
Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 2
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वैदिक साहित्य भौतिक अस्तित्व का निर्वाह करने के बारे में भी निर्देश देता है.
वैदिक साहित्य न केवल आध्यात्मिक निर्देशों से परिपूर्ण है बल्कि उसमें यह मार्गदर्शन भी मिलता है कि आध्यात्मिक उत्कृष्टता के अंतिम लक्ष्य के साथ, भौतिक अस्तित्व का निर्वहन भली प्रकार से कैसे किया जाए. इसलिए, देवाहुति ने अपने पति से प्रश्न किया, कि वैदिक निर्देशों के अनुसार स्वयं को यौन जीवन के लिए कैसे तैयार करें. यौन जीवन का विशेष उद्देश्य अच्छी संतानें प्राप्त करना है. अच्छी संतानों को रचने की परिस्थितियों का वर्णन काम-शास्त्र में किया गया है, वह ग्रंथ जिसमें तथ्यात्मक रूप से वैभवशाली यौन जीवन के लिए उपयुक्त व्यवस्थाएँ निर्धारित की गई हैं. ग्रंथ में आवश्यक सभी बातों का उल्लेख किया गया है–घर और सजावट कैसी होनी चाहिए, पत्नी की पोशाख किस प्रकार की होनी चाहिए, उसे लेपों, सुगंध और अन्य आकर्षक वस्तुओं से कैसे सजना चाहिए, इत्यादि. इन आवश्यकताओं के पूरी होने पर, पति उसके सौंदर्य से आकर्षित होगा, और एक अनुकूल मानसिक अवस्था का निर्माण होगा. यौन जीवन के समय मानसिक स्थिति को पत्नी के गर्भ में स्थानांतरित किया जा सकता है, और उस गर्भावस्था से अच्छी संतानें मिल सकती हैं. यहाँ देवाहुति के शारीरिक लक्षणों का विशेष उल्लेख है. चूँकि वह बहुत दुबली हो चुकी थी, उसे भय था कि हो सकता है कर्दम को उसके शरीर से कोई आकर्षण न हो. वह इस बारे में निर्देश चाहती थी कि अपने पति को आकर्षित करने के लिए वह अपनी शारीरिक स्थिति में कैसे सुधार करे. वह संभोग जिसमें पति, पत्नी की ओर आकर्षित होता है, वहाँ पुरुष संतान उत्पन्न होना सुनिश्चित है, लेकिन पति के लिए पत्नी के आकर्षण के आधार पर संभोग होने से बालिका जन्म ले सकती है. आयर्वेद में इसका उल्लेख है. जब स्त्री का आवेग अधिक होता है, तो बालिका के जन्म लेने की संभावना होती है. जब पुरुष की उत्कंठा अधिक होती है, तब पुत्र की संभावना होती है. देवाहुति काम-शास्त्र में उल्लिखित व्यवस्था द्वारा अपने पति की उत्कंठा को बढ़ाना चाहती थी. वह चाहती थी कि उसे उसका पति इस विधि से निर्देश दे, और उसने यह अनुरोध भी किया कि वह एक अनुकूल घर की व्यवस्था भी करे क्योंकि जिस आश्रम में कर्दम मुनि रहते थे वह बहुत साधारण था और वह स्थान सात्विक था, और वहाँ उसके हृदय में कामातुरता के जागृत होने की संभावना कम थी.
स्रोत: ए। सी। भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (२०१४ संस्करण), “श्रीमद्भागवतम्”, दूसरा कैंटो, अध्याय ११ – पाठ ११
जिस प्रकार माता का लगाव शिशु के साथ सहज होता है, उसी प्रकार, भगवान हमेशा प्रत्येक जीव के प्रति स्नेहिल होते हैं.
हममें से हर व्यक्ति जीवन में सच्ची प्रसन्नता की खोज कर रहा है, जैसे अमर जीवन, शाश्वत या असीमित ज्ञान और समाप्त न होने वाला आनंदमयी जीवन. लेकिन मूर्ख लोग जिन्हें तत्व का ज्ञान नहीं होता वे जीवन के सत्य की खोज भ्रम में करते हैं. यह भौतिक शरीर हमेशा के लिए टिकाऊ नहीं होता, और इस अस्थायी शरीर से संबंधित सभी चीज़ें, जैसे पत्नी, बच्चे, समाज और देश भी शरीर के परिवर्तनों के साथ बदलते हैं. इसे संसार, या जन्म, मृत्यु, जरा और रोग को दोहराव कहा जाता है. हम जीवन की इन सभी समस्याओं के लिए हल खोजना चाहेंगे, लेकिन हम उसकी विधि नहीं जानते. यहाँ सुझाया गया है कि जो कोई भी जीवन के इन कष्टों, जैसे जन्म, मृत्यु, रोग और वृद्धावस्था के दोहराव का अंत चाहता है, उसे किसी अन्य को नहीं बल्कि परम भगवान को पूजने की इस प्रक्रिया को अपनाना चाहिए, क्योंकि अंततः भगवद्-गीता (18.65) में भी यही सुझाव दिया गया है. यदि हम अपने बद्ध जीवन के कारण को थोड़ा भी समाप्त करना चाहते हैं, तो हमें भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति को अपनाना चाहिए, जो सभी जीवों के प्रति अपने सहज स्नेह द्वारा सभी लोगों के हृदय में विद्यमान हैं, जो वास्तव में भगवान के ही अंश हैं (भ.गी. 18.61). अपनी माँ की गोद में बच्चे का जुड़ाव सहज ही माँ की ओर होता है, और माँ बच्चे से जुड़ी होती है. लेकिन जब बच्चा बड़ा हो जाता है और परिस्थितियों से विवह्ल हो जाता है, वह धीरे-धीरे माँ से विलग हो जाता है, यद्यपि माँ बड़े हो चुके बच्चे से हमेशा सेवा की आशा करती है और अपने बच्चे के प्रति उतनी ही स्नेहिल होती है, भले ही बच्चा भूल जाए. उसी प्रकार, चूँकि हम सभी भगवान के अंश हैं, भगवान हम पर स्नेह रखते हैं, और वे सदैव हमें वापस घर, परम भगवान तक ले जाने का प्रयास करते हैं. लेकिन हम, बद्ध आत्माएँ, उनकी चिंता नहीं करते और उसके स्थान पर भ्रामक शारीरिक संबंधों के पीछे भागते हैं. इसलिए हमें संसार के सभी मायावी संबंधों से स्वयं को मुक्त करना चाहिए और भगवान से पुनर्मिलन की खोज करना चाहिए, उनकी सेवा करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि वे ही परम सत्य हैं. वास्तव में हम उनकी ही लालसा रखते हैं जैसे शिशु अपनी माँ को खोजता है. और भगवान के परम व्यक्तित्व को खोजने के लिए, हमें कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भगवान हमारे हृदयों में ही हैं. यद्यपि इसका अर्थ यह नहीं है, कि हमें पूजा के स्थानों जैसे मंदिर, चर्चों, और मस्जिदों में नहीं जाना चाहिए. उपासना के ऐसे स्थलों में भी भगवान रहते हैं क्योंकि भगवान सर्वव्यापी हैं. सामान्य लोगों के लिए ये पवित्र स्थल भगवान के विज्ञान को सीखने के केंद्र होते हैं. जब मंदिरों में गतिविधियाँ नहीं होती, तो लोग सामान्यतः ऐसे स्थानों में रुचि खो देते हैं, और परिणामवश अधिकांश लोग धीरे-धीरे भगवानविहीन हो जाते हैं, और उसका परिणाम एक भगवानविहीन सभ्यता होती है. ऐसी नर्क समान सभ्यता जीवन की परिस्थितियाँ कृत्रिम रूप से बढ़ाती है, और अस्तित्व सभी के लिए असहनीय हो जाता है. भगवानहीन सभ्यता के नेता भौतिकवाद के एक पेटेंट ट्रेडमार्क के तहत भगवानहीन संसार में शांति और समृद्धि लाने के लिए विभिन्न योजना का यत्न करते हैं, और चूँकि ऐसे प्रयास केवल भ्रामक होते हैं, लोग अक्षम, अंधे नेताओं का चयन एक के बाद एक करते जाते हैं, जो समाधान प्रदान करने में असमर्थ होते हैं. यदि हम चाहते हैं कि भगवानहीन सभ्यता की इस विसंगति को समाप्त करें, तो हमें श्रीमद्-भागवतम जैसे प्रकट शास्त्रों के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और श्री शुकदेव गोस्वामी जैसे व्यक्ति के निर्देशों का पालन करना चाहिए जिन्हें भौतिक लाभ का कोई आकर्षण नहीं होता.
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग,अध्याय 2- पाठ 6
काम वासना को कम कैसे किया जा सकता है?
सबसे स्थूल प्रकार का अनर्थ जो बाध्य आत्मा को भौतिक अस्तित्व में बांधता है वह काम वासना है, और यह काम वासना धीरे-धीरे पुरुष और स्त्री के मिलन में विकसित हो जाती है. जब पुरुष और स्त्री सहवास करते हैं, तब घर, बच्चे, मित्र, रिश्तेदार और संपत्ति के संग्रह से काम वासना और भी उत्त्जित हो जाती है. जब ये सभी प्राप्त हो जाते हैं, तो बाध्य आत्मा ऐसी उलझनों से अभिभूत हो जाती है, और अहंकार की झूठी भावना, या “स्वयं” और “मेरा” की भावना प्रमुख हो जाती है, और काम वासना विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, परोपकारी और कई अन्य अवांछित व्यस्तताओं तक विस्तृत हो जाती है, जो समुद्री लहरों के फेन जैसी होती है, जो किसी एक समय बहुत बलवती हो जाता है, और अगले ही पल आकाश में बादलों की भाँति गायब हो जाता है. बाध्य आत्मा ऐसे उत्पादों, और साथ ही काम वासना के उत्पादों से घिर जाती है, और इस प्रकार भक्ति-योग से काम वासना का क्रमिक वाष्पीकरण होता है, जो तीन प्रधानताओं, जैसे लाभ, आराधना और प्रतिष्ठा का सारांश होता है. सभी बाध्य आत्माएँ काम वासना के इन विभिन्न रूपों के पीछे पागल रहती हैं, और किसी भी व्यक्ति को स्वयं ही देखना होगा कि वह काम वासना पर प्रमुखता से आधारित ऐसी भौतिक उत्कंठा से कितना मुक्त हुआ है. जैसे किसी व्यक्ति को भोजन का प्रत्येक कौर खाने पर भूख से संतुष्टि मिलती है, उसी प्रकार उसे यह देखने में भी सक्षम होना चाहिए कि वह किस सीमा तक काम वासना से मुक्त हुआ है. भक्ति-योग की प्रक्रिया द्वारा अपने विभिन्न रूपों के साथ-साथ काम वासना कम हो जाती है क्योंकि भगवान की कृपा से भक्ति-योग का स्वचालित परिणाम प्रभावी रूप से ज्ञान और त्याग होता है, भले ही भक्त भौतिक रूप से बहुत शिक्षित न हो. ज्ञान का अर्थ है चीजों को उसी रूप में जानना जैसी वे हैं, और अगर विचार-विमर्श से यह ज्ञान होता है कि ऐसी चीजें भी हैं जो सर्वथा अनावश्यक हैं, तो जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त किया है, वह ऐसी अवांछित चीजों को स्वाभाविक रूप से छोड़ देता है. जब बाध्य आत्मा ज्ञान संस्कृति से यह जान लेती है कि भौतिक आवश्यकताएँ अवांछित चीज़ें हैं, वह ऐसी अवांछित वस्तुओं से विलग हो जाता है. ज्ञान की यह अवस्था वैराग्य, या अवांछित वस्तुओं से अनासक्ति कहलाती है. हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि भावातीत वादी व्यक्ति के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक है और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संपन्न अंधे व्यक्तियों से भीख नहीं मांगनी चाहिए. शुकदेव गोस्वामी ने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं, जैसे भोजन, नींद और आश्रय की समस्या के लिए कुछ विकल्प सुझाए हैं, लेकिन उन्होंने यौन संतुष्टि का कोई विकल्प नहीं बताया है. जिस व्यक्ति की काम वासना अब भी उसके साथ हो, उसे त्यागी जीवन व्यवस्था को स्वीकारने का प्रयास नहीं करना चाहिए. क्योंकि जो इस अवस्था तक नहीं पहुँचा, उसके लिए त्याग की जीवन व्यवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं है. इसलिए एक उचित आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक सेवा की क्रमिक प्रक्रिया द्वारा, और भागवतम् के सिद्धांतों का पालन करते हुए, व्यक्ति को अनासक्त जीवन व्यवस्था को वास्तविकता में स्वीकार करने से पहले कम से कम काम वासना पर नियंत्रण करने में योग्य होना चाहिए.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", द्वितीय सर्ग, अध्याय 2 - पाठ 12
परम भगवान सभी संसारों के दृष्टा हैं.
