. (कामैस तैस तैर हृत-ज्ञानाः प्रपद्यंते ‘न्या-देवताः). यद्यपि भगवद्-गीता में देवताओँ के वरदानों की निंदा की गई है. अंतवत तु फलम तेषाम तद् भवत्यल्प-मेधषम: “छोटी बुद्धि के लोग अवगुणों की पूजा करते हैं, और उनके फल सीमित और अस्थायी होते हैं।” एक अ-वैष्णव जो भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा में संलग्न नहीं है, उसे अल्प मष्तिष्क वाला मूर्ख समझा जाता है.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 9- पाठ 50

व्यक्ति को अन्य लोगों को सुखी देख कर प्रसन्न होना चाहिए.

“व्यक्ति सामान्यतः विभिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धांतों का पालन करता है या भौतिक प्रकृति की विधियों द्वारा उसे दिए गए शरीर के अनुसार विभिन्न व्यावसायिक कर्तव्यों का पालन करता है. यद्यपि, इस श्लोक में, वास्तविक धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या की गई है. व्यक्ति को अन्य को दुखी देख कर अप्रसन्न और अन्यों को सुखी देखकर प्रसन्न होना चाहिए. आत्मवत सर्व-भूतेषु : व्यक्ति को अन्य लोगों के सुख और दुख का अनुभव स्वयं के अनुभव के रूप में करना चाहिए. यह इसी आधार पर है कि बौद्ध धर्म का अहिंसा का सिद्धांत–अहिंसा परम धर्मः–स्थापित हुआ. हमें पीड़ा होती है यदि हमें कोई विचलित करता है, और इसलिए हमें अन्य जीवों को कष्ट नहीं देना चाहिए. भगवान बुद्ध का अभियान अनावश्यक रूप से पशुओं का वध रोकना था, और इसीलिए उन्होंने शिक्षा दी कि अहिंसा ही सबसे बड़ा धार्मिक सिद्धांत है.

व्यक्ति पशुओं का वध करना जारी रखते हुए एक धार्मिक व्यक्ति नहीं हो सकता. वह सबसे बड़ा ढोंग है. यीशु मसीह ने कहा था, “हत्या मत करो”, किंतु ढोंगी लोग स्वयं को ईसाई दिखाते हुए भी हज़ारों वधशालाएँ बनाए हुए हैं. इस श्लोक में ऐसे ढोंग की ही निंदा की गई है. व्यक्ति को अन्य लोगों को सुखी देख कर प्रसन्न होना चाहिए, और उसे अन्य लोगों को दुखी देख कर दुखी होना चाहिए. इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए. दुर्भाग्य से वर्तमान समय में तथाकथित परोपकारी और मानवतावादी निरीह पशुओं के जीवन के मूल्य पर मानवता की प्रसन्नता की वकालत करते हैं. यहाँ ऐसा न करने का सुझाव दिया गया है. यह श्लोक स्पष्ट रूप से कहता है कि व्यक्ति को सभी जीवों के प्रति करुणामयी होना चाहिए. चाहे वे मानव, पशु, वृक्ष या पोधे हों, सभी जीव भगवान के परम व्यक्तित्व की संतानें हैं. भगवान कृष्ण भगवद गीता (14.4) में कहते हैं:

सर्व-योनिषु कौंतेय मूर्तयः सम्भवन्ति यः
तस्म ब्रह्म महद् योनिर् अहम् बीज-प्रदः पिता

“”हे कुंती पुत्र, यह समझा जाना चाहिए कि जीवन की सभी प्रजातियां, इस भौतिक प्रकृति में जन्म से संभव होती हैं, और यह कि मैं ही बीज देने वाला पिता हूँ.”” इन जीवों के विभिन्न रूप केवल उनके बाहरी वस्त्र हैं. प्रत्येक जीवित प्राणी वास्तव में एक आत्मा है, भगवान का एक अंश है. इसलिए व्यक्ति को केवल एक प्रकार के जीवों का पक्ष नहीं लेना चाहिए. एक वैष्णव सभी जीवों को भगवान के अंश के रूप में देखता है. जैसा कि भगवान भगवद्-गीता (5.18 व 18.54) में कहते हैं:

विद्या-विनय-संपन्ने ब्रम्हणे गवि हस्तिनी
सुनि चैव स्वपाके च पंडितः सम-दर्शिनः

“विनम्र साधु, सच्चे ज्ञान के गुण द्वारा, एक सभ्य ब्राम्हण, एक गाय, एक हाथी, एक कुत्ते और एक कुत्ता खाने वाले (चांडाल) को समान दृष्टि से देखता है.”

