समान प्रवृत्ति के जीवनसाथी से विवाह करना क्यों आवश्यक है?

भौतिक लाभ के लिए भगवान के पास जाने वाले व्यक्तियों की निंदा के बावजूद, कर्दम मुनि ने यह कहकर भगवान के समक्ष अपनी भौतिक असमर्थता और इच्छा व्यक्त की थी, “यद्यपि मुझे पता है कि आपसे कुछ भी भौतिक वर नहीं माँगना चाहिए, फिर भी मैं समान प्रवृत्ति वाली कन्या से विवाह करना चाहता हूँ.” यह वाक्यांश “समान प्रवृत्ति” बहुत महत्वपूर्ण है. पूर्व में, समान प्रकृति के पुरुषों और कन्याओं का विवाह हुआ करता था; उन्हें प्रसन्न करने के लिए पुरुष और कन्या की समान प्रवृत्तियों को एकजुट किया जाता था. पच्चीस वर्षों से अधिक पहले नहीं, और शायद अब भी चालू है, कि माता-पिता वर और कन्या की कुंडलियाँ यह देखने के लिए जाँचते थे कि उनकी मनोवैज्ञानिक स्थितियों में तथ्यात्मक ऐक्य होगा या नहीं. इन बातों पर विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है. आजकल शादी इस तरह के परामर्श के बिना होती है, और इसलिए, शादी के तुरंत बाद, तलाक और अलगाव होता है. पूर्व में पति-पत्नी जीवन भर शांतिपूर्वक साथ रह लेते थे, लेकिन आजकल ये एक कठिन चुनौती है.

कर्दम मुनि समान प्रवृत्ति वाली पत्नी इसलिए चाहते थे क्योंकि आध्यात्मिक और भौतिक विकास में सहयोग के लिए पत्नी का होना आवश्यक है. ऐसा कहा जाता है कि पत्नी धर्म, आर्थिक विकास और इंद्रिय-संतुष्टि की सभी इच्छाओं की पूर्ति करती है. यदि किसी की अच्छी पत्नी है तो उसे सबसे भाग्यशाली व्यक्ति मानना चाहिए. ज्योतिष में, उस व्यक्ति को भाग्यशाली माना जाता है जिसके पास बहुत सी संपत्ति, अच्छे पुत्र या एक बहुत अच्छी पत्नी हो. इन तीनों में, जिसकी बहुत अच्छी पत्नी हो उसे सबसे भाग्यशाली माना जाता है. विवाह से पहले, व्यक्ति को समान प्रवृत्ति की पत्नी चुनना चाहिए न कि तथाकथित सौंदर्य या इंद्रिय तुष्टि के लिए अन्य आकर्षक गुणों से प्रभावित होना चाहिए. भागवतम् के, बारहवें सर्ग में, कहा गया है कि कलियुग में विवाह यौन जीवन को ध्यान में रखते हुए होंगे; जैसे ही यौन जीवन में कोई कमी होगी, तलाक का प्रश्न खड़ा होगा.

कर्दम मुनि उमा से अपना कल्याण मांग सकते थे, क्योंकि पुराणों में बताया गया है कि यदि किसी को अच्छी पत्नी चाहिए, तो उसे उमा की पूजा करना चाहिए. लेकिन उन्होंने भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की पूजा करना पसंद किया क्योंकि भागवत में सुझाया गया है कि हर व्यक्ति को, चाहे वह इच्छाओं से भरा हो, उसकी कोई इच्छा न हो या उसकी कामना मुक्ति की हो, उसे सर्वोच्च भगवान की पूजा करनी चाहिए. पुरुषों के इन तीन वर्गों में से एक भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करके खुश रहने का प्रयास करता है, दूसरा सर्वोच्च के साथ एक्य बनाकर प्रसन्न रहना चाहता है, और एक अन्य, पूर्ण पुरुष, एक भक्त होता है. वह भगवान के व्यक्तित्व से बदले में कुछ नहीं चाहता; वह केवल आलौकिक प्रेममय सेवा करते रहना चाहता है. कुछ भी हो, सभी को भगवान के सर्वोच्च व्यक्तित्व की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि वह सभी की इच्छा को पूरा करेंगे. सर्वोच्च व्यक्तित्व की पूजा करने का लाभ यह है कि भले ही कोई व्यक्ति भौतिक भोग की इच्छा रखता हो, यदि वह कृष्ण की पूजा करता है, तो वह धीरे-धीरे एक शुद्ध भक्त बन जाएगा और उसे और भौतिक भटकाव नहीं होगा.