परम भगवान सभी, भौतिक और पारलौकिक दोनों संसारों के दृष्टा हैं. दूसरे शब्दों में सभी संसारों के परम लाभार्थी और भोगने वाले परम भगवान ही हैं, जैसा कि भगवद्-गीता (5.29) में पुष्टि की गई है. आध्यात्मिक संसार उनकी शाश्वत शक्ति का प्रकटन है, औऱ भौतिक संसार उनकी बाह्य शक्ति का प्रकटन है. जीव भी उनकी अल्प शक्ति हैं, और स्वयं अपनी इच्छा से वे या तो पारलौकिक या भौतिक संसार में रह सकते हैं. भौतिक संसार जीवों के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है क्योंकि वे आध्यात्मिक रूप से भगवान के साथ एक होते हैं और भौतिक संसार में जीव भौतिक संसार के नियमों द्वार बद्ध हो जाते हैं. भगवान चाहते हैं कि सभी जीव, जो उनके ही अंश हैं, उनके साथ पारलौकिक संसार में रहें, और भौतिक संसार में बद्ध आत्माओं के प्रबोधन के लिए, सभी वेद और प्रकट शास्त्र होते हैं–जो व्यक्त रूप से बद्ध आत्माओं को वापस घर, भगवान के पास जाने की याद दिलाने के लिए हैं. दुर्भाग्यवश बद्ध जीवात्माएँ, जो यद्यपि बद्ध जीवन के त्रिविध कष्ट भोग रहे हैं, वापस भगवान के पास जाने के प्रति गंभीर नहीं होते हैं. ये पापों और गुणों की जटिलता से, जीवन जीने की उनकी पथभ्रष्ट पद्धति के कारण होता है. उनमें से कुछ जो कर्मों के गुणी होते हैं भगवान के साथ अपने खोए संबंध को पुनर्स्थापित करना शुरू कर देते हैं, लेकिन वे भगवान के व्यक्तिगत गुणों को समझने में असमर्थ होते हैं. जीवन का मूल उद्देश्य भगवान से संपर्क बनाना और उनकी सेवा में लग जाना होता है. यही जीवों की प्राकृतिक स्थिति होती है, लेकिन जो निर्वैयक्तिवादी होते हैं भगवान की प्रेममयी सेवा करने में असमर्थ होते हैं उन्हे उनके निर्वैयक्तिक गुण, विराट-रूप, या ब्रम्हांडीय रूप का ध्यान करने का सुझाव दिया जाता है. किसी न किसी विधि से, व्यक्ति को वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त करना हो, और अपनी बंधनमुक्त स्थिति अर्जित करना हो तो उसे भगवान के साथ अपने विस्मृत संबंध को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए. कम बुद्धिमान शुरुआत करने वालों के लिए, निर्वैयक्तिक गुण, विराट-रूप, या भगवान के ब्रम्हांडीय रूप का ध्यान करना, धीरे-धीरे व्यक्ति को व्यक्तिगत संपर्क तक उन्नत कर देगा. यहाँ व्यक्ति को पिछले अध्यायों में निर्दिष्ट विराट-रूप पर ध्यान करने का सुझाव दिया गया है ताकि वह समझ सके कि किस प्रकार विभिन्न ग्रह, समुद्र, पर्वत, नदियाँ, पक्षी, पशु, मानव, देवता और जिसकी भी हम कल्पना कर सकते हैं वह सब भगवान के विराट स्वरूप के ही विभिन्न अंश और अंग हैं. इस प्रकार से विचार करना भी परम सत्य पर ध्यान करना है, और जैसे ही ऐसा ध्यान प्रारंभ होता है, व्यक्ति अपने ईश्वरीय गुण विकसित कर लेता है, और समस्त संसार उसके सभी लोगों के लिए एक प्रसन्न और शांत निवास दिखने लगता है. बिना भगवान पर इस प्रकार के ध्यान के, मानव मात्र के सभी अच्छे गुण उसकी वैधानिक स्थिति के बारे में मिथ्या धारणा से ढँक जाते हैं, और बिना ऐसे विकसित ज्ञान के, मानव के लिए समस्त संसार एक नर्क बन जाता है.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 2- पाठ 14
समय (काल) का प्रभाव अलौकिक स्तर पर कार्यशील नहीं होता.
विनाशक काल, जो भूत, वर्तमान और भविष्य की उसकी उत्पत्ति द्वारा आकाशीय देवताओं तक पर भी नियंत्रण रखता है, अलौकिक स्तर पर कार्य नहीं करता. समय का प्रभाव जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोग द्वारा प्रदर्शित होता है, और इन चार सिद्धांतो की भौतिक स्थितियाँ भौतिक ब्रम्हांड के किसी भी भाग में, ब्रम्हलोक तक, सभी जगहों में व्याप्त है, जहाँ के निवासियों की जीवन की अवधि हमें आश्चर्यजनक लगती है. अजेय समय तो ब्रम्हा की मृत्यु भी निष्पादित करता है, अतः इंद्र, चंद्र, सूर्य, वायु और वरुण जैसे देवताओं के बारे में क्या कहना? सांसारिक जीवों पर विभिन्न देवताओं द्वारा निर्देशित खगोलीय प्रभाव भी इसकी अनुपस्थिति से सुस्पष्ट है. भौतिक अस्तित्व में, जीवित प्राणी आसुरी प्रभाव से भय करते हैं, लेकिन अलौकिक स्तर पर एक उपासक के लिए ऐसा कोई भय नहीं है. जीवित प्राणी भौतिक प्रकृति के विभिन्न रूपों के प्रभाव के अधीन अपने भौतिक शरीर को विभिन्न आकारों और रूपों में बदलते हैं, लेकिन अलौकिक अवस्था में उपासक गुणातीत होता है, या अच्छाई, कामोन्माद और अज्ञान के भौतिक रूपों से उच्चतर होता है. इस प्रकार “मैं अपने लिए दृश्यमान सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ” का कृत्रिम अहंकार वहाँ नहीं उपजता.
स्रोत:अभय भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, दूसरा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 17.
हमारे हृदय में भगवान की उपस्थिति को व्यक्ति कैसे देख सकता है?
सामान्य व्यक्ति का एक आम तर्क यह होता है कि चूँकि भगवान हमारी आँखों से दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो कोई व्यक्ति उनके प्रति कैसे समर्पित हो सकता है या उनकी पारलौकिक सेवा कैसे कर सकता है? ऐसे सामान्य व्यक्ति के लिए श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा दिया गया एक व्यावहारिक सुझाव है कि कैसे कोई व्यक्ति तर्कणा और धारणा द्वारा भगवान का अनुभव कर सकता है. वास्तव में भगवान हमारी वर्तमान भौतिक इंद्रियों द्वारा इंद्रियगोचर नहीं है, लेकिन जब व्यक्ति व्यावहारिक सेवा प्रवृत्ति द्वारा भगवान की उपस्थिति पर विश्वास करता है, तब भगवान की दया द्वारा प्रकटन होता है, और भगवान का ऐसा विशुद्ध भक्त भगवान की उपस्थिति को हमेशा और सभी ओर अनुभव कर सकता है. वह अनुभव कर सकता है कि बुद्धि परम भगवान के व्यक्तित्व के समग्र अंश परमात्मा की रूप-दिशा है. सभी व्यक्तियों की संगति में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है, सामान्य व्यक्ति के लिए भी. प्रक्रिया इस प्रकार है. वह इसका अनुभव अचानक शायद नहीं कर सकेगा, लेकिन थोड़ी बुद्धि लगाकर वह अनुभव कर सकता है कि वह शरीर नहीं है. वह अनुभव कर सकता है कि हाथ, पाँव, सिर, बाल और अंग सभी उसके शरीर के अंश हैं, लेकिन ऐसे जैसे कि हाथ, पाँव, सिर इत्यादि, उसके आत्म के रूप में नहीं पहचाने जा सकते. इसलिए केवल बुद्धि का प्रयोग करके वह स्वयं को अन्य चीज़ों से अलग पहचान कर सकता है. इसलिए सहज निष्कर्ष यही है कि जीव, चाहे मानव या पशु, दृष्टा है, और वह अपने अलावा सभी चीज़ें देखता है, इसलिए दृष्टा और दृश्य में अंतर होता है, अब, थोड़ी बुद्धि लगाकर हम सहमत हो सकते हैं कि जीव जो सामान्य दृष्टि से अपने इतर वस्तुओं को देखता है, स्वतंत्र रूप से देखने या गति करने के लिए शक्ति नहीं रखता. हमारी क्षुद्र गतिविधियाँ और बोध प्रकृति द्वारा विभिन्न संयोजनों में हम तक पहुँचाई गई ऊर्जा के विभिन्न रूपों पर निर्भर करते हैं. हमारे बोध और कर्मों की इंद्रियाँ, अर्थात्, 1) सुनने, 2) स्पर्श, 3) दृष्टि, 4) स्वाद और 5) गंध की हमारी पाँच इंद्रियाँ, साथ ही हमारी पाँच कर्मेंद्रियाँ 1) हाथ, 2) पाँव, 3) वाक्, 4) निकास के अंग और 5) जनन अंग, और 1) मष्तिष्क, 2) बुद्धि औऱ 3) अंहकार नामक हमारी तीन गौण इंद्रियाँ, भी प्राकृतिक ऊर्जा के स्थूल या गौण रूपों की विभिन्न व्यवस्थआओं द्वारा हम तक पहुँचाई जाती हैं. और यह भी समान रूप से प्रमाणित है कि हमारी धारणा के पात्र प्राकृतिक ऊर्जा द्वारा लिए गए रूपों के अटूट क्रमपरिवर्तन और संयोजन के अलावा और कुछ नहीं हैं. चूँकि यह निष्कर्ष रूप में प्रमाणित करता है कि सामान्य जीवों के पास बोध या गति की कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं होती, और जैसा कि हम निस्संदेह अनुभव करते हैं कि हमारा अस्तित्व प्रकृति की ऊर्जा के अनुकूल होता है, हम निष्कर्ष निकालते हैं कि देखने वाला आत्मा होता है, और यह कि इंद्रियाँ और साथ ही बोध के पात्र भौतिक होते हैं. दृष्टा का आध्यात्मिक गुण भौतिक रूप से बद्ध अस्तित्व की सीमित स्थिति से असंतुष्टि में लक्षित होता है. आत्मा और पदार्थ में यही अंतर है. कुछ कम बुद्धिमत्तापूर्ण तर्क हैं कि पदार्थ किसी विशिष्ट जैविक विकास के रूप में देखने और गति करने की शक्ति देता है, लेकिन ऐसा तर्क इसलिए स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई भी प्रायोगिक प्रमाण नहीं है कि पदार्थ ने कहीं भी जीव को उत्पन्न किया है. भविष्य का विश्वास मत कीजिए, कितना भी लुभावना है. भविष्य में पदार्थ के आत्मा में विकास से संबंधित फालतू बातें वास्तविकता में मूर्खतापूर्ण हैं क्योंकि किसी भी पदार्थ ने संसार के किसी भी भाग में देखने या गतिमान होने की शक्ति विकसित नहीं की है. इसलिए यह निश्चित है कि पदार्थ और आत्मा दो भिन्न पहचानें हैं, और इस निष्कर्ष पर बुद्धि के उपयोग से पहुँचा गया है. अब हम इस बिंदु पर आते हैं कि जो चीजें बुद्धि के थोड़े से उपयोग द्वारा देखी जाती हैं वे चेतन नहीं हो सकती हैं जब तक कि हम किसी को बुद्धि के उपयोगकर्ता या निर्देशक के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं. बुद्धि कुछ उच्चतर विद्वानों के समान एक दिशा देती है, और बिना बुद्धि के उपयोग के जीव देख नहीं सकते या गतिमान नहीं हो सकते, या खा नहीं सकते या कुछ भी नहीं कर सकते हैं. जब कोई बुद्धि का लाभ उठाने में विफल हो जाता है तो वह एक विक्षिप्त व्यक्ति बन जाता है, और इसलिए एक जीव बुद्धि पर या किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के निर्देश पर निर्भर होता है. ऐसी बुद्धि सर्वव्यापी है. हर जीव की अपनी बुद्धि होती है, और यह बुद्धि, किसी उच्चतर विद्वान का निर्देश होते हुए, वैसी ही है, जैसे कोई पिता अपने पुत्र को निर्देश दे रहा हो. उच्चतर विद्वान, जो कि प्रत्येक जीव के भीतर उपस्थित है और निवास करता है, वही परमात्मा है.
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 2- पाठ 35
भगवान द्वारा जीवन की मानवीय आवश्यकताओं की संपूर्ण पूर्ति की जाती है
मानव समाज की पीड़ाएँ जीवन के एक प्रदूषित लक्ष्य, अर्थात् भौतिक संसाधनों पर आधिपत्य दिखाने के कारण हैं. जितना मानव समाज अधिक इन्द्रिय संतुष्टि के लिए अविकसित भौतिक संसाधनों के दोहन में संलग्न होता है, उतना ही वह भगवान की मायावी, भौतिक ऊर्जा के उलझाव में रहेगा, और इस प्रकार दुनिया का संकट कम होने के बजाय बढ़ता रहेगा. जीवन की मानवीय आवश्यकताओं की आपूर्ति भगवान द्वारा भोजन, दूध, फल, लकड़ी, पत्थर, चीनी, रेशम, जवाहरात, कपास, नमक, पानी, सब्जियों, आदि के रूप में, संसार की मानव जाति और साथ ही ब्रम्हांड के दूसरे प्रत्येक ग्रहों पर अन्य जीवों के भरण-पोषण के लिए भी पर्याप्त मात्रा में की जाती है. आपूर्ति स्रोत पूर्ण है, और मानव के द्वारा उसकी आवश्यकताओं को उचित मार्ग में लाने के लिए केवल थोड़ी सी ऊर्जा आवश्यकता होती है. कृत्रिम रूप से जीवन की सुख-सुविधाओं को बनाने के लिए मशीनों और औजारों या विशाल स्टील प्लांटों की आवश्यकता नहीं है. जीवन को कभी भी कृत्रिम आवश्यकताओं से नहीं, बल्कि सादे जीवन और उच्च विचार के द्वारा सहज बनाया जाता है. शुकदेव गोस्वामी द्वारा मानव समाज के लिए सर्वोच्च आदर्श विचार का सुझाव दिया गया है, अर्थात् श्रीमद-भागवतम् को पर्याप्त रूप से सुनना. कलि के इस युग में, जब मनुष्य जीवन की परिपूर्ण दृष्टि खो चुके होते हैं, तो यह श्रीमद-भागवतम वह मशाल है, जिससे वास्तविक मार्ग को देखा जा सकता है. श्रील जीव गोस्वामी प्रभुपाद ने इस श्लोक में वर्णित कथामृतम् पर टिप्पणी की है और श्रीमद-भागवतम को भगवान के व्यक्तित्व का अमृत संदेश बताया है. श्रीमद-भागवतम के पर्याप्त श्रवण से, जीवन का प्रदूषित लक्ष्य, अर्थात् उसे पदार्थ रूप में ही मानना, कम हो जाएगा, और संसार के सभी हिस्सों में सामान्य रूप से लोग ज्ञान और आनंद का शांतिपूर्ण जीवन जी सकेंगे.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 37
हमें दान किसे करना चाहिए?