ब्रम्ह-भूताः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति
समः सर्वेषु भूतेषु मद्-भक्तिम् लभते परम

“वह जो पारलौकिक रूप से स्थिर हो जाता है, परम ब्राम्हण को तुरंत जान जाता है और पूर्ण आनंदमय बन जाता है.” वह न तो कभी विलाप करता है और न ही कुछ पाने की इच्छा रखता है; वह हर जीव के लिए समान रूप से उपलब्ध होता है. उस अवस्था में वह मेरे प्रति शुद्ध भक्ति सेवा अर्जित कर लेता है.” इसलिए एक वैष्णव, वास्तव में एक संपूर्ण व्यक्ति होता है क्योंकि वह अन्य को दुखी देख कर विलाप करता है और अन्य लोगों को सुखी देख कर आनंद का अनुभव करता है. एक वैष्णव परा-दुख-दुखी होता है; वह बद्ध आत्मा को भौतिकवाद की दुख भरी अवस्था में देख कर सदैव दुखी होता है. इसलिए एक वैष्णव हमेशा पूरे विश्व में कृष्ण चेतना का प्रचार करने में व्यस्त रहता है.

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 10- पाठ 9

चाहे संपन्न हों या दुख में, हम स्वतंत्र नहीं होते.

यह कहते हुए, झूठ ही अभिमान करना कि वयक्ति स्वयं के प्रयासों से ही संपन्न, शिक्षित, सुंदर या अन्य कुछ होता है. ऐसे सभी सौभाग्य भगवान की दया से प्राप्त होते हैं. दूसरे दृष्टिकोण से, कोई भी मरना नहीं चाहता है, और कोई भी विपन्न या कुरूप नहीं होना चाहता है. अतः, अपनी इच्छा के विरुद्ध भी जीव ऐसी अवांछित समस्याएँ क्यों पाता है? ऐसा भगवान के परम व्यक्तित्व की दया या दंड के कारण ही है कि व्यक्ति को भौतिक रूप से कुछ प्राप्त होता है या सब कुछ खो जाता है. कोई भी स्वतंत्र नहीं होता; सभी परम भगवान की दया या उनके दंड पर आश्रित हैं. बंगाल में एक आम कहावत है कि भगवान के दस हाथ होते हैं. इसका अर्थ यह है कि उनका नियंत्रण सभी ओर होता है – आठों दिशाओं में और ऊपर और नीचे. यदि वे अपने दस हाथों से हमारा सब कुछ छीन लेते हैं तो हम अपने दो हाथों से कुछ भी नहीं बचा सकते. उसी प्रकार, यदि वे अपने दस हाथों से हमें आशीर्वाद देना चाहते हैं, तो वास्तव में हम अपने दो हाथों में सब कुछ नहीं प्राप्त कर सकते; दूसरे शब्दों में, आशीर्वाद हमारी अपेक्षा से बहुत अधिक होते हैं. निष्कर्ष यह है कि भले ही हम अपनी संपत्ति से पृथक होने की इच्छा न रखते हों, लेकिन कभी-कभी भगवान उन्हें हमसे बलपूर्वक छीन लेते हैं; और कभी-कभी वे हम पर वरदानों की एसी बौछार कर देते हैं कि हम उन सब को एकत्र करने में असमर्थ होते हैं. इसलिए संपन्न हों या दुख में, हम स्वतंत्र नहीं होते; सब कुछ भगवान के परम व्यक्तित्व की प्रिय इच्छा पर निर्भर होता है.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 12- पाठ 13

तथाकथित संबंध भ्रम होते हैं.

नारद और अंगिरा मुनि द्वारा दिए गए निर्देश भ्रम की स्थिति वाली बद्ध आत्मा के लिए सच्चे आध्यात्मिक निर्देश हैं. यह संसार अस्थायी है, लेकिन हमारे पिछले कर्मों के कारण हम यहाँ आते हैं और शरीरों को स्वीकार करते हैं, समाज, मित्रता, प्रेम, राष्ट्रीयता और समुदाय के प्रसंग में अस्थायी संबंध बनाते हैं, जो सभी मृत्यु होने पर समाप्त हो जाते हैं. ये अस्थायी संबंध अतीत में मौजूद नहीं थे, न ही भविष्य में मौजूद होंगे. इसलिए वर्तमान समय में तथाकथित संबध भ्रम हैं.

अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 15- पाठ 2

भक्ति सेवा में, स्पष्ट भौतिक ऐश्वर्य भौतिक नहीं होते, वे सभी आध्यात्मिक होते हैं.