उदारण 2:
नौ प्रमुख ऋषि, या संत, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ और अथर्व हैं. ये सभी ऋषि सबसे महत्वपूर्ण हैं, और ब्रम्हा की कामना थी कि कर्दम मुनि की पहले ही जन्म ले चुकीं नौ पुत्रियों को उन्हें सौंप दी जाएँ. यहाँ दो शब्दों का उपयोग बहुत महत्वपूर्ण रूप से किया गया है–यथा-शीलम् और यथा-रुचि. पुत्रियों को संबंधित ऋषियों को सौंप दिया जाना चाहिए, बिना देखे नहीं, बल्कि चरित्र और रुचि के संयोजन के अनुसार. यह एख पुरुष और स्त्री के संयोजन की कला है. स्त्री और पुरुष का संगम केवल यौन जीवन के आधार पर नहीं करना चाहिए. कई अन्य बातों पर विचार किया जाता है, विशेष रूप से चरित्र और रुचि. यदि पुरुष और स्त्री के बीच रुचि और चरित्र भिन्न होते हैं, तो उनका संयोजन दुखकारी होगा. लगभग चालीस वर्ष पहले भी, भारतीय विवाहों में, वर और कन्या के रुचि और चरित्र का मिलान सबसे पहले किया जाता था, और फिर उन्हें विवाह करने की अनुमति दी जाती थी. यह उनके माता-पिता के निर्देशन में किया जाता था. माता-पित ज्योतिष के अनुसार वर और कन्या के चरित्र और रुचि का निर्धारण करते थे और जब वे संबंधित लगते, तब मिलान का चयन कर लिया जाता था: “यह कन्या और यह पुरुष बिलकुल उपयुक्त है, और इनका विवाह करना चाहिए.” अन्य विचार कम महत्व के थे. यही प्रणाली सृष्टि की रचना के आरंभ में ब्रम्हा द्वारा भी सुझाई गई थी: “तुम्हारी कन्याओं को रुचि और चरित्र के अनुसार ऋषियों को सौंपा जाना चाहिए.”

ज्योतिष गणना के अनुसार, किसी व्यक्ति को उसके भगवान अथवा दैत्य सदृश गुणों से संबंध के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है. इसी विधि से जीवन साथी का चुनाव किया जाता था. किसी ईश्वरीय गुण वाली कन्या को ईश्वरीय गुण वाले कुमार को ही सौंपा जाना चाहिए. दैत्य गुणों वाली कन्या को दैत्य गुणों वाले कुमार को सौंपा जाना चाहिए. तब वे प्रसन्न रहेंगे. लेकिन यदि कन्या दैत्य गुणों वाली है और कुमार दैवीय गुण वाला तब संयोजन बेमेल होगा; ऐसे विवाह में वे प्रसन्न नहीं रह सकते. वर्तमान में, चूँकि पुरुष और कन्या का विवाह रुचियों और चरित्र के अनुसार नहीं किया जा रहा, अधिकतर विवाह सुखी नहीं हैं, और तलाक होते हैं.

भागवतम के बारहवें सर्ग में यह भविष्यवाणी की गई है कि कलि के इस युग में विवाहित जीवन को केवल संभोग के विचार पर स्वीकार किया जाएगा; जब पुरुष और स्त्री संभोग में प्रसन्न होते हैं, तो वे विवाह कर लेते हैं, और जब संभोग में कमी होती है, तो वे अलग हो जाते हैं. यह वास्तविक विवाह नहीं है, बल्कि पुरुष और स्त्रियों का बिल्लियों और कुत्तों जैसा संयोजन है. इसलिए, आधुनिक युग में उत्पन्न बच्चे ठीक-ठीक मनुष्य नहीं हैं. मानव को दो बार पैदा होना चाहिए. एक शिशुपहली बार अच्छे माता और पिता से पैदा होता है, और फिर उसका जन्म आध्यात्मिक गुरू और वेदों द्वारा दोबारा होता है. पहले माता और पिता इस संसार में उसे जन्म देते हैं; फिर आध्यात्मिक गुरू और वेद उसके दूसरे पिता और माता बन जाते हैं. संतान प्राप्ति के लिए विवाह की वैदिक पद्धति के अनुसार, प्रत्येक पुरुष और स्त्री को आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित किया जाता था और संतान प्राप्ति के लिए उनके संगम के समय, सब कुछ छानबीन द्वारा और वैज्ञानिक रूप से किया जाता था.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, तीसरा सर्ग, अध्याय 15 – पाठ 24 और अध्याय 21 – पाठ 15