दान जैसी पवित्र गतिविधि की भौतिक विधि का सुझाव स्मृति-शास्त्रों में दिया गया है जैसा कि श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने उद्धृत किया है. योग्य व्यक्ति को दान में दिया गया धन अगले जीवन में निश्चित बैंक बैलेंस होता है. ऐसा दान ब्राम्हण को देने का सुझाव दिया गया है. यदि दान में धन किसी अ-ब्राम्हण (ब्राम्हण योग्यता से रहित) को दिया गया हो तो अगले जीवन में वह धन वापस समान परिमाण में वापस हो जाता है. यदि उसे किसी अर्ध-शिक्षित ब्राम्हण को दिया जाता है, तब भी धन दुगुना वापस मिलता है. यदि धन किसी पूर्ण शिक्षित योग्य ब्राम्हण को दिया गया है, तो धन सौ और हज़ार गुना वापस मिलता है, और यदि धन को किसी वेद-पराग (वह जिसने वेदों का मार्ग तथ्यात्मकता में अनुभव कर लिया है), तो वह असीमित वृद्धि के साथ वापस मिलता है. वैदिक ज्ञान का परम अंत भगवद-गीता में वर्णित भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व का बोध है (वैदेस च सर्वैर अहम् एव वेद्यः). धन का वापस आना सुनिश्चित है यदि उसे परिणाम की चिंता किए बिना दान में दिया गया हो. इसी प्रकार, भगवान के पारलौकिक संदेशों को सुनते और जप करते हुए एक शुद्ध भक्त की संगति में बिताया गया एक क्षण अनंत जीवन के लिए घर वापस, परम भगवान तक जाने की एक संपूर्ण गारंटी होता है. मद-धाम गत्वा पुनर्जन्म न विद्यते. दूसरे शब्दों में, भगवान के भक्त का अमर जीवन सुनिश्चित किया जाता है. वर्तमान जीवन में किसी भक्त की वृद्धावस्था या बीमारी ऐसे सुनिश्चित शाश्वत जीवन के लिए एक संवेग है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 3- पाठ 17
मानव जीवन तथाकथित आर्थिक विकास या भौतिक विज्ञान की उन्नति के लिए नहीं है.
आधुनिक युग का भौतिकवादी मानव यह तर्क देगा कि जीवन, या इसका अंश, कभी भी ब्रम्हविद्या संबंधी या आध्यात्मविद्या संबंधी तर्क की चर्चा के लिए नहीं होता है. अस्तित्व की अधिकतम अवधि के लिए जीवन का अर्थ खाने, पीने, संभोग करने, प्रफुल्ल रहने और जीवन का आनंद लेने के लिए है. भौतिक विज्ञान की उन्नति से आधुनिक मनुष्य हमेशा के लिए जीना चाहता है, और जीवन को अधिकतम अवधि तक लम्बा करने के लिए कई मूर्खतापूर्ण सिद्धांत हैं. लेकिन श्रीमद-भागवतम इस बात की पुष्टि करता है कि जीवन तथाकथित आर्थिक विकास या खाने, संभोग, पीने और भोग-विलास के दर्शन के लिए भौतिक विज्ञान की उन्नति के लिए नहीं है. जीवन पूर्ण रूप से तपस्या के लिए, अस्तित्व को शुद्ध करने के लिए है, ताकि व्यक्ति जीवन के मानव रूप के अंत के ठीक बाद वह अनन्त जीवन में प्रवेश कर सके. भौतिकतावादी जीवन को यथासंभव लम्बा खींचना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अगले जीवन की कोई जानकारी नहीं होती है. वे इस वर्तमान जीवन में अधिकतम सुख प्राप्त करना चाहते हैं क्योंकि वे निर्णायक रूप से सोचते हैं कि मृत्यु के बाद कोई जीवन नहीं होता है. जीवों की अनंतता और भौतिक दुनिया में आवरण के परिवर्तन के बारे में इस अज्ञानता ने आधुनिक मानव समाज की संरचना में विध्वंस मचाया है. परिणामस्वरूप, आधुनिक मानव की विभिन्न योजनाओं से द्विगुणित कई सारी समस्याएँ हैं. समाज की समस्याओं को हल करने की योजनाओं ने केवल समस्याओं को बढ़ाया है. भले ही जीवन को एक सौ से अधिक वर्षों तक लम्बा करना संभव हो, लेकिन आवश्यक नहीं है कि मानव सभ्यता की उन्नति भी होगी. भागवतम कहता है कि कुछ पेड़ सैकड़ों और हजारों सालों तक जीवित रहते हैं. वृंदावन में एक इमली का पेड़ है (उस स्थान को इमलिताल के नाम से जाना जाता है) जिसके बारे में कहा जाता है कि यह भगवान कृष्ण के समय से अस्तित्व में रहा है. कलकत्ता बॉटनिकल गार्डन में एक बरगद का पेड़ है जो पाँच सौ साल से भी पुराना है और पूरे संसार में ऐसे कई पेड़ हैं. स्वामी शंकराचार्य केवल बत्तीस वर्ष जीवित रहे, और भगवान चैतन्य अड़तालीस वर्ष जीवित रहे. क्या इसका अर्थ यह है कि उपर्युक्त पेड़ों के लंबे जीवन शंकर या चैतन्य से अधिक महत्वपूर्ण हैं? आध्यात्मिक मूल्य के बिना लंबा जीवन बहुत महत्वपूर्ण नहीं है. किसी को संदेह हो सकता है कि पेड़ों में जीवन है क्योंकि वे साँस नहीं लेते हैं. लेकिन बोस जैसे आधुनिक वैज्ञानिकों ने पहले ही साबित कर दिया है कि पौधों में जीवन है, इसलिए साँस लेना वास्तविक जीवन का कोई संकेत नहीं है. भागवतम कहता है कि लोहारों की धौंकनी बहुत गहरी सांस लेती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि धौंकनी में जीवन है. भौतिकतावादी यह तर्क देगा कि पेड़ में जीवन और मानव में जीवन की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि पेड़ को स्वादिष्ट व्यंजन खाने या संभोग के आनंद द्वारा जीवन का आनंद नहीं मिल सकता है. इसके उत्तर में, भागवतम प्रश्न करता है कि क्या कुत्ते और शूकर जैसे अन्य पशु, जो मनुष्यों के साथ एक ही गाँव में रहते हैं, क्या वे खाना नहीं खाते हैं और यौन जीवन का आनंद नहीं लेते हैं. “अन्य पशुओं” के संबंध में श्रीमद-भागवतम की विशिष्ट व्याख्या का अर्थ है कि वे व्यक्ति जो बेहतर प्रकार के पशु जीवन की योजना बनाने में लगे हुए हैं, जिसमें भोजन, श्वास और संभोग शामिल है, वे भी मानव के आकार में पशु ही हैं. ऐसे परिष्कृत किए गए पशुओं का समाज पीड़ित मानवता को लाभ नहीं दे सकता है, क्योंकि एक पशु दूसरे पशु को सरलता से हानि पहुँचा सकता है, लेकिन शायद ही कभी भलाई करता हो.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 3- पाठ 18
हर कोई बुद्धि के विभिन्न स्तरों से संपन्न होता है.
जीवित प्राणी अपनी पिछली गतिविधियों के संदर्भ में आनुपातिक रूप से बुद्धि संपन्न होते हैं. सभी जीव समान रूप से बुद्धिमत्ता के गुणों से संपन्न नहीं हैं क्योंकि बुद्धिमत्ता के ऐसे विकास के पीछे भगवान का नियंत्रण है, जैसा कि भगवद्-गीता (15.15) में घोषित किया गया है. परमात्मा के रूप में, भगवान सभी के हृदय में रह रहे हैं, और उनसे ही व्यक्ति की स्मृति, ज्ञान और विस्मृति की शक्ति आती है. कोई व्यक्ति भगवान की कृपा से पिछली गतिविधियों को कुशलता से याद कर सकता है जबकि अन्य ऐसा नहीं कर सकते. भगवान की कृपा से व्यक्ति अत्यधिक बुद्धिमान होता है, और उसी नियंत्रण से मूर्ख होता है. इसलिए भगवान धियम-पति, या बुद्धि के स्वामी हैं. बद्ध आत्माएँ भौतिक जगत का स्वामी बनने का प्रयास करती हैं. हर कोई अपनी उच्चतम स्तर की बुद्धि का उपयोग करके भौतिक प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास कर रहा है. बद्ध आत्मा द्वारा बुद्धि के इस दुरुपयोग को पागलपन कहा जाता है. भौतिक चंगुल से मुक्त होने के व्यक्ति की पूर्ण बुद्धि का उपयोग किया जाना चाहिए. लेकिन बद्ध आत्मा, केवल पागलपन के कारण, अपनी पूरी ऊर्जा और बुद्धि का उपयोग इंद्रिय संतुष्टि में करती है, और जीवन के इस अंत को प्राप्त करने के लिए वह सभी प्रकार के कुकर्म करती है. परिणाम यह है कि बंधन रहित पूर्ण स्वतंत्र जीवन पाने के स्थान पर, पागल बद्ध आत्मा भौतिक शरीरों में रहते हुए विभिन्न प्रकार के बंधन में बार-बार उलझ जाती है. भौतिक रचना में हम जो कुछ भी देखते हैं वह भगवान की रचना है. इसलिए ब्रह्मांड में सब कुछ के वास्तविक स्वामी वे ही हैं. बद्ध आत्मा भगवान के नियंत्रण में इस भौतिक रचना के एक अंश का आनंद तो ले सकती है, लेकिन आत्मनिर्भर होकर नहीं. ईसोपनिषद में यही निर्देश है. व्यक्ति को ब्रह्मांड के स्वामी द्वारा प्रदान की गई वस्तुओं से संतुष्ट होना चाहिए. यह केवल पागलपन के कारण है कि व्यक्ति किसी अन्य के हिस्से की भौतिक संपत्ति पर अतिक्रमण करने का प्रयास करता है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 4- पाठ 20
परम भगवान सदैव सर्वश्रेष्ठ हैं.
नारदजी मुक्त आत्माओं में से एक हैं, और अपनी मुक्ति के बाद वे नारद के रूप में जाने गए; अन्यथा, उनकी मुक्ति के पहले, वे बस एक सेविका के पुत्र थे. प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्यों नारदजी परम भगवान के बारे में जागरूक नहीं थे और क्यों वे ब्रम्हाजी को परम भगवान समझते थे, यद्यपि ऐसा नहीं था. एक मुक्त आत्मा ऐसे मिथ्या विचार से व्यग्र नहीं होती, इसलिए क्यों नारदजी ने एक कम बुद्धि वाले सामान्य मानव की भांति वे सभी प्रश्न किए? इसी तरह की व्यग्रता अर्जुन में भी थी, यद्यपि वे भगवान के शाश्वत साथी हैं. अर्जुन या नारद में इस तरह की व्यग्रता भगवान की इच्छा से ही आती है ताकि अ-मुक्त व्यक्ति भगवान के वास्तविक सत्य और ज्ञान का अनुभव कर सकें. नारदजी के मन में ब्रम्हाजी के सर्व-शक्तिशाली होने का संदेह उदित होना कुँए के मेंढकों के लिए एक शिक्षा है, कि हो सकता है कि वे परम भगवान के व्यक्तित्व की पहचान को उलटा समझने में बेसुध हों (भले ही ब्रम्हा जैसे व्यक्तित्व से तुलना करके, सामान्य मानव का तो कहना ही क्या जो स्वयं को भगवान या भगवान के अवतार जैसा बताते हैं). परम भगवान ही हमेशा श्रेष्ठ हैं, और जैसा कि हमने इन अभिप्रायों को स्थापित करने का प्रयास कई बार किया है, कोई भी प्राणी, भले ही वह ब्रम्हा के स्तर का हो, भगवान से ऐक्य रखने का दावा नहीं कर सकता. जब लोग किसी महान व्यक्ति की पूजा उसकी मृत्यु के बाद किसी नायक की पूजा के रूप में करते हैं तो व्यक्ति को भुलावे में नहीं आना चाहिए. भगवान रामचंद्र, अयोध्या के राजा जैसे कई राजा थे, लेकिन प्रकट ग्रंथों में उनमें से किसी का भी वर्णन भगवान के रूप में नहीं मिलता. भगवान राम बनने के लिए अच्छा राजा होना आवश्यक योग्यता नहीं है, लेकिन कृष्ण जैसा महान वयक्तित्व होना भगवान का परम व्यक्तित्व होने की योग्यता है. यदि हम कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लेने वाले चरित्रों की पड़ताल करें तो, हमें पता लग सकता है कि महाराज युधिष्ठिर भगवान राम से कम पवित्र राजा नहीं थे, और चरित्र का अध्ययन करने पर महाराज युधिष्ठिर भगवान कृष्ण से बेहतर नैतिकतावादी थे. भगवान कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से असत्य बोलने के लिए कहा, लेकिन महाराज युधिष्ठिर ने विरोध किया. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि महाराज युधिष्ठिर भगवान रामचंद्र या भगवान कृष्ण के बराबर हो सकते थे. महान विद्वानों ने महाराज युधिष्ठिर के पवित्र होने का अनुमान लगाया है, लेकिन उन्होंने भगवान राम या कृष्ण को भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया है. इस प्रकार भगवान सभी परिस्थितियों में एक भिन्न पहचान होते हैं, और उन पर अवतार वाद का कोई विचार थोपा नहीं जा सकता.
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 5- पाठ 10
सृजन की पूरी प्रक्रिया क्रमिक विकास का एक कार्य है.