एक भक्त की परम उपलब्धि आध्यात्मिक आकाश के किसी भी ग्रह में भगवान के चरण कमलों में शरण प्राप्त करना होती है. भक्ति सेवा के कठोर क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप, यदि आवश्यक हो तो भक्त को सभी भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं; अन्यथा, भक्त को भौतिक ऐश्वर्यों में कोई रुचि नहीं होती, और न ही परम भगवान उन्हें वे प्रदान करते हैं. जब कोई भक्त वास्तव में भगवान की भक्ति सेवा में रत होता है, तो उसके स्पष्ट भौतिक ऐश्वर्य भी भौतिक नहीं होते; वे सभी आध्यात्मिक होते हैं. उदाहरण के लिए, यदि कोई भक्त सुंदर और महंगे मंदिर का निर्माण करने के लिए धन खर्च करता है, तो निर्माण भौतिक नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक (निर्बंधः कृष्ण-संबंधे युक्तम् वैराग्यम्ः होता है. भक्त का मन मंदिर के भौतिक पक्ष की ओर कभी नहीं जाता है. मंदिर निर्माण में लगाई गईं ईंटें, पत्थर और लकड़ी आध्यात्मिक होते हैं, जैसे कि मूर्ति जो पत्थर से ही बनी होती है, पत्थर नहीं होती, बल्कि स्वयं भगवान का परम व्यक्तित्व होती है. व्यक्ति आध्यात्मिक चेतना में जितना अधिक आगे बढ़ता है, उतना ही वह भक्ति सेवा के तत्वों को समझ सकता है. भक्ति सेवा में कुछ भी भौतिक नहीं है; सब कुछ आध्यात्मिक है. फलस्वरूप भक्त को आध्यात्मिक उन्नति के लिए तथाकथित भौतिक ऐश्वर्य प्रदान किया जाता है. यह ऐश्वर्य भक्त को आध्यात्मिक राज्य की ओर प्रगति करने में सहायक होता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 16- पाठ 29

भगवत-धर्म में यह प्रश्न नहीं होता कि “आप क्या विश्वास करते हैं” और “मैं क्या विश्वास करता हूँ”.

“भगवत-धर्म में कोई विरोधाभास नहीं है. “आपका धर्म” और “मेरा धर्म” की अवधारणाएँ भगवत-धर्म में पूरी तरह अनुपस्थित हैं. भगवत-धर्म का अर्थ है, परमपिता परमेश्वर द्वारा दिए गए आदेशों का पालन करना, जैसा कि भगवद गीता में कहा गया है: सर्व-धर्मन परित्यज्य मम एकम शरणम व्रज. भगवान एक हैं, और भगवान सभी के लिए हैं. इसलिए सबको भगवान की शरण में जाना चाहिए. धर्म की मूल अवधारणा यही है. भगवान का जो भी आदेश होता है वह धर्म बन जाता है (धर्मम तु साक्षात् भगवतप्रणितम्).

भगवत-धर्म में “आप क्या विश्वास करते हैं” और “मैं क्या विश्वास करता हूँ” यह प्रश्न नहीं होता. सभी को भगवान में विश्वास करना और उनके आदेशों का पालन करना चाहिए. अनुकुल्येन कृष्णनुसिलनम: कृष्ण जो भी कहते हैं–भगवान जो भी कहते हैं–प्रत्यक्षतः किया जाना चाहिए. वही धर्म है. यदि कोई वास्तव में कृष्ण के प्रति चैतन्य है, तो उसका कोई शत्रु नहीं हो सकता है. चूँकि उनकी एकमात्र संलिप्तता अन्यों को कृष्ण, या भगवान के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए प्रेरित करना है, तो उनके शत्रु कैसे हो सकते हैं? यदि कोई हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, इस धर्म या उस धर्म की वकालत करता है, तो टकराव होंगे. इतिहास से पता चलता है कि भगवान की स्पष्ट अवधारणा के बिना धार्मिक व्यवस्था के अनुयायी एक दूसरे के साथ लड़े हैं. मानव इतिहास में इसके कई उदाहरण हैं, लेकिन वे धर्म की प्रणालियाँ जो सर्वोच्च सेवा पर ध्यान केंद्रित नहीं करती हैं वे अस्थायी हैं और लंबे समय तक नहीं चल सकती क्योंकि वे ईर्ष्या से भरी हैं. ऐसी धार्मिक प्रणालियों के विरुद्ध कई गतिविधियाँ निर्देशित की जाती हैं, और इसलिए “मेरे विश्वास” और “आपके विश्वास” के विचार को छोड़ देना चाहिए. सभी को भगवान पर विश्वास करना चाहिए और उनके प्रति समर्पण करना चाहिए. यही भगवत-धर्म है.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 16- पाठ 41

वह जो बहुत शक्तिशाली हो उसे दोषरहित मानना चाहिए.

“एक दिन यात्रा के दौरान, चित्रकेतु सुमेरु पर्वत की लतामंडपों में भटक गया, जहाँ उसे सिद्धों, चारण और महान संतों की सभा में घिरे, पार्वती का आलिंगन करते भगवान शिव दिख गए, चित्रकेतु बहुत जोर से हँसा. चित्रकेतु भगवान शिव की असाधारण स्थिति का प्रसंशक था, और इसलिए उसने टिप्पणी की, कि यह कितना अद्भुत था कि भगवान शिव एक साधारण इंसान के जैसे व्यवहार कर रहे थे. वह भगवान के पद को मानता था, किंतु जब उसने भगवान शिव को संत व्यक्तियों के बीच बैठे देखा और किसी निर्लज्ज, सामान्य व्यक्ति के जैसा व्यवहार करते देखा, तो उसे अचंभा हुआ. यद्यपि चित्रकेतु का उद्देश्य भगवान शिव का अपमान करना नहीं था, उसे भगवान की आलोचना नहीं करनी चाहिए थी, भले ही भगवान सामाजिक रीतियों का अतिक्रमण कर रहे थे. कहा जाता है : तेज्यसम न दोषयः : वह जो बहुत शक्तिशाली हो उसे दोषरहित समझना चाहिए. उदाहरण के लिए, व्यक्ति को सूर्य में दोष नहीं ढूँढना चाहिए, भले ही वह गली से मूत्र को वाष्पित कर रहा हो. सबसे शक्तिशाली की आलोचना एक साधारण व्यक्ति या किसी महान व्यक्ति द्वारा भी नहीं की जा सकती है. चित्रकेतु को पता होना चाहिए कि भगवान शिव, यद्यपि उस प्रकार बैठे थे, उनकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए थी. कठिनाई यह थी कि भगवान विष्णु (संकर्षण) का महान भक्त बनकर चित्रकेतु भगवान संकर्षण का पक्ष अर्जित करने को लेकर कुछ घमंडी हो गया था और इसलिए उसने सोचा कि अब वह किसी की भी निंदा कर सकता था यहाँ तक की भगवान शिव की भी. किसी भक्त का ऐसा गर्व सहन नहीं किया जाता है. एक वैष्णव को अत्यंत विनम्र और सरल होना चाहिए और अन्य लोगों का आदर करना चाहिए.

तृणाद् अपि सुनिचेन तरोर् अपि सहिष्णु अमानिन मानदेन कीर्तनियः सदा हरिः

“स्वयं को गली की घास के तिनके से भी तुच्छ मानते हुए, व्यक्ति को मन की विनम्र अवस्था में भगवान के पवित्र नाम का जप करना चाहिए; व्यक्ति को एक वृक्ष से भी अधिक सहनशील होना चाहिए, झूठी प्रतिष्ठा के भाव से रहित होना चाहिए और दूसरों को सम्मान देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए. ऐसी मनः स्थिति में व्यक्ति निरंतर भगवान के पवित्र नाम का जाप कर सकता है. “”एक वैष्णव को किसी अन्य के पद को छोटा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए. विनम्र और मृदु बने रहना और हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना श्रेष्ठ होता है. निर्जित्माभिमानिने शब्द दर्शाता है कि चित्रकेतु स्वयं को भगवान शिव की तुलना में इंद्रियों का बेहतर नियंत्रक मानता था, यद्यपि वास्तव में वह ऐसा नहीं था. इन सब बातों पर विचार करते हुए, माँ पार्वती चित्रकेतु पर कुछ क्रोधित थीं.”

स्रोत:अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 17- पाठ 7 व 10

एक भक्त स्वाभाविक रूप से इतना विनम्र और मृदुल होता है कि वह जीवन की किसी भी स्थिति को भगवान के आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करता है.