सृजन की पूरी प्रक्रिया क्रमिक विकास और एक तत्व से दूसरे तत्व में विकास करने, बहुत सारे वृक्षों, पौधों, पर्वतों, नदियों, सरीसृपों, पक्षियों, पशुओं और मानवों की विविधताओं के रूप में पृथ्वी की विभिन्नताओं तक पहुँचने का एक कार्य है. भाव बोध की गुणवत्ता भी विकासवादी है, अर्थात् ध्वनि से उत्पन्न होती है, फिर स्पर्श, और स्पर्श से रूप तक. आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के क्रमिक विकास के साथ स्वाद और गंध भी उत्पन्न होते हैं. वे सभी परस्पर एक दूसरे के कारण और प्रभाव हैं, लेकिन मूल कारण पूर्ण भाग में स्वयं भगवान हैं. महा-विष्णु महा-तत्त्व के जल में अवस्थित हैं. जैसे, भगवान कृष्ण को ब्रह्म-संहिता में सभी कारणों का कारण बताया गया है, और भगवद-गीता (10.8) में इसकी पुष्टि निम्न रूप में की गई है:
अहम् सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्वं प्रवर्तते
इति मत्वा भजन्ते मम बुधा भाव-समन्वितः
अर्थ बोध के गुण पूरी तरह से पृथ्वी में प्रदर्शित होते हैं, और वे अन्य तत्वों में कुछ कम प्रकट होते हैं. आकाश में केवल ध्वनि है, जबकि वायु में ध्वनि और स्पर्श है. अग्नि में ध्वनि, स्पर्श और आकार हैं, और जल में अन्य बोधों, ध्वनि, स्पर्श और आकार के अतिरिक्त स्वाद भी है. हालाँकि, पृथ्वी में उपरोक्त सभी गुणों के साथ ही गंध का अतिरिक्त विकास भी है. इसलिए, पृथ्वी पर जीवन की विविधता का पूर्ण प्रदर्शन है, जो वास्तव में वायु के मूलभूत सिद्धांत से शुरू हुआ था. शरीर के रोग जीवों के सांसारिक शरीर में वायु की अव्यवस्था के कारण उत्पन्न होते हैं. मानसिक रोग शरीर में विशेष प्रकार की अव्यवस्था के कारण पैदा होते हैं, और इस प्रकार, यौगिक व्यायाम वायु को व्यवस्थित रखने में विशेष रूप से लाभकारी होते हैं ताकि इस प्रकार के व्यायामों से शरीर के रोग लगभग शून्य हो जाते हैं. जब व्यायाम सही विधि से किया जाता है तो जीवन की अवधि भी बढ़ती है, और ऐसे अभ्यास से व्यक्ति मृत्यु पर नियंत्रण भी पा सकता है. एक सिद्ध योगी मृत्यु पर अधिकार कर सकता है और सही समय पर शरीर का त्याग कर सकता है, जब वह स्वयं को उचित ग्रह पर स्थानांतरित करने के योग्य हो. हालाँकि, भक्ति-योगी सब योगियों से श्रेष्ठ होता है क्योंकि, अपनी आध्यात्मिक सेवा के बल से, उसकी उन्नति भौतिक आकाश से ऊपर के क्षेत्र में की जाती है और समस्त संसार के नियंत्रक, भगवान की परम इच्छा द्वारा उसे आध्यात्मिक आकाश के किसी ग्रह में स्थान दिया जाता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 26-29.
सभी प्राणियों को परम भगवान का अंश कहा जाता है.
सभी प्राणियों को परम भगवान का अंश कहा जाता है. मानव समाज के चार विभाग, बुद्धिमान जाति (ब्राम्हण), शासक वर्ग (क्षत्रिय), व्यवसायी वर्ग (वैश्य), और श्रमिक वर्ग (शूद्र), सभी भगवान के शरीर के विभिन्न भागों में हैं. ऐसे कि कोई भी भगवान से भिन्न नहीं है. मुंह, पैर, भुजाएँ और जंघाएँ सभी शरीर के भाग हैं. भगवान के शरीर के ये अंग एक संपूर्ण पिंड की सेवा के लिए हैं. मुंह बोलने और भोजन करने के लिए है, भुजाएँ शरीर की रक्षा करने के लिए हैं, पाँव शरीर को ले जाने के लिए हैं, और शरीर का कटिक्षेत्र शरीर के रख-रखाव के लिए है. इसलिए बुद्धिमान वर्ग को शरीर की ओर से बोलना चाहिए, और साथ ही शरीर की क्षुधा को तुष्ट करने के लिए भोजन स्वीकार करना चाहिए. भगवान की क्षुधा बलि के फल स्वीकार करने वाली है. ब्राम्हण या बुद्धिमान वर्ग, को ऐसी बलि आयोजित करने में बहुत विशेषज्ञ होना चाहिए, और उनके उप वर्गों को ऐसी बलियों में भाग लेना चाहिए. भगवान के लिए बोलने का अर्थ, भगवान के ज्ञान के जस-के-तस प्रचार के माध्यम से भगवान का गुणगान करना, भगवान के वास्तविक स्वभाव और संपूर्ण शरीर के अंगों की वास्तवक स्थिति को प्रसारित करना है. इस प्रकार ब्राम्हण को वेद, या ज्ञान के परम स्रोत को जानने की आवश्यकता होती है. वेद का अर्थ है ज्ञान, और अंत का अर्थ उसकी समाप्ति. भगवद्-गीता के अनुसार, भगवान सभी कुछ का स्रोत हैं (अहम् सर्वस्य प्रभावः), और इस प्रकार समस्त ज्ञान का अंत (वेदांत) भगवान को जान लेना है, उनके साथ हमारे संबंध को जान लेना और केवल उस संबंध के अनुसार ही व्यवहार करना. शरीर के अंग शरीर से संबंधित होते हैं; उसी प्रकार, प्राणी को भगवान के साथ अपने संबंध को अवश्य जानना चाहिए. मानव जीवन का उद्देश्य विशेष रूप से यही है, अर्थात् परम भगवान के साथ प्रत्येक प्राणी का वास्तविक संबंध. बिना इस संबंध को जाने, मानव जीवन व्यर्थ हो जाता है. अतः मानवों का बुद्धिमान वर्ग, ब्राम्हण, भगवान के साथ हमारे संबंध के ज्ञान को प्रसारित करने और सामान्य लोगों के समूह का नेतृत्व सही मार्ग पर करने के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी है. शासक वर्ग प्राणियों की रक्षा करने के लिए है ताकि वे इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकें; व्यवसायी वर्ग का उद्देश्य अन्न पैदा करना और उसे संपूर्ण मानव समाज में बाँटना है ताकि संपूर्ण जनसंख्या को आराम से जीवन जीने और मानव जीवन के कर्तव्यों को पूरा करने का अवसर मिले. व्यवसायी वर्ग को गायों का संरक्षण भी करना होता है ताकि पर्याप्त दूध और दूध के उत्पाद मिल सकें, जो अकेले ही परम सत्य के लिए उद्दिष्ट किसी सभ्यता को बनाए रखने के लिए उचित स्वास्थ्य और बुद्धि दे सकता है. और श्रमिक वर्ग, जो बुद्धिमान और शक्तिशाली दोनों ही नहीं होते, वे अन्य उच्चतर वर्गों की सेवा करके सहायता कर सकते हैं और इस प्रकार अपने सहयोग द्वारा लाभ प्राप्त करते हैं. अतः ब्रम्हांड भगवान के साथ संबंध में एक संपूर्ण इकाई है, और भगवान के साथ इस संबंध के बिना संपूर्ण मानव समाज विक्षुब्ध हो जाता है और शांति और समृद्धि से हीन होता है. इसकी पुष्टि वेदों में की गई है: ब्राम्हणो ‘स्य मुखम आसिद, बहु राजन्याः कृतः.
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 5- पाठ 37
परम भगवान श्रीकृष्ण सभी जीवों के पिता हैं.
बहुत से राजा, नेता, ज्ञानी विद्वान, वैज्ञानिक, कलाकार, इंजीनियर, अविष्कारक, उत्खनक, पुरातत्त्ववेत्ता, उद्यमी, राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, व्यवसायी दिग्गज, और कई अधिक शक्तिशाली ब्रम्हा, शिव, इंद्र, चंद्र, सूर्य, वरुण और मारुत जैसे देवता हैं, जो विभिन्न पदों में, व्यवस्थापन के वैश्विक मामलों के हितों की रक्षा करते हैं, और वे सभी परम भगवान के विभिन्न शक्तिशाली अंग हैं. परम भगवान श्रीकृष्ण सभी जीवों के पिता हैं, जिन्हें विभिन्न उच्च और निम्न पदों पर उनकी इच्छा या अभिलाषा के अनुसार रखा जाता है. उनमें से कुछ को, जैसा कि ऊपर विशिष्ट रूप से बताया गया है, भगवान की इच्छा से विशेष रूप से शक्ति संपन्न किया गया है. किसी स्वस्थचित्त व्यक्ति को यह निश्चित ही पता होना चाहिए कि जीव, वह चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, ना ही परम है ना ही स्वतंत्र है. सभी जीवों को इस श्लोक में उद्धृत किए गए अनुसार अपनी विशिष्ट शक्तियों के मूल को स्वीकार करना चाहिए. और यदि वे तदनुसार कर्म करें, तो बस उनके अपने-अपने उपजीविकाजन्य कर्तव्य निभा कर वे जीवन की उच्चतम पूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं, जैसे अमर जीवन, पूर्ण ज्ञान और असमाप्य आशीर्वाद, जब तक विश्व के शक्तिशाली पुरुष अपनी-अपनी शक्ति के मूल को नहीं स्वीकारते, जो कि भगवान का परम व्यक्तित्व है, माया (भ्रम) के कर्म अपना कार्य करते रहेंगे. माया के कार्य-कलाप ऐसे होते हैं कि भ्रामक, भौतिक ऊर्जा से पथभ्रष्ट एक शक्तिशाली व्यक्ति, त्रुटिवश स्वयं को ही सबकुछ स्वीकारता है और भगवान चेतना को विकसित नहीं करता. इस प्रकार से, अहंकार का मिथ्या भान (मैं और मेरा) विश्व में बहुत अधिक प्रतिष्ठित हो गया है, और मानव समाज में अस्तित्व के लिए कड़ा संघर्ष है. इसलिए मानवों के बुद्धिमान वर्ग को, भगवान को ही सभी ऊर्जाओं के परम स्रोत समझना चाहिए औऱ इस प्रकार उनके शुभ आशीर्वाद के लिए भगवान के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए. बस भगवान को सभी वस्तुओं का परम स्वामी स्वीकार करके, क्योंकि वे वास्तव में हैं, व्यक्ति जीवन की उच्चतम पूर्णता प्राप्त कर सकता है. चीज़ों के सामाजिक क्रम की दृष्टि में कोई व्यक्ति कुछ भी हो, यदि एक व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रति प्रेम भावना का प्रतिदान करने का प्रयास करता है और भगवान के आशीर्वाद से संतुष्ट है, तो वह तुरंत उच्चतम मानसिक शांति का अनुभव करेगा जिसके लिए वह अनेकों जन्मों से उत्कंठित है. मानसिक शांति, या दूसरे शब्दों में स्वस्थ मानसिक अवस्था, तभी पाई जा सकती है जब मन भगवान की प्रेममयी पारलौकिक सेवा में स्थित हो. भगवान के अंशों को भगवान की सेवा करने के लिए विशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जैसे किसी व्यवसायी दिग्गज के पुत्रों को प्रशासन के विशिष्ट अधिकारों से सश्क्त किया जाता है. आज्ञाकारी पुत्र कभी भी पिता की इच्छा के विरुद्ध नहीं जाते और इसलिए परिवार के प्रमुख के साथ एकचित्त होकर बहुत शांति से जीवन व्यतीत करते हैं. उसी प्रकार, भगवान के पिता होते हुए, सभी प्राणियों को, आज्ञाकारी पुत्रों के रूप में, पूर्ण रूप से और संतुष्टिकारी रूप से कर्तव्य और पिता की इच्छा का पालन करना चाहिए. यही मानसिकता मानव समाज के लिए तुरंत शांति और समृद्धि लाएगी.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 6- पाठ 6
भौतिक संसार में यौन जीवन को आवश्यकता से अधिक प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए.
यौनांग और प्रजनन का आनंद पारिवारिक बोझ की व्यग्रताओं का प्रतिकार करता है. व्यक्ति प्रजनन नहीं कर सकता, यदि प्रभु कृपा से जननांगों की सतह पर, एक परत, एक आनंद दायक तत्व नहीं होता. यह तत्व इतना प्रबल आनंद देता है कि वह पारिवारिक कष्ट की व्यग्रताओं का पूरी तरह प्रतिकार करता है. व्यक्ति इस आनंद दायक तत्व से इतना मोहित हो जाता है कि वह एक संतान पाकर संतुष्ट नहीं होता, बल्कि केवल इस आनंद दायक तत्व के लिए ही, उनका पालन-पोषण संबंधी बड़े जोखिम के बावजूद संतानों की संख्या बढ़ाता जाता है. हालांकि यह आनंद दायक तत्व मिथ्या नहीं है, क्योंकि वह भगवान की पारलौकिक काया से उत्पन्न होता है. दूसरे शब्दों में, आनंद दायक तत्व एक वास्तविकता है, लेकिन भौतिक संदूषण के कारण वह विकृति का रूप ले चुका है. भौतिक संसार में, भौतिक संपर्क के कारण यौन जीवन कई संकटों का कारण है. इसलिए, भौतिक संसार में योन जीवन को आवश्यकता से अधिक प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए. भौतिक दुनिया में भी संतान पैदा करने की आवश्यकता होती है, लेकिन बच्चों की ऐसी पीढ़ी को आध्यात्मिक मूल्यों के लिए पूरी जिम्मेदारी के साथ विकसित किया जाना चाहिए. जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों को भौतिक अस्तित्व के मानव रूप में महसूस किया जा सकता है, और मानव को परिवार नियोजन आध्यात्मिक मूल्यों के संदर्भ में अपनाना चाहिए, न कि अन्य संदर्भ में. गर्भ निरोधकों, आदि के उपयोग द्वारा परिवार सीमित रखने का तुच्छ रूप, भौतिक संदूषण का स्थूल प्रकार है. इन साधनों का उपयोग करने वाले भौतिकवादी आध्यात्मिक महत्व को जाने बिना, कृत्रिम साधनों से जननांगों पर परत की आनंद शक्ति का पूरी तरह से उपयोग करना चाहते हैं. और आध्यात्मिक मूल्यों के ज्ञान के बिना, कम बुद्धिमान व्यक्ति जननांगों के केवल भौतिक इंद्रिय सुख का उपयोग करने का प्रयास करता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", द्वितीय सर्ग, अध्याय 6 - पाठ 8
भगवान अवैयक्तिक नहीं हैं.
भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रति अवैयक्तिकता की धारणा की उपेक्षा करने के क्रम में, उनके पारलौकिक शरीर का शरीर वैज्ञानिक और शरीर रचना के विधान का व्यवस्थित विश्लेषण यहाँ दिया गया है. भगवान के शरीर (उनका ब्रम्हांडीय रूप) के उपलब्ध वर्णन से स्पष्ट है कि भगवान का रूप सामान्य क्षुद्र अवधारणा के रूपों से भिन्न है. किसी भी प्रसंग में, वे निराकार शून्य नहीं हैं. अज्ञान भगवान की पीठ है, और इसलिए मानव के कम बुद्धिमान वर्ग का अज्ञान भी उनकी शारीरिक अवधारणा से भिन्न नहीं है. चूँकि उनका शरीर उपस्थित सभी वस्तुओँ का परम पूर्ण है, व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे केवल अवैयक्तिक हैं. इसके उलट, भगवान का सटीक वर्णन कहता है कि भगवान अवैयक्तिक और व्यक्तित्व दोनों ही हैं. भगवान का परम व्यक्तित्व भगवान का मूल गुण है, और उनकी अवैयक्तिक दीप्ति और कुछ नहीं बल्कि उनके पारलौकिक शरीर का प्रतिबिंब है. जो इतने भाग्यशाली हैं जिन्हें भगवान को सम्मुख देखने का अवसर मिला है, उनके व्यक्तिगत गुणों का अनुभव कर सकते हैं, जबकि जो निराश हैं और जिन्होंने भगवान के अज्ञानता वाले पक्ष को धारण कर रखा है, या दूसरे शब्दों में, जिन्होंने भगवान को पीठ की ओर से देखा है, वे उन्हें उनके अवैयक्ति गुण में अनुभव करते हैं.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 6- पाठ 10
परम भगवान की ऊर्जाएँ.