चूँकि चित्रकेतु भगवान का भक्त था, इसलिए माता पार्वती के श्राप से वह ज़रा भी विचलित नहीं हुआ. (यात्रा के दौरान एक दिन, चित्रकेतु सुमेरु पर्वत के लतामंडपों में भटक गया, जहाँ उसने सिद्धों, चारणों और महान संतों की सभा में घिरे भगवान शिव को पार्वती का आलिंगन करते देख लिया. भगवान शिव को उस स्थिति में देखकर, चित्रकेतु बहुत ज़ोर से हँसने लगा, लेकिन पार्वती उस पर बहुत क्रोधित हो गयीं और उसे श्राप दे दिया. इस श्राप के कारण, चित्रकेतु बाद में राक्षस व्रतासुर के रूप में प्रकट हुआ). उसे भली प्रकार से पता था कि व्यक्ति को उसके पिछले कर्मों के फल भुगतने पड़ते हैं जैसा कि दैव-नेत्र– उच्चतर अधिकारी, या भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रतिनिधियों द्वारा तय किया जाता है. वह जानता था कि उसने भगवान शिव या देवी पार्वती के चरण कमलों में कोई अपराध नहीं किया था, फिर भी उसे दंडित किया गया था, और इसका अर्थ है कि दंड को नियत किया गया था. अतः राजा ने बुरा न माना. एक भक्त स्वाभाविक रूप से इतना विनम्र और मृदुल होता है कि वह जीवन की किसी भी स्थिति को भगवान के आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करता है. तत् ते ’नुकंपम् सुसमीक्षमनाः (भाग। 10.14.8). एक भक्त किसी के द्वारा भी दंड को भगवान के आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करता है. यदि कोई जीवन की ऐसी धारणा रखता है, तो वह होने वाली विपरीत घटनाओं का कारण भी अपने पिछले कुकर्मों को मानता है, और इसलिए वह किसी अन्य को दोष नहीं देता. इसके विपरीत, वह अपने दुख से शुद्ध होने के कारण भगवान के परम व्यक्तित्व से और अधिक जुड़ जाता है. इसलिए दुख शुद्धिकरण की एक प्रक्रिया भी है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 17- पाठ 17

परम भगवान सभी के प्रति तटस्थ होते हैं.

यद्यपि भगवान का परम व्यक्तित्व ही सभी वस्तुओं का परम कर्ता है, अपने मूल पारलौकिक अस्तित्व में वह बद्ध आत्माओं के सुख और दुख,या बंधन और मुक्ति के लिए उत्तरदायी नहीं है. ये इस भौतिक संसार में रहने वाले जीवों की परिणामी गतिविधियों के परिणामों के कारण हैं. न्यायाधीश के आदेश से, किसी व्यक्ति को जेल से रिहा कर दिया जाता है, और दूसरे को जेल में डाल दिया जाता है, लेकिन न्यायाधीश अलग-अलग लोगों के संकट और प्रसन्नता के लिए उत्तरदायी नहीं होता है. यद्यपि सरकार ही उच्चतम प्राधिकारी होती है, न्याय को सरकार के विभागों द्वारा व्यवस्थापित किया जाता है, और सरकार किसी व्यक्ति के लिए उत्तरदायी नहीं होती है. इसलिए सरकार सभी नागरिकों के लिए समान है. उसी प्रकार, परम भगवान भी सभी के लिए तटस्थ है, लेकिन कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए उनकी परम सरकार में विभिन्न विभाग हैं, जो जीवों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखते हैं. इस संबंध में एक अन्य उदाहरण दिया जाता है कि कुमुदिनी पुष्प प्रकाश के कारण खुलता या बंद होता है, और इस प्रकार भौंरे आनंद लेते या कष्ट भोगते हैं, परंतु धूप और सूर्य भौंरों के आनंद या कष्ट के लिए उत्तदायी नहीं होते हैं.

अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 23

पुरुष और स्त्री की समझ में अंतर होता है.

“एक दिन यात्रा के दौरान, चित्रकेतु सुमेरु पर्वत की लतामंडपों में भटक गया, जहाँ उसे सिद्धों, चारण और महान संतों की सभा में घिरे, पार्वती का आलिंगन करते भगवान शिव दिख गए. भगवान को उस स्थिति में देखकर चित्रकेतु बहुत जोर से हँसा, किंतु पार्वती उस पर बहुत क्रोधित हुईं और उसे श्राप दे दिया. भगवान शिव ने पार्वती से कहा, “मैं और चित्रकेतु दोनों ही परम भगवान को बहुत प्रिय हैं. दूसरे शब्दों में, वह और मैं दोनों ही भगवान के सेवक के समान पद पर हैं. हम सदैव मित्र हैं, और कभी-कभी हम अपने बीच उपहास का आनंद लेते हैं. जब चित्रकेतु मेरे व्यवहार पर जोर से हँसा, तो उसने ऐसा मित्रवत भाव से किया था, और इसलिए उसे श्राप देने का कोई कारण न था.” अतः भगवान शिव ने अपनी पत्नी, पार्वती को मनाने का प्रयास किया, कि चित्रकेतु को श्राप देना अर्थपूर्ण नहीं था. यहाँ पुरुष और स्त्री में अंतर है जो जीवन के उच्चतर प्रतिमाओं में भी विद्यमान होता है–वास्तव में, भगवान शिव और उनकी पत्नी के बीच भी. भगवान शिव चित्रकेतु को बहुत भली भाँति समझ सकते थे, लेकिन पार्वती नहीं.