परम भगवान की ऊर्जा पारलौकिक और आध्यात्मिक है, और जीव उसी ऊर्जा के भाग हैं. यहाँ भगवान को तीन ऊर्जाओं (त्रि-शक्ति-धर्क) द्वारा सर्वशक्तिमान बताया गया है. अतः प्राथमिक रूप से उनकी तीन ऊर्जाएँ आंतरिक (परा), गौण (क्षेत्रज्ञ) और बाह्य (अविद्या) हैं. परा ऊर्जा वास्तव में स्वयं भगवान की ऊर्जा (आंतरिक ऊर्जा) है; क्षेत्रज्ञा ऊर्जा जीव (गौण ऊर्जा) है, और अविद्या ऊर्जा भौतिक संसार, या माया है. इसे अविद्या, या अज्ञान कहते हैं, क्योंकि इस भौतिक ऊर्जा के प्रभाव में जीव अपनी वास्तविक स्थिति और परम भगवान के साथ अपने संबंध को भूल जाते हैं.
आंतरिक ऊर्जा (परा) तीन आध्यात्मिक स्थितियों–संवित (“चित्त” ज्ञान,योगमाया), संधिनी (“सत” अस्तित्व, भगवान बलराम) और आल्हादिनी (“आनंद”, श्री राधा). दूसरे शब्दों में, वह अस्तित्व, ज्ञान और आनंद के पूर्ण प्रकटन हैं. भगवान की संधिनी ऊर्जा के संपूर्ण प्रकटन में से, एक चौथाई भौतिक संसार में प्रदर्शित होती है, और तीन चौथाई आध्यात्मिक संसार में प्रदर्शित होती है.
उसी समान, बाह्य ऊर्जा (“माया” दुर्गा देवी) सत्, काम और अज्ञान की तीन अवस्थाओं में प्रदर्शित होती है.
गौण ऊर्जा, या जीव, भी आध्यात्मिक है (प्रकृतिम् विधि मे परम), लेकिन जीव कभी भी भगवान के बराबर नहीं होते. भगवान निरस्त-सम्य-अतिशय हैं; दूसरे शब्दों में, कोई भी परम भगवान के बराबर या उनसे मह्त्तर नहीं है. इसलिए जीव, भगवान ब्रम्हा और भगवान शिव जैसे व्यक्तित्वों सहित, सभी भगवान से निम्नतर हैं.
भौतिक संसार में भी, उनके विष्णु के अमर रूप में, वे ब्रम्हा और शिव सहित, देवताओं के सभी प्रकरणों का पालन और नियंत्रण करते हैं. निष्कर्ष यह है कि जीव भगवान की किसी एक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं, और परम के अतिसूक्ष्म भाग के रूप में उन्हें जीव कहा जाता है. भौतिक संसार में अस्तित्व, ज्ञान और आनंद का ऐसा बोध बहुत कम प्रदर्शित होता है, और सभी जीव, जो भगवान के सूक्ष्म भाग हैं, अस्तित्व, ज्ञान और आनंद की इस चेतना का भोग करने के लिए स्वतंत्र अवस्था में बहुत सूक्ष्म रूप में योग्य हैं, जबकि भौतिक अस्तित्व के सीमित स्तर पर वे बहुत कठिनाई से समझ सकते हैं कि जीवन की वास्तविक, अस्तित्वमान, पहचान योग्य और शुद्ध प्रसन्नता क्या है. स्वतंत्र आत्माएँ, जो भौतिक संसार में रहने वाली आत्माओं से कहीं बड़ी संख्या में अस्तित्वमान हैं, वे ही वास्तविकता में उपरोक्त वर्णित भगवान की सन्धिनी, सम्वित और आल्हादिनी ऊर्जाओं की शक्ति का अनुभव वृद्धावस्था और रुग्णता से मृत्युहीनता, निर्भयता और स्वतंत्रता के संदर्भ में कर सकती हैं.
स्रोत: ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण), “भगवान चैतन्य की शिक्षाएं, स्वर्ण अवतार”, पृष्ठ 246
एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण), “श्रीमद भागवतम”, दूसरा सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 19 और 32
जब प्रत्येक वस्तु और कुछ नहीं, स्वयं भगवान ही है, तो हमें भगवान की पूजा क्यों करना चाहिए?
अवैयक्तिकतावादी बहस करते हैं कि भगवान की पूजा करना व्यर्थ है जब सभी वस्तुएँ स्वयं भगवान ही हैं. वयक्तिवादी, हालाँकि, भगवान की पूजा, भगवान के शारीरिक अंगों से पैदा हुई सामग्री का उपयोग करते हुए बहुत धन्य भाव से करते हैं. फल और फूल पृथ्वी के शरीर से उपलब्ध होते हैं, और तब भी समझदार भक्त द्वारा पृथ्वी से उत्पन्न सामग्री द्वारा ही धरती माँ की पूजा की जाती है. उसी प्रकार गंगा माँ की पूजा गंगा के ही पानी से की जाती है, और तब भी पूजक ऐसी पूजा के परिणाम का लाभ उठाता है. भगवान की पूजा भी भगवान के शारीरिक अंगों से उत्पन्न सामग्री से की जाती है, और तब भी पूजक, जो स्वयं भी भगवान का अंश है, भगवान की आध्यात्मिक सेवा का लाभ प्राप्त करता है. जबकि अव्यक्तिवादी त्रुटिवश निष्कर्ष निकालता है कि स्वयं वही भगवान है, व्यक्तिवादी, महान आभार के साथ, आध्यात्मिक सेवा में भगवान की पूजा करता है, अच्छी तरह से यह जानते हुए कि भगवान से भिन्न कुछ भी नहीं है. भक्त इसलिए भगवान की सेवा में सब कुछ लगा देने का प्रयास करता है क्योंकि वह जानता है कि सब कुछ भगवान की संपत्ति है और कोई भी व्यक्ति किसी भी वस्तु को स्वयं अपनी होने का दावा नहीं कर सकता. पवित्रता की यह आदर्श अवधारणा उपासक को उसकी प्रेममयी सेवा में लगे रहने में मदद करती है, जबकि झूठे रूप से फंसाया गया अवैयक्तिकतावादी, भगवान द्वारा मान्यता न पाकर हमेशा के लिए अभक्त बना रह जाता है.
स्रोत :अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 6- पाठ 23
इस संसार में शांति कैसे पाई जा सकती है?
सामान्यतः लोग मानसिक शांति या संसार में शांति के लिए चिंतित रहते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि संसार में शांति का ऐसा स्तर कैसे अर्जित किया जाए. विश्व में इस तरह की शांति बलिदान के निषपादन और तपस्या के अभ्यास से प्राप्त होती है. भगवद-गीता (5.29) में निम्नलिखित विधि का सुझाव दिया गया है:
भोक्तारम यज्ञ-तपसम सर्व-लोक-महेश्वरम
सुहृदम सर्व-भूतानाम ज्ञात्व मम शांतिम् रचति
“कर्म-योगी जानते हैं कि परम भगवान ही सभी भोगों व तपस्वी जीवन के वास्तविक भोगकर्ता और अनुरक्षक हैं. वे यह भी जानते हैं कि भगवान सभी ग्रहों के परम स्वामी हैं और सभी जीवों के वास्तविक मित्र हैं. पवित्र भक्तों के सहयोग से इस तरह का ज्ञान धीरे-धीरे कर्म-योगियों को भगवान के शुद्ध भक्तों में बदल देता है, और इस प्रकार वे भौतिक बंधन से मुक्त हो पाते हैं.”
भौतिक जगत के भीतर रहने वाले मूल प्राणी ब्रह्मा ने हमें त्याग का मार्ग सिखाया. “बलिदान” शब्द किसी अन्य के लिए स्वयं अपने हितों के समर्पण का अर्थ देता है. यही सब कर्मों की विधि है. प्रत्येक व्यक्ति या तो परिवार, समाज, समुदाय, देश या संपूर्ण मानव समाज के रूप में, दूसरों के लिए अपने हितों का त्याग करने में लगा हुआ है. लेकिन ऐसे बलिदानों की पूर्णता तब प्राप्त होती है जब उन्हें परम व्यक्तित्व, भगवान के लिए किया जाता है. क्योंकि भगवान ही सब कुछ के स्वामी हैं, क्योंकि भगवान सभी जीवों के मित्र हैं, और क्योंकि वे ही बलिदान करने वालों के पालक, और साथ ही बलिदान सामग्री के आपूर्तिकर्ता भी हैं, केवल वे ही और कोई नहीं है, जिसे सभी बलिदानों से संतुष्ट किया जाना चाहिए. पूरा संसार शिक्षा, सामाजिक उत्थान, आर्थिक विकास और मानव की स्थिति में सुधार के लिए योजनाओं की उन्नति के लिए ऊर्जा का त्याग करने में लगा हुआ है, लेकिन कोई भी भगवान के लिए बलिदान करने में रुचि नहीं रखता है, जैसाकि यह भगवद गीता में सुझाया गया है. इसलिए, संसार में कोई शांति नहीं है. यदि मनुष्य संसार में शांति चाहते हैं, तो उन्हें सर्वोच्च स्वामी और सभी के सखा के हित में बलिदान करना चाहिए.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 6- पाठ 28
स्त्रीगमन एक अनावश्यक बोझ है जो आत्म-ज्ञान को बाधित करता है.
जो कुछ भी है उसका स्रोत होने के नाते, भगवान सभी तपस्याओं और आत्म संयम के मूल हैं. आत्म-साक्षात्कार में सफलता प्राप्त करने के लिए ऋषियों द्वारा कठिन तपस्या की जाती है. मानव जीवन ब्रह्मचर्य के महान व्रत के साथ, ऐसी तपस्या के लिए ही है. तपस्या के कठोर जीवन में, स्त्रियों से जुड़ाव के लिए कोई स्थान नहीं है. और चूँकि मानव जीवन तपस्या के लिए है, आत्म-साक्षात्कार के लिए, सनातन-धर्म की प्रणाली या चार जातियों और जीवन के चार आश्रम के विचार की परिकल्पना के अनुसार, वास्तविक मानव सभ्यता, जीवन के तीन चरणों में स्त्री से कठोर अलगाव को निर्धारित करती है. क्रमिक सांस्कृतिक विकास के क्रम में, व्यक्ति के जीवन को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ जीवन, वानप्रस्थ और सन्यास. जीवन के पहले चरण के दौरान, पच्चीस वर्ष की आयु तक, एक पुरुष को किसी प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में ब्रह्मचारी के रूप में प्रशिक्षित किया जा सकता है ताकि वह समझ सके कि स्त्री भौतिक अस्तित्व में वास्तविक बाध्यकारी शक्ति है. यदि कोई सीमित जीवन के भौतिक बंधन से मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, तो उसे स्त्री के रूप के आकर्षण से मुक्त होना चाहिए. स्त्री या रूपवान लिंग, जीवों, विशेषकर मानवों के लिए आकर्षक सिद्धांत है, और पुरुष रूप आत्म-साक्षात्कार के लिए है. समस्त संसार स्त्री के आकर्षण के जाल में घूम रहा है, और जैसे ही कोई पुरुष महिला से संगम करता है, वह तुरंत भौतिक दासता की कसी हुई गाँठ का शिकार हो जाता है. आधिपत्य की झूठी भावना के नशे में, भौतिक संसार से उच्चतर रखने की इच्छा, विशेष रूप से पुरुष के स्त्री के समागम के ठीक बाद शुरू होती है. घर बनाने, धरती के स्वामित्व, संतान प्राप्ति और समाज में प्रमुख बनने की लालसाएँ, समुदाय और जन्म स्थान के लिए स्नेह, और संपत्ति की लालसा, जो छायाचित्र या दिवा स्वप्न होते हैं, मानव को उलझा देते हैं, और इसलिए वह जीवन के वास्तविक लक्ष्य, आत्म-साक्षात्कार की प्रगति में बाधित होता है. ब्रम्हचारी, या पाँच वर्ष की आयु को किसी बालक को, विशेषकर ऊँची जाति से, जैसे विद्वान माता-पिता से (ब्राम्हण), प्रशासी माता-पिता (क्षत्रिय), या व्यापारी या उत्पादनकर्ता माता-पिता (वैश्य), को पच्चीस वर्ष की आयु तक किसी प्रामाणिक गुरू या शिक्षक की देखरेख में, और कड़े अनुशासन में प्रशिक्षित किया जाता है. जिससे वह आजीविका के लिए विशिष्ट प्रशिक्षण लेने के साथ जीवन के मूल्यों को समझ पाता है. उसके बाद ब्रम्हचारी को घर जाने और गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने और उपयुक्त स्त्री से विवाह की अनुमति दी जाती है. किंतु ऐसे कई ब्रमह्चारी होते हैं जो गृहस्थ बनने के लिए घर नहीं जाते बल्कि स्त्रियों के साथ कोई भी संपर्क रखे बिना, नैष्ठिक- ब्रम्हचारियों का जीवन जारी रखते हैं. वे अच्छी तरह ये जानते हुए सन्यास आश्रम, या जीवन के त्यागमय जीवन व्यवस्था को स्वीकार करते हैं, कि स्त्रियों से संसर्ग एक अनावश्यक बोझ है जो आत्म-साक्षात्कार में बाधा पहुँचाता है. चूंकि जीवन की एक विशिष्ट अवस्था में यौन इच्छा बहुत प्रबल होती है, इसलिए गुरु ब्रह्मचारी को विवाह करने की अनुमति दे सकता है; यह लाइसेंस एसे ब्रह्मचारी को दिया जाता है, जो नैष्ठिक-ब्रह्मचर्य के मार्ग को जारी रखने में असमर्थ होता है, और इस तरह के भेद, प्रामाणिक गुरु के लिए संभव होते हैं. एक तथाकथित परिवार नियोजन कार्यक्रम की आवश्यकता होती है. वह गृहस्थ, जो ब्रह्मचर्य के गहन प्रशिक्षण के बाद, स्त्रियों से पौराणिक प्रतिबंधों के तहत ही संबंध रखता है, वह बिल्लियों और कुत्तों के समान घरेलू नहीं हो सकता. ऐसे गृहस्थ को, वानप्रस्थ के रूप में स्त्री संबंध से निवृत्त होना होता है, उसे स्त्री संबंध रखे बिना अकेले रहने की शिक्षा दी जाती है. प्रशिक्षण पूर्ण हो जाने पर, वही निवृत्त गृहस्थ एक सन्यासी बन जाता है, जो स्त्री से, बल्कि अपनी ब्याहता पत्नी से भी बिलकुल अलग रहता है. स्त्रियों से असंबद्धता की संपूर्ण योजना का अध्ययन करते हुए, ऐसा लगता है कि स्त्री आत्म-साक्षात्कार के लिए रुकावट है, और भगवान स्त्री से असंगति के जीवन व्रत के सिद्धांत की शिक्षा के लिए नारायण के रूप में प्रकट हुए हैं. दृढ़ ब्रम्हचारियों के सादे जीवन से ईर्ष्या रखते हुए, देवता कामदेव के दूत भेज कर उनके व्रत को भंग करने का प्रयास करते रहते हैं. लेकिन भगवान के संदर्भ में, यह प्रयास असफल हुआ क्योंकि जब आकाशीय सुंदरियों ने यह देखा कि भगवान अपने रहस्यमयी आंतरिक पौरुष से ऐसी असंख्य सुंदरियों को पैदा कर सकते हैं और इसलिए बाहरी रूप से किसी के भी द्वारा आकर्षित किए जाने की आवश्यकता नहीं थी. एक आम कहावत है कि एक हलवाई कभी भी मीठे से आकर्षित नहीं होता है. हलवाई, जो हमेशा मिठाइयाँ बनाता है, उन्हें खाने की बहुत कम इच्छा रखता है; इसी तरह, भगवान, उनकी आनंद सामर्थ्य शक्तियों द्वारा, असंख्य आध्यात्मिक सुंदरियों को पैदा कर सकते हैं और भौतिक रचना के झूठे सौंदर्य से तनिक भी आकर्षित नहीं होते हैं. जो नहीं जानता वह मूर्खतापूर्ण रूप से यह आरोप लगाता है कि भगवान कृष्ण ने वृंदावन में अपनी रास-लीलाओं में स्त्रियों का भोग किया है, या अपनी सोलह हज़ार विवाहित रानियों के साथ भोग किया है.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", द्वितीय सर्ग, अध्याय 7 - पाठ 6
भगवान के परम व्यक्तित्व में न तो वासना होती है न ही क्रोध.
जब भगवान शिव घोर तप के साथ ध्यान में लीन थे, तब कामदेव, वासना के देवता, ने उनपर अपना काम बाण चलाया. तब भगवान शिव ने उन पर क्रोधित होकर, उन पर दृष्टि डाली, और उसी क्षण कामदेव का शरीर नष्ट हो गया. यद्यपि भगवान शिव बहुत शक्तिशाली थे, लेकिन वे ऐसे क्रोध के प्रभाव से मुक्त होने में असमर्थ थे. लेकिन भगवान विष्णु के व्यवहार में ऐसे क्रोध की घटना किसी भी समय नहीं होती. इसके उलट, भृगु मुनि ने जानबूझ कर भगवान की छाती पर लात मारकर उनकी सहनशीलता की परीक्षा ली थी, लेकिन भृगु मुनि पर क्रोधित होने के स्थान पर भगवान ने उनसे यह कहते हुए क्षमा मांगी, कि भृगु मुनि के पाँव में बहुत चोट लगी होगी क्योंकि भगवान की छाती बहुत कठोर है. भगवान के शरीर पर भृगुपाद का चिन्ह सहनशीलता के प्रतीक के रूप में है. इसलिए भगवान, किसी भी प्रकार के क्रोध से प्रभावित नहीं होते, अतः वासना के लिए कोई स्थान कैसे हो सकता है, जो क्रोध से कम शक्तिशाली होती है? जब वासना या कामना की पूर्ति नहीं होती, तब क्रोध प्रकट होता है, लेकिन क्रोध की अनुपस्थिति में वासना के लिए स्थान कैसे हो सकता है? भगवान को आप्त-काम के नाम से जाना जाता है, या वह जो अपनी लिप्साओं की पूर्ति स्वयं ही कर सकते हैं. भगवान असीमित हैं, औऱ इसलिए उनकी कामनाएँ भी असीमित हैं. भगवान नहीं बल्कि सभी जीव हर प्रकार से सीमित हैं; फिर कैसे कोई सीमित व्यक्ति असीमित की कामना की पूर्ति कर सकता है? निष्कर्ष यह है कि भगवान के परम व्यक्तित्व में न तो वासना है और न ही क्रोध है, और यहाँ तक कि अगर कभी-कभी परम द्वारा वासना और क्रोध का प्रदर्शन किया जाए, तो इसे परम आशीर्वाद समझना चाहिए.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 7- पाठ 7
भगवान रामचंद्र छः एश्वर्यों के साथ एक पूर्ण अवतार हैं.
भगवान राम भगवान के श्रेष्ठतम व्यक्तित्व हैं, और उनके भाई, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न, उनके समग्र विस्तार हैं. रामायण के कई भद्दे और अज्ञानी टीकाकार हैं जो भगवान रामचंद्र के छोटे भाइयों को साधारण जीवों के रूप में प्रस्तुत करते हैं. लेकिन यहाँ परम भगवान के विज्ञान पर सबसे प्रामाणिक ग्रंथ में, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उनके भाई उनके समग्र विस्तार थे. मूल रूप से भगवान रामचंद्र वासुदेव के अवतार हैं, लक्ष्मण शंकर्षण के अवतार हैं, भरत प्रद्युम्न के अवतार हैं, और शत्रुघ्न अनिरुद्ध के अवतार हैं, भगवान के परम व्यक्तित्व के विस्तार हैं. लक्ष्मीजी सीता भगवान की आंतरिक शक्ति हैं और वे न तो एक साधारण महिला हैं और न ही दुर्गा का बाह्य शक्ति अवतार. दुर्गा भगवान की बाह्य शक्ति हैं, और उनका संबंध भगवान शिव से है. जैसा कि भगवद-गीता (4.7) में कहा गया है, जब तथ्यात्मक धर्म के निर्वहन में विसंगतियां होती हैं तब भगवान प्रकट होते हैं. उन्हीं परिस्थितियों में, भगवान रामचंद्र भी, अपने भाइयों के साथ, जो भगवान की आंतरिक शक्ति का विस्तार हैं, और लक्ष्मीजी सीतादेवी, प्रकट हुए. भगवान रामचंद्र को उनके पिता, महाराजा दशरथ ने अटपटी परिस्थितियों में घर छोड़ कर वन जाने का आदेश दिया था, और भगवान ने, अपने पिता के आदर्श पुत्र के रूप में, अयोध्या का राजा घोषित किए जाने के अवसर पर भी, उस आदेश का पालन किया था. उनके छोटे भाइयों में से, लक्ष्मणजी उनके साथ जाने के इच्छुक थे, और इसीलिए उनकी शाश्वत पत्नी, सीताजी भी उनके साथ जाने की इच्छा रखती थीं. भगवान ने दोनों को सहमति दी, और सभी ने साथ में, चौदह वर्षों तक दंडकारण्य वन में रहने के लिए प्रवेश किया. उनके वनवास के दौरान रामचंद्र और रावण के बीच लड़ाई हुई, और रावण ने भगवान की पत्नी, सीताजी का अपहरण कर लिया. उसके समस्त राज्य और परिवार सहित महाशक्तिशाली रावण पर विजय के साथ यह लड़ाई समाप्त हुई. सीताजी जो लक्ष्मीजी, या भाग्य की देवी हैं, लेकिन उनका भोग कोई भी जीव नहीं कर सकता. जीवों द्वारा उनकी पूजा उनके पति श्री रामचंद्र के साथ की जानी चाहिए. रावण जैसा भौतिकवादी व्यक्ति इस महान सत्य को नहीं समझता, लेकिन इसके विपरीत वह सीतादेवी को राम के संरक्षण से छीनना चाहता है और इस प्रकार अपने लिए महान दुखों को उत्पन्न कर लेता है. भौतिकवादी, जो एश्वर्य औऱ भौतिक समृद्धि के पीछे लगे होते हैं, रामायण से सीख सकते हैं कि परम भगवान की सर्वोच्चता को स्वीकार किए बिना भगवान की प्रकृति का शोषण करने की नीति रावण की नीति है. रावण भौतिक रूप से बहुत उन्नत था, इतना कि उसने अपने राज्य लंका को शुद्ध सोने या पूर्ण भौतिक संपदा में बदल दिया था. लेकिन चूँकि उसने भगवान रामचंद्र के वर्चस्व को नहीं पहचाना और उनकी पत्नी, सीता का हरण करके उनकी अवहेलना की, रावण मारा गया, और उसका सारा एश्वर्य और शक्ति नष्ट हो गए. भगवान रामचंद्र छः ऐश्वर्यों वाले एक पूर्ण अवतार हैं, और इसलिए वे सभी एश्वर्यों के स्वामी हैं.
स्रोत : अभय भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 7- पाठ 23
वैदिक पारलौकिक ज्ञान सीधे परम भगवान के व्यक्तित्व से आता है.
तर्क किया जा सकता है कि शुकदेव स्वामी ही पारलौकिक ज्ञान के एकमात्र विद्वान नहीं हैं क्योंकि बहुत से अन्य संत और उनके अनुयायी भी हैं. व्यासदेव के समकालीन या उनके भी पहले बहुत से अन्य महान ऋषिहुए हैं जैसे गौतम, कणाद, जैमिनी, कपिल और अष्टावक्र, और उन सभी ने अपना स्वयं का दार्शनिक पथ प्रस्तुत किया है. पतंजलि भी उनमें से एक हैं, और इन सभी छः महान ऋषियों का विचार करने का अपना स्वयं का ढंग था, बिलकुल आधुनिक दार्शनिकों और विचारकों के समान. उपर्युक्त प्रसिद्ध दार्शनिकों द्वारा बताए गए छह दार्शनिक मार्गों और श्रीमद्-भागवत में प्रस्तुत शुकदेव गोस्वामी के बताए मार्ग के बीच का अंतर, यह है कि उपरोक्त सभी छः ऋषि अपनी-अपनी सोच के अनुसार तथ्यों को बताते हैं, किंतु शुकदेव गोस्वामी सीधे ब्रह्माजी द्वारा आने वाला ज्ञान बताते हैं, जिन्हें आत्म-भूः, या परम भगवान के सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व द्वारा जन्मा और शिक्षित किया गया जाना जाता है.
वैदिक पारलौकिक ज्ञान सीधे परम भगवान के व्यक्तित्व से आता है. उनकी दया से, ब्रह्मांड के पहले प्राणी ब्रम्हा, को ज्ञान प्राप्त हुआ, और ब्रह्मा जी से, नारद को ज्ञान प्राप्त हुआ, और नारद से, व्यास को प्राप्त हुआ था. शुकदेव गोस्वामी को अपने पिता व्यासदेव से सीधे इस पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति हुई. इस प्रकार, शिष्य उत्तराधिकार की श्रृंखला से प्राप्त किया जा रहा ज्ञान ही परिपूर्ण होता है. व्यक्ति पूर्णता में आध्यात्मिक गुरु तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि वह उसे शिष्य उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त नहीं होता. यही पारलौकिक ज्ञान प्राप्त करने का रहस्य है. ऊपर वर्णित छः महान ऋषि महान विचारक हो सकते हैं, लेकिन मानसिक अटकलों द्वारा उनका ज्ञान परिपूर्ण नहीं है. एक अनुभववादी दार्शनिक एक दार्शनिक थीसिस प्रस्तुत करने में सिद्ध हो सकता है, लेकिन ऐसा ज्ञान कभी भी अचूक नहीं हो सकता है क्योंकि यह एक अविकसित मष्तिष्क द्वारा निर्मित होता है. इतने महान ऋषियों का शिष्य उत्तराधिकार भी है, लेकिन वे मान्य नहीं हैं क्योंकि वह ज्ञान सीधे स्वतंत्र परम भगवान के व्यक्तित्व, नारायण से नहीं आ रहा है. नारायण के अतिरिक्त कोई भी आत्मनिर्भर नहीं है; इसलिए किसी का भी ज्ञान संपूर्ण नहीं हो सकता, क्योंकि सभी का ज्ञान अस्थिर मस्तिष्क पर निर्भर होता है. मन भौतिक है और इसलिए भौतिक विचारकों द्वारा प्रस्तुत ज्ञान कभी भी पारलौकिक नहीं है और संपूर्ण नहीं हो सकता. साधारण दार्शनिक, स्वयं असंपूर्ण होते हुए भी, अन्य दार्शनिकों से सहमत नहीं होते क्योंकि साधारण दार्शनिक किसी भी तरह दार्शनिक नहीं हो सकता जब तक कि वह स्वयं अपना सिद्धांत प्रस्तुत न करे. महाराज परीक्षित जैसे बुद्धिमान व्यक्ति एसे विचारकों की मानसिक अटकलों को नहीं मानते, चाहे वे कितने भी महान हों, बल्कि वे शुकदेव गोस्वामी जैसे विद्वानों की बात सुनते हैं, जो परंपरा प्रणाली में परम भगवान के व्यक्तित्व से अभिन्न हैं, जिसका विशेष उल्लेख भगवद्-गीता में हुआ है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 8 - पाठ 25
आध्यात्मिक संसार के लक्षण.