अतः जीवन की उच्चतर अवस्थाओं में भी पुरुष और स्त्री की समझ में अंतर होता है. स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि स्त्री की समझ पुरुष की अपेक्षा सदैव कम होती है. पश्चिमी देशों में यह हलचल है कि पुरुष और स्त्रियों को समानता से देखा जाना चाहिए, किंतु इस श्लोक से ऐसा लगता है कि स्त्री सदैव पुरुष से कम बुद्धिमान होती है. यह स्पष्ट है कि चित्रकेतु अपने मित्र भगवान शिव की आलोचना करना चाहते थे क्योंकि भगवान शिव अपनी पत्नी को अपनी गोद में लेकर बैठे हुए थे. तब भी भगवान शिव चित्रकेतु द्वारा स्वयं को महान भक्त दिखाने किंतु विद्याधारी स्त्रियों के साथ आनंद करने की रुचि रखने के कारण उसकी आलोचना करना चाहते थे. ये सभी मित्रवत प्रहसन थे; ऐसा कुछ गंभीर नहीं था जिसके लिए चित्रकेतु को पार्वती द्वारा श्राप दिया जाता. भगवान शिव के निर्देशों को सुनकर निश्चित ही पार्वती चित्रकेतु को राक्षस बन जाने का श्राप देने के लिए बहुत लज्जित हुई होंगी. माँ पार्वती चित्रकेतु के पद का महत्व नहीं पहचान पाईं, और इसलिए उन्होंने उसे श्राप दिया, किंतु जब उन्होंने भगवान शिव के निर्देशों को समझा तो वे लज्जित हुईं.”

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 17- परिचय और पाठ 35

कलि-युग में पति और पत्नी के बीच का संबंध यौन शक्ति पर आधारित होगा.

“एक स्त्री का सहज स्वभाव भौतिक संसार का भोग करने का होता है. वह अपने पति की जीभ, पेट और जननांगों को संतुष्ट करके उसे इस संसार का आनंद लेने के लिए प्रेरित करती है, जिसे जिह्वा, उदर और उपस्थ कहते हैं. स्त्री स्वादिष्ट व्यंजनों को पकाने में दक्ष होती है ताकि वह अपने पति को भोजन में सरलता से संतुष्ट कर सके. जब कोई भली प्रकार से खाता है, तो उसका पेट संतुष्ट होता है, और जैसे ही पेट संतुष्ट होता है, जननांग शक्तिशाली हो उठते हैं. विशेषकर तब जब कोई पुरुष माँस खाने, मदिरा पीने और इसी प्रकार की तामसी वस्तुओं का अभ्यस्त हो, तो वह निश्चित ही कामुक हो उठता है. यह समझना चाहिए कि यौन आकर्षण आध्यात्मिक प्रगति के लिए नहीं होता, बल्कि नर्क में उतरने के लिए होता है. इस प्रकार कश्यप मुनि ने अपनी स्थिति का विचार किया और शोकाकुल हो गए. दूसरे शब्दों में, जब तक कोई प्रशिक्षित न हो और पत्नी अपने पति की अनुगामी न हो तो एक गृहस्थ होना बहुत जोखिम भरा होता है. एक पति को अपने जीवन के प्रारंभ में ही प्रशिक्षित होना चाहिये. कौमार्य आचारेत् प्रज्ञ्नो धर्मन् भागवतनिः (भगवद्-गीता 7.6.1). ब्रह्मचार्य, या छात्र जीवन के दौरान, एक ब्रह्मचारी को भगवत्-धर्म, भक्ति सेवा में निपुण होना सिखाया जाना चाहिए. फिर जब वह विवाह करता है, तो यदि उसकी पत्नी अपने पति के प्रति समर्पित है और ऐसे जीवन में उसका अनुसरण करती है, तो पति-पत्नी के बीच संबंध बहुत ही वांछनीय है.

हालाँकि, आध्यात्मिक चेतना के बिना पति और पत्नी के बीच का संबंध केवल इंद्रिय भोग के लिए होना बिलकुल अच्छा नहीं होता. श्रीमद-भागवतम (12.2.3) में कहा गया है कि विशेष रूप से इस युग, कलियुग में, दाम्पत्ये ‘भिरुचिर हेतुः पति-पत्नी के बीच का संबंध यौन शक्ति पर आधारित होगा. इसलिए इस कलियुग में गृहस्थ जीवन बेहद जोखिम भरा है, जब तक कि पत्नी और पति दोनों ही कृष्ण चेतना को नहीं अपना लेते.”

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 40

स्त्रियाँ स्वभाव से ही स्वार्थी होती हैं.

“स्त्रियाँ स्वभाव से ही स्वार्थी होती हैं, और इसलिए उनकी हर संभव सुरक्षा की जानी चाहिए ताकि स्वार्थी होने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रकट न हो सके. पुरुषों द्वारा स्त्रियों का संरक्षण आवश्यक होता है. स्त्री की देखभाल बचपन में उसके पिता द्वारा, युवावस्था में उसेक पति द्वारा और उसके बुढ़ापे में उसके वरिष्ठ पुत्रों द्वारा की जानी चाहिए. यह मनु की निषेधाज्ञा है, जो कहते हैं कि किसी भी अवस्था में स्त्री को स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए. स्त्रियों का ध्यान इस बात के लिए रखा जाना चाहिए कि वे स्वार्थ के लिए अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति को उजागर करने के लिए स्वतंत्र नहीं हों. अपने निजी हितों को पूरा करने के लिए, स्त्रियाँ पुरुषों के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे उन्हें पुरुष ही सबसे अधिक प्रिय हों, किंतु वास्तव में उनका प्रिय कोई नहीं होता. स्त्रियों को बहुत संत माना जाता है, लेकिन अपने निजी हितों के लिए वे अपने पति, बेटों या भाइयों को भी मार सकती हैं, या अन्य के हाथों उन्हें मरवा सकती हैं. वर्तमान समय में भी कई प्रसंग हैं, जिनमें स्त्रियों ने अपने पतियों की बीमा पॉलिसी का लाभ लेने के लिए उनकी हत्या की है. यह स्त्रियों की आलोचना नहीं बल्कि उनके स्वभाव का व्यावहारिक अध्ययन है. स्त्री या पुरुष की ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति जीवन की शारीरिक अवधारणा में ही प्रकट होती है. जब कोई पुरुष या कोई स्त्री आध्यात्मिक चेतना में प्रगति करते हैं, तो जीवन की शारीरिक अवधारणा व्यावहारिक रूप से लुप्त हो जाती है. हमें सभी स्त्रियों को आध्यात्मिक इकाई (अहम् ब्रह्मास्मि) के रूप में देखना चाहिए, जिनका एकमात्र कर्तव्य कृष्ण को संतुष्ट करना है. फिर भौतिक प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं का प्रभाव, कार्य नहीं करेगा, जो व्यक्ति द्वारा भौतिक शरीर को धारण करने के परिणामस्वरूप होता है.

कृष्ण चेतना आंदोलन इतना लाभकारी है कि यह बहुत सरलता से भौतकि प्रकृति के प्रदूषण का प्रतिरोध कर सकता है, जो व्यक्ति द्वार भौतिक शरीर को धारण करने के परिणामस्वरूप होता है. इसलिए भगवद-गीता बहुत प्रारंभ में ही शिक्षा देती है, कि चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि वह शरीर नहीं है बल्कि एक आध्यात्मिक आत्मा है. सभी को आत्मा की गतिविधियों में रुचि होनी चाहिए, शरीर की नहीं. जब तक कोई जीवन की शारीरिक अवधारणा द्वारा सक्रिय रहता है, तब तक पथभ्रष्ट होने का खतरा सदैव रहता है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री. कभी-कभी आत्मा का वर्णन पुरुष के रूप में किया जाता है क्योंकि चाहे किसी ने पुरुष या स्त्री के परिधान पहने हों, उसका रुझान इस भौतिक संसार का भोग करने की ओर होता है. जिसमें भी भोग की भावना होती है उसे पुरुष के रूप में वर्णित किया जाता है. व्यक्ति चाहे पुरुष हो या स्त्री, उसकी रुचि अन्यों की सेवा करने में नहीं होती; हर किसी की रुचि अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने में होती है. यद्यपि कृष्ण चेतना किसी पुरुष या स्त्री के लिए प्रथम श्रेणी का प्रशिक्षण प्रदान करती है. पुरुष को भगवान कृष्ण का प्रथम श्रेणी का भक्त होने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए, और एक स्त्री को अपने पति की अत्यंत पवित्र अनुयायी होने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए. जिससे दोनों के जीवन में प्रसन्नता आ जाएगी. ”

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 18 – परिचय और पाठ 42

परम भगवान की आत्म निर्भरता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वे अपने भक्तो पर निर्भर रहते हैं.