पारलौकिक संसार या वैकुंठ का वातावरण पारलौकिक विशेषताओं से संपन्न है. ये पारलौकिक गुण, जैसे भगवान की भक्तिमय सेवा के माध्यम से प्रकट होते हैं, अज्ञान, वासना और अच्छाई के साधारण गुणों से भिन्न होते हैं. ऐसे गुण मनुष्यों के अ-भक्त वर्ग द्वारा अर्जित किए जाने योग्य नहीं हैं. पद्म पुराण, उत्तर काण्ड में, कहा गया है कि भगवान की रचना का एक चौथाई भाग के परे तीन चौथाई प्रकटन है. भौतिक उत्पत्ति और आध्यात्मिक उत्पत्ति के बीच विराज नदी एक महीन रेखा है, औऱ विराज के पार, जो कि भगवान के शरीर के पसीने का पारलौकिक प्रवाह होता है, भगवान की रचना का तीन चौथाई प्रकटन है. यह भाग शाश्वत, चिरस्थायी, बिना किसी गिरावट के और असीमित होता है. सांख्य-कौमुदी में कहा गया है कि विशुद्ध अच्छाई या उत्कृष्टता भौतिक स्थिति से ठीक विपरीत होती है. वहाँ सभी जीव शाश्वत रूप से संबंधित होते हैं, और भगवान ही मुख्य और प्रथम जीव हैं. अगम पुराण में भी, पारलौकिक धाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है: वहाँ के संबंधित सदस्य भगवान की रचना में कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं, और ऐसी रचना की कोई सीमा नहीं है, विशेषकर तीन चौथाई परिमाण के क्षेत्र में. चूँकि उस क्षेत्र का स्वभाव असीमित है, वहाँ ऐसी संगति का कोई इतिहास नहीं है, न ही उसका कोई अंत है. निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अज्ञानता और वासना के सांसारिक गुणों की पूर्ण अनुपस्थिति के कारण, सृजन या विनाश का कोई प्रश्न ही नहीं है. भौतिक संसार में सब कुछ रचा जाता है और विनष्ट किया जाता है, और सृजन और विनाश के बीच जीवन की अवधि अस्थायी है. पारलौकिक प्रभुता में कोई रचना और कोई विनाश नहीं होता है, औऱ इस प्रकार जीवन की अवधि असीमित रूप से अनन्त है. दूसरे शब्दों में, पारलौकिक संसार में सब कुछ चिरस्थायी है, औऱ क्षय के बिना ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है. चूँकि वहाँ कोई क्षय नहीं है, वहाँ समय की अवधारणा में कोई भूत, वर्तमान और भविष्य नहीं है. श्लोक में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि समय का प्रभाव उसकी अनुपस्थिति से स्पष्ट है. संपूर्ण भौतिक अस्तित्व उस तत्व की क्रिया और प्रतिक्रिया द्वारा प्रकट होता है जो भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में समय के प्रभाव को महत्वपूर्ण बना देता है. वहाँ कारण और प्रभाव की ऐसी कोई क्रिया और प्रतिक्रिया नहीं होती है, इसलिए जन्म, विकास, अस्तित्व, रूपांतरण, क्षय और विनाश का चक्र- छह भौतिक परिवर्तन – वहां अस्तित्व में नहीं होते हैं. वह यहाँ भौतिक जगत में अनुभव किए जाने वाले भ्रम के बिना, भगवान की ऊर्जा का विशुद्ध प्रकटन है. वैकुंठ का संपूर्ण अस्तित्व प्रकट करता है कि हर कोई भगवान का अनुयायी है. भगवान वहाँ के प्रमुख अग्रगण्य हैं, नेतृत्व की किसी भी प्रतिद्वंदिता के बिना, और सामान्यतः लोग भगवान के ही अनुयायी होते हैं. वेदों में इसकी पुष्टि की गई है, इसलिए, यह कि भगवान ही प्रमुख अग्रणी हैं और अन्य सभी जीव उनके अधीनस्थ हैं, क्योंकि केवल भगवान ही अन्य सभी जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं. वैकुंठलोक में सभी निवासी आध्यात्मिक शारीरिक गुणों से युक्त व्यक्तित्व होते हैं जो भौतिक संसार में नहीं पाए जाते. हम श्रीमद्-भागवतम जैसे प्रकट ग्रंथों में इसका वर्णन पा सकते हैं. शास्त्रों में पारलौकिकता के अवैयक्तिक विवरणों से संकेत मिलता है कि वैकुंठलोक में शारीरिक विशेषताएँ कभी भी ब्रह्मांड के किसी भी भाग में नहीं दिखाई देती हैं. जैसे किसी भी विशिष्ट ग्रह के विभिन्न स्थानों में विभिन्न शारीरिक विशेषताएँ होती हैं, या जैसे विभिन्न ग्रहों में शरीरों के बीच विभिन्न शारीरिक विशेषताएँ होती हैं, उसी प्रकार वैकुंठलोक में निवासियों की शारीरिक विशेषताएँ भौतिक ब्रम्हांड में पाई जाने वाली विशेषताओं से पूर्ण भिन्न होती हैं. उदाहरण के लिए, चार भुजाएँ इस संसार में पाए जाने वाली दो भुजाओं से भिन्न होती हैं. ऐसा लगता है कि वैकुंठ ग्रह में अनोखी चमक वाले वायुयान भी हैं, और उनमें विद्युत के समान अनोखे आकाशीय सौंदर्य वाली स्त्रियों के साथ भगवान के महान भक्त बैठे होते हैं. जैसे वहाँ वायुयान हैं, इसलिए वहाँ वायुयान जैसे विभिन्न प्रकार के वाहन भी होंगे, लेकिन संभवतः वे मानव चलित यंत्र नहीं होंगे, जैसा कि हम इस संसार में अनुभव करते हैं. चूँकि सब कुछ अनंत, आनंद और ज्ञान के समान प्रकृति वाला है, वायुयान और वाहन ब्राह्मण जैसे गुणों वाले होंगे. यद्यपि वहाँ ब्राम्हण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता, किसी को त्रुटिवश यह नहीं सोचना चाहिए कि वहाँ केवल शून्य है और कोई विविधता नहीं है. इस प्रकार विचार करना ज्ञान के अभाव के कारण ही है; अन्यथा किसी को भी ब्राम्हण में शून्यता की भ्रांति नहीं होती. जैसे वहाँ वायुयान, भद्र महिलाएँ और पुरुष होते हैं, इसलिए वहाँ नगर औऱ घर भी होंगे और ग्रह विशेष के अनुसार अन्य सभी चीज़ें भी होंगी. किसी को भी इस संसार की अपूर्णता का विचार पारलौकिक संसार तक नहीं ले जाना चाहिए और वातावरण की प्रकृति के बारे में उसका समय के प्रभाव से पूर्णतः स्वतंत्र होने के रूप में विचार नहीं करना चाहिए, जैसा कि पहले वर्णित किया गया है.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 9- पाठ 10, 11 व 13
आत्म बोध के लिए या इंद्रिय संतुष्टि के लिए तपस्या?
तपस्या दो प्रकार की होती है: एक इंद्रिय संतुष्टि के लिए और दूसरी आत्म-बोध के लिए. कई छद्म रहस्यवादी हैं जो स्वयं संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या से गुजरते हैं, और कुछ अन्य हैं जो भगवान की इंद्रियों की संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या करते हैं. उदाहरण के लिए, परमाणु हथियारों की खोज के लिए की गई तपस्या कभी भी भगवान को संतुष्ट नहीं करेगी क्योंकि ऐसी तपस्या कभी संतोषजनक नहीं होती. प्रकृति की अपनी विधि से, सभी को मृत्यु प्राप्त करना है, और यदि किसी की तपस्या से मृत्यु की ऐसी प्रक्रिया तेज हो जाती है, तो भगवान के लिए कोई संतुष्टि नहीं है. भगवान चाहते हैं कि उनका हर एक अंश परम भगवान के घर पहुँच कर अनंत जीवन और आनंद प्राप्त करे, और संपूर्ण भौतिक रचना इसी उद्देश्य के लिए है.ब्रह्मा ने उस उद्देश्य के लिए, अर्थात् सृष्टि की प्रक्रिया को विनियमित करने के लिए कठोर तपस्या की ताकि भगवान संतुष्ट हो सकें। इसलिए भगवान उनसे बहुत प्रसन्न थे, और इसके लिए ब्रह्मा को वैदिक ज्ञान से परिपूर्ण किया गया था. वैदिक ज्ञान का परम उद्देश्य भगवान को जानना है और किसी अन्य उद्देश्य के लिए ज्ञान के दुरुपयोग के लिए नहीं है. जो लोग इस उद्देश्य के लिए वैदिक ज्ञान का उपयोग नहीं करते हैं, उन्हें कुत-योगी या छद्म अनुभवातीतवादी के रूप में जाना जाता है, जो अपने जीवन को परोक्ष उद्देश्यों के साथ बिगाड़ लेते हैं. यदि व्यक्ति परम भगवान के पास, वापस घर लौटने की इच्छा रखता है तो वह भौतिक मायावी वैभव का आनंद नहीं ले सकता, जिसे भगवान की संगति में पारलौकिक आनंद की कोई जानकारी नहीं है, वह इस अस्थायी भौतिक सुख का आनंद लेना चाहता है. चैतन्य-चरितमृत में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति सचमुच भगवान को देखना चाहता है और साथ ही साथ इस भौतिक संसार का आनंद लेना चाहता है, तो उसे केवल मूर्ख माना जाता है. जो भौतिक भोग के लिए यहाँ भौतिक संसार में रहना चाहता है, उसे भगवान के शाश्वत साम्राज्य में प्रवेश करने से कुछ लेना-देन नहीं होता है. भगवान ऐसे मूर्ख भक्त का पक्ष वह सब छीन कर लेते हैं जो भी भौतिक संसार में उसके पास रहा हो. यदि भगवान का ऐसा मूर्ख भक्त अपनी स्थिति को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करता है, तो दयालु भगवान फिर से वह सब छीन लेते हैं जो भी उनके पास हो सकता है. भौतिक समृद्धि के संबंध में बार-बार असफलताओं से वह अपने परिवार और मित्रों के बीच बहुत अलोकप्रिय हो जाता है. भौतिक संसार में परिवार के सदस्य और मित्र ऐसे व्यक्तियों का सम्मान करते हैं जो किसी भी प्रकार से धन संचय करने में बहुत सफल होते हैं. इस प्रकार भगवान के मूर्ख भक्त को भगवान की कृपा से बलात् तपस्या में डाल दिया जाता है, और अंत में भक्त, भगवान की सेवा में रहते हुए संपूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाता है. इसलिए भगवान की भक्ति सेवा में तपस्या, या तो स्वैच्छिक रूप से प्रस्तुत करना या भगवान द्वारा विवश किया जाना, पूर्णता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, और अतः ऐसी तपस्या भगवान की आंतरिक शक्ति होती है. यद्यपि, व्यक्ति बिना पापों से संपूर्ण रूप से मुक्त हुए बिना भक्ति सेवा में संलग्न नहीं रह सकता. जैसा कि भगवद-गीता में कहा गया है, केवल वह व्यक्ति जो पापों की सभी प्रतिक्रियाओं से संपूर्ण रूप से मुक्त है, वही स्वयं को भगवान की भक्ति में संलग्न कर सकता है. ब्रह्माजी पापरहित थे, और इसलिए उन्होंने निष्ठापूर्वक भगवान के सुझाव का पालन किया, “तप तप”, और भगवान ने उनसे संतुष्ट होकर उन्हें मनोवांछित फल प्रदान किया. इसलिए केवल प्रेम और तपस्या ही साथ मिल कर भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, और इस प्रकार व्यक्ति उनकी पूर्ण दया को प्राप्त करने में सक्षम होता है. वे पापहीन को दिशा दिखाते हैं, और पापहीन भक्त जीवन की उच्चतम पूर्णता को प्राप्त करता है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 20 व 23
भगवान सभी के हृदय में साक्षी के रूप में स्थित हैं.
भगवद्-गीता पुष्टि करती है कि भगवान सभी के हृदय में साक्षी के रूप में स्थित हैं, और इस प्रकार वे स्वीकृति के सर्वोच्च निर्देशक हैं. निर्देशक कर्मफलों का भोगी नहीं होता, क्योंकि भगवान की स्वीकृति के बिना कोई भी भोग नहीं कर सकता. उदाहरण के लिए, किसी निषिद्ध क्षेत्र में कोई आदतन शराबी मद्यपान के निदेशक को अपना आवेदन प्रस्तुत करता है, और निदेशक उसके प्रसंग पर विचार करके, पीने के लिए केवल एक निर्दिष्ट मात्रा में मद्य की स्वीकृति देता है. उसी प्रकार, समस्त भौतिक संसार शराबियों से भरा है, इस अर्थ में कि प्रत्येक जीव के मन में आनंद लेने के लिए कुछ न कुछ हो, और हर कोई अपनी इच्छाओं की पूर्ति बहुत दृढ़ता से चाहता है. जीवों के प्रति बहुत दयालु होने के नाते, जैसा एक पिता पुत्र के लिए दयालु होता है, सर्वशक्तिमान भगवान, जीव की बचकानी संतुष्टि के लिए उसकी इच्छा को पूरा करते हैं. मन में ऐसी इच्छाओं के साथ, जीव वास्तव में आनंद नहीं लेता, बल्कि वह बिना लाभ के शारीरिक छलावों को पोषित करता है. शराबी को पीने से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता है, लेकिन चूँकि वह पीने की आदत का दास बन गया है और उससे बाहर निकलने की इच्छा नहीं करता है, दयालु भगवान उसे ऐसी इच्छाओं को पूरा करने के लिए सभी सुविधाएं देते हैं. अवैयक्तिक लोग सुझाव देते हैं कि व्यक्ति को इच्छा रहित होना चाहिए, और अन्य पूरी तरह से इच्छाओं को नष्ट करने की सुझाव देते हैं. यह असंभव है; कोई भी पूरी तरह से इच्छाओं का दमन नहीं कर सकता क्योंकि इच्छा करना जीवित होने का लक्षण है. बिना कामना के जीव मृत होगा, जो कि वह नहीं है. इसलिए, जीवन की परिस्थितियाँ और कामना साथ चलती हैं, कामना की पूर्णता को तब प्राप्त किया जा सकता है जब व्यक्ति भगवान की सेवा की इच्छा करता है और भगवान भी यही कामना करते हैं कि प्रत्येक जीव व्यक्तिगत इच्छाओं का दमन करे और उनकी इच्छाओँ के साथ सहयोग करे. यही भगवद गीता का अंतिम निर्देश है. ब्रह्माजी इस प्रस्ताव पर सहमत हुए, और इसलिए उन्हें रिक्त ब्रह्मांड में पीढ़ियों के निर्माण का उत्तरदायी पद दिया गया. इसलिए भगवान के साथ एकता में व्यक्ति की इच्छाओं का भगवान की इच्छाओं के साथ मेल होना शामिल होता है. इस प्रकार सभी इच्छाओं में पूर्णता आती है. सभी प्राणियों के हृदय में परमात्मा के रूप में भगवान, जानते हैं कि प्रत्येक प्राणी के मन में क्या है, और कोई भी अंतर में उपस्थित भगवान के ज्ञान के बिना कुछ भी नहीं कर सकता. अपनी श्रेष्ठ बुद्धि के द्वारा, भगवान सभी को अपनी इच्छाओं को पूर्ण सीमा तक पूरा करने का मौका देते हैं, और परिणामी प्रतिक्रिया भी भगवान द्वारा ही प्रदान की जाती है.