भगवान का परम व्यक्तित्व सभी छः ऐश्वर्यों से संपन्न है, और इसके अतिरिक्त वे अपने भक्त के लिए बहुत दयालु हैं. यद्यपि वे अपने आप में संपूर्ण है, तब भी वे चाहते हैं कि सभी जीव उनके प्रति समर्पण कर दें ताकि वे भगवान की सेवा मे संलग्न हो सकें. इस प्रकार वे संतुष्ट होते हैं. यद्यपि वे अपने आप में संपूर्ण हैं, फिर भी उन्हें प्रसन्नता मिलती है जब उनके भक्त भक्ति में उन्हें पत्रम, पुष्पम, फलम, तोयम – एक पत्ती, फूल, फल या जल अर्पित करते हैं. कभी-कभी भगवान, माता यशोदा के बालक के रूप में, अपने भक्त से कुछ खाने के लिए अनुरोध करते हैं, जैसे कि वे बहुत भूखे हों. कभी वे अपने भक्त को स्वप्न में बताते हैं कि उनका मंदिर और उनकी वाटिका अब पुराने हो गए हैं और यह कि वे अब उनका आनंद नहीं ले सकते. अतः वे भक्त से उन्हें ठीक करने के लिए कहते हैं. कभी-कभी वे धरती में दबे होते हैं, और जैसे वे स्वयं बाहर निकलने में समर्थ न हों, वे अपने भक्त को उन्हें बचाने के लिए कहते हैं. इसलिए भगवान का अपने भक्तों के साथ संबंध अत्यंत गोपनीय होता है. केवल भक्त ही यह अनुभव कर सकता है कि कैसे भगवान, यद्यपि स्वयं में पूर्ण हैं, कुछ विशेष कार्य के लिए उनके भक्त पर निर्भर करते हैं. यह भगवद-गीता (11.33) में समझाया गया है, जहाँ भगवान अर्जुन से कहते हैं, निमित्त-मात्रम् भव सव्यसाचिन: “हे अर्जुन, युद्ध में केवल एक साधन बनो.” भगवान कृष्ण के पास कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने की क्षमता थी, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने भक्त अर्जुन को युद्ध करने और जीत का कारण बनने के लिए प्रेरित किया. श्री चैतन्य महाप्रभु पूरे संसार में भगवान का नाम और अभियान प्रसारित करने के लिए सक्षम थे, किंतु फिर भी इस कार्य को संपन्न करने के लिए उन्होंने अपने भक्त का भरोसा किया. इन सभी बिंदुओं पर विचार करते हुए, परम भगवान की आत्मनिर्भरता का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वह अपने भक्तों पर निर्भर करते हैं. यह उनकी अहेतुक दया कहलाती है. वह भक्त जो परम भगवान की इस अहेतुक दया का बोधज्ञान रखता है, वह स्वामी और सेवक को समझ सकता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 5

Deity Darshan

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Mokshada Ekadasi
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Advent of Srimad Bhagavad-Gita
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Srila Bhaktisiddhanta Sarasvati Thakur Disappearance
दिसम्बर 8, 2025    
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Date: 8th December 2025 Day: Monday Chaturthi Tithi Begins - 06:24 PM on Dec 07, 2025 Chaturthi Tithi Ends - 04:03 PM on Dec 08, [...]
Srila Devananda Pandit Disappearance
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16 दिसम्बर
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Saphala Ekadasi
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Srila Uddharana Datta Thakur Disappearance
दिसम्बर 17, 2025    
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Date: 17th December 2025 Day: Wednesday Trayodashi Tithi Begins - 11:57 PM on Dec 16, 2025 Trayodashi Tithi Ends - 02:32 AM on Dec 18, [...]
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Srila Jagadisa Pandit Disappearance
दिसम्बर 23, 2025    
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Date: 23rd December 2025 Day: Tuesday Tritiya Tithi Begins - 10:51 AM on Dec 22, 2025 Tritiya Tithi Ends - 12:12 PM on Dec 23, [...]
Putrada Ekadasi
दिसम्बर 31, 2025    
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Date: 31st December 2025 Day: Wednesday Ekadashi Tithi Begins - 07:50 AM on Dec 30, 2025 Ekadashi Tithi Ends - 05:00 AM on Dec 31, [...]
Srila Jagadisa Pandit Appearance
दिसम्बर 31, 2025    
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Date: 31st December 2025 Day: Wednesday Dwadashi Tithi Begins - 05:00 AM on Dec 31, 2025 Dwadashi Tithi Ends - 01:47 AM on Jan 01, [...]
03 जनवरी
जनवरी 3, 2026    
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Events on दिसम्बर 1, 2025
Mokshada Ekadasi
1 दिसम्बर 25
Advent of Srimad Bhagavad-Gita
1 दिसम्बर 25
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05 दिसम्बर
5 दिसम्बर 25
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Srila Devananda Pandit Disappearance
15 दिसम्बर 25
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16 दिसम्बर
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Saphala Ekadasi
16 दिसम्बर 25
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17 दिसम्बर
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Srila Uddharana Datta Thakur Disappearance
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Srila Locana Das Thakur Appearance
21 दिसम्बर 25
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Srila Jiva Goswami Disappearance
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Srila Jagadisa Pandit Disappearance
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Putrada Ekadasi
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