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 09- पाठ 25
मानव को शास्त्रों की सहायता से अपने जीवन की मूल स्थिति को पुनर्जीवित करने का अवसर दिया जाता है.
जैसा कि हमने कई बार चर्चा की है, दो प्रकार के जीव होते हैं. उनमें से अधिकतर सदैव मुक्त, या नित्य-मुक्त होते हैं, जबकि उनमें से कुछ सदैव बंधन में होते हैं. सदैव बाध्य आत्माओं में भौतिक प्रकृति पर स्वामित्व की मानसिकता विकसित करने की प्रवृत्ति पाई जाती है, और इसलिए नित्य-बाध्य आत्माओं को दो प्रकार की सुविधा देने के लिए भौतिक लौकिक सृजन उद्घाटित किया जाता है. एक सुविधा यह है कि बाध्य आत्मा ब्रह्मांडीय रचना पर प्रभुता करने की अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य कर सकती है, और दूसरी सुविधा बाधित आत्मा को परम भगवान तक वापस आने का अवसर देती है. इसलिए ब्रह्मांडीय प्रकटन के समापन के बाद, अधिकांश बाधित आत्माएं, अगली रचना में फिर से उत्पन्न किए जाने के लिए परम भगवान के महा-विष्णु व्यक्तित्व के अस्तित्व में विलीन हो जाती हैं, जो अपनी रहस्यमयी निद्रा में लेटे हुए हैं. लेकिन कुछ बाधित आत्माएं, जो वैदिक साहित्य के रूप में पारलौकिक वाणी का पालन करती हैं और इस प्रकार परम भगवान तक वापस जाने में सक्षम होती हैं, सीमित स्थूल और सूक्ष्म भौतिक शरीरों को छोड़ने के बाद आध्यात्मिक और मूल शरीर प्राप्त करती हैं. भौतिक बाधित शरीर जीवों के परम भगवान से संबंध की विस्मृति के कारण विकसित होते हैं, और लौकिक प्रकटन के दौरान, बाधित आत्माओं को शास्त्रों की सहायता से अपने जीवन की मूल स्थिति को पुनर्जीवित करने का अवसर दिया जाता है, जिन्हें परम भगवान द्वारा अपने विभिन्न अवतारों में दयापूर्वक संकलित किया गया है. ऐसे पारलौकिक साहित्य को पढ़ने या सुनने से व्यक्ति को भौतिक अस्तित्व की बाध्यकारी दशा में भी मुक्ति मिल जाती है. समस्त वैदिक साहित्य परम भगवान के व्यक्तित्व की आध्यात्मिक सेवा पर लक्ष्य करता है, और जैसे ही कोई इस बिंदु पर स्थिर हो जाता है, वह तुरंत बाधित जीवन से मुक्त हो जाता है. भौतिक स्थूलता और सूक्ष्म रूप बस बाधित आत्मा के अज्ञान के कारण ही होते हैं और जैसे ही वह भगवान की आध्यात्मिक सेवा में स्थिर होता है, वह बाधित अवस्था से मुक्त होने की योग्यता पा लेता है. परम भगवान के सभी मनभावन हास्य के स्रोत होने के नाते यह आध्यात्मिक सेवा उनके लिए पारलौकिक आकर्षण होती है. प्रत्येक व्यक्ति आनंद के लिए हास्य की खोज में है, किंतु सभी आकर्षणों के स्रोत को नहीं जानता (रसो वै सह रसम ह्य एवयं लब्धवानंद भवति). वैदिक ऋचाएँ सभी को समस्त आनंद के परम स्रोत की सूचना देती हैं; परम भगवान का व्यक्तित्व सभी सुखों का असीमित स्रोत है, और श्रीमद्-भागवतम् जैसे साहित्य के माध्यम से इस सूचना को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त भाग्यशाली है वह भगवान के राज्य में अपने लिए उचित स्थान प्राप्त करने के लिए स्थायी रूप से मुक्त हो जाता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 10 - पाठ 6
मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनुकूल संतति का निर्माण करके व्यक्ति भगवान की सेवा कर सकते हैं.
बाधित आत्मा के लिए स्वर्गीय आनंद यौन सुख है, और यह आनंद जननांगों द्वारा चखा जाता है. स्त्री यौन सुख की वस्तु होती है, और यौन सुख की अनुभूति और स्त्री दोनों को प्रजापति द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जो प्रभु के जननांगों के नियंत्रण में हैं. निर्वैयक्तिकवादी व्यक्ति को इस छंद से पता होना चाहिए कि भगवान निर्वैयक्तिक नहीं हैं, क्योंकि उनके पास उनके जननांग हैं, जिस पर काम क्रीड़ा की सभी सुखदायक वस्तुएँ निर्भर करती हैं. यदि संभोग के माध्यम से स्वर्गीय अमृत का कोई स्वाद नहीं होता, तो बच्चों का पालन पोषण करने के लिए किसी भी व्यक्ति ने कष्ट न उठाया होता. यह भौतिक संसार बाध्य आत्माओं को घर वापस जाने, परम भगवान तक वापस जाने के लिए कायाकल्प का मौका देने के लिए बनाया गया है, और इसलिए सृजन के उद्देश्य के लिए जीवों की पीढ़ी आवश्यक है. इस तरह की कार्रवाई के लिए यौन सुख एक प्रेरणा है, और इस तरह व्यक्ति ऐसे यौन सुख के कार्य में भी भगवान की भी सेवा कर सकता है. यह सेवा तब मानी जाती है जब ऐसे यौन सुख से पैदा हुई संतानों को भगवान की चेतना की उचित शिक्षा दी जाती है. भौतिक सृजन का संपूर्ण विचार प्राणी की ईश्वर चेतना को पुनर्जीवित करना है. मानव के अतिरिक्त जीवन के अन्य रूपों में, यौन सुख प्रमुख होता है जिसमें भगवान के कार्य के लिए सेवा का कोई भाव नहीं होता. लेकिन जीवन के मानव रूप में बाध्य आत्मा मोक्ष की प्राप्ति के लिए उपयुक्त संतति पैदा करके भगवान को सेवा प्रदान कर सकती है. व्यक्ति सैकड़ों संताने पैदा कर सकता है और संभोग का स्वर्गीय आनंद ले सकता है, बशर्ते वह संतानों को भगवान की चेतना की शिक्षा देने में सक्षम हो. अन्यथा संतान प्राप्त करना शूकर के स्तर का है. बल्कि, शूकर मानव से अधिक निपुण है क्योंकि शूकर एक ही बार में दर्जन भर बच्चे पैदा कर सकता है, जबकि मनुष्य एक बार में केवल एक संतान को जन्म दे सकता है. अतः सदैव यह याद रखना चाहिए कि जननांग, यौन सुख, स्त्री और संतान सभी का संबंध भगवान की सेवा से है, और जो परम भगवान की सेवा में इस संबंध को भूल जाता है वह प्रकृति के नियमों द्वारा भौतिक अस्तित्व के तीन गुना दुखों का भागी बन जाता है. यहाँ तक कि कुत्ते के शरीर में भी यौन सुख की अनुभूति होती है, लेकिन भगवान चेतना की कोई अनुभूति नहीं होती है. भगवान की चेतना की धारणा के द्वारा ही जीवन का मानव रूप कुत्ते से अलग होता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", द्वितीय सर्ग, अध्याय 10 - पाठ 26
ब्रम्ह-संप्रदाय से शिष्य उत्तराधिकार.
ब्रह्मा परम भगवान के व्यक्तित्व से वैदिक ज्ञान के प्रत्यक्ष प्राप्तकर्ता हैं, और ब्रम्हा के शिष्यत्व में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने वाले किसी भी व्यक्ति को इस जीवन में प्रसिद्धि और अगले जीवन में मुक्ति मिलना अवश्यंभावी है. ब्रह्मा से शिष्य उत्तराधिकार को ब्रह्म-संप्रदाय कहा जाता है, और यह इस प्रकार है: ब्रम्हा, नारद, व्यास, माधव मुनि (पूर्णप्रज्ञ), पद्मनाभ, नरहरि, माधव, अक्षोभ्य, जयतीर्थ, ज्ञानसिंधु, दयानिधि, विद्यानिधि, राजेंद्र, जयधर्म, पुरुषोत्तम, ब्राह्मण्यतीर्थ, व्यासतीर्थ, लक्ष्मीपति, माधवेंद्र पुरी, ईश्वर पुरी, श्री चैतन्य महाप्रभु, स्वरूप दामोदर और श्री रूप गोस्वामी और अन्य, श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, कृष्णदास गोस्वामी, नरोत्तम दास ठाकुर, विश्वनाथ चक्रवर्ती, जगन्नाथ दास बाबाजी, भक्तिविनोद ठाकुर, गौरकिशोर दास बाबाजी, श्रीमद् भक्तिसिद्धांत सरस्वती, अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी. ब्रह्मा से शिष्य उत्तराधिकार की यह रेखा आध्यात्मिक है, जबकि मनु से वंशानुगत उत्तराधिकार भौतिक है, लेकिन दोनों कृष्ण चेतना के एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं. भगवान ब्रह्मा नारद को सुनाए गए वैदिक ज्ञान के मूल वक्ता हैं, और नारद अपने विभिन्न शिष्यों जैसे व्यासदेव और अन्य के माध्यम से दुनिया भर में पारलौकिक ज्ञान के प्रसारक हैं. वैदिक ज्ञान के अनुयायी ब्रह्माजी के कथनों को सुसमाचार सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, और इस प्रकार सृष्टि की शुरुआत से, पारलौकिक ज्ञान संसार भर में शिष्य उत्तराधिकार की प्रक्रिया द्वारा समय-समय पर वितरित किया जाता रहा है. भगवान ब्रह्मा भौतिक संसार में रहने वाले संपूर्ण रूप से मुक्त प्राणी हैं, और पारलौकिक ज्ञान के किसी भी गंभीर छात्र को ब्रह्माजी के शब्दों और कथनों को अचूक रूप में स्वीकार करना चाहिए. वैदिक ज्ञान अचूक है क्योंकि वह परम भगवान से सीधे ब्रह्मा के हृदय में आता है, और चूंकि वे सबसे आदर्श जीवित प्राणी हैं, ब्रह्माजी हमेशा अक्षर के प्रति सही होते हैं. और ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान ब्रह्मा प्रभु के एक महान भक्त हैं जिन्होंने प्रभु के चरण कमलों को परम सत्य के रूप में स्वीकार किया है. ब्रह्म-संहिता में, जिसे ब्रह्माजी द्वारा संकलित किया गया है, वह पूर्वगामी गोविंदम आदि-पुरुषम् त्वम् अहम् भजामि दोहराते हैं: “मैं भगवान, गोविंद, परम भगवान के मूल व्यक्तित्व का उपासक हूं.” इसलिए वे जो कुछ भी कहते हैं, जो कुछ भी सोचते हैं, और जो कुछ भी वे सामान्य रूप से अपनी चित्तवृत्ति में करते हैं, उसे सत्य के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए क्योंकि उनके प्रत्यक्ष भगवान, गोविंद के साथ बहुत अंतरंग संबंध है. श्री गोविंद, जो अपने भक्तों की प्रेममयी पारलौकिक सेवा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं, अपने भक्तों के वचनों और कार्यों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते हैं. भगवान भगवद्-गीता (9.31) में घोषणा करते हैं, कौन्तेय प्रतिजनिः: “हे कुंती पुत्र, यह घोषित करो.” भगवान अर्जुन को घोषणा करने के लिए कहते हैं, और क्यों? क्योंकि स्वयं गोविंद की घोषणा कभी-कभी सामान्य जीवों को विरोधाभासी लग सकती है, लेकिन सांसारिक को भगवान के भक्तों के शब्दों में कोई विरोधाभास नहीं मिलेगा. भक्तों को विशेष रूप से भगवान द्वारा संरक्षित किया जाता है ताकि वे अभ्रांत रह सकें. इसलिए आध्यात्मिक सेवा की प्रक्रिया हमेशा उस भक्त की सेवा में शुरू होती है जो शिष्य उत्तराधिकार में प्रकट होता है. भक्तों को हमेशा मुक्ति दी् जाती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अवैयक्तिक हैं. भगवान एक अनंत कालीन व्यक्ति हैं, और भगवान का भक्त भी एक अनंतकालीन व्यक्ति है. क्योंकि मुक्त अवस्था में भी भक्त के अपने इंद्रिय अंग होते हैं, इसलिए वह हमेशा एक व्यक्ति होता है. और क्योंकि भक्त की सेवा भगवान द्वारा पूर्ण पारस्परिकता में स्वीकार की जाती है, भगवान भी अपने पूर्ण आध्यात्मिक अवतार में एक व्यक्ति हैं. भगवान की सेवा में लगे रहने के कारण, भक्त की इंद्रियाँ, कभी भी झूठे भौतिक भोग के आकर्षण में नहीं भटकती हैं. भक्त की योजनाएं कभी भी व्यर्थ नहीं जाती हैं, और यह सब भगवान की सेवा के लिए भक्त के निष्ठापूर्ण लगाव के कारण होता है. यह पूर्णता और मुक्ति का मानक है. ब्रह्माजी से लेकर मानव तक, कोई भी, एक बार परम भगवान, श्रीकृष्ण, प्रथम भगवान, के प्रति बड़ी लगन से अपने लगाव के द्वारा मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्, तीसरा सर्ग, अध्याय 13 – पाठ 08 अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्, दूसरा सर्ग, अध्याय 06 – पाठ 34
प्रकृति की भौतिक अवस्थाएँ.
सभी प्रकार की भौतिक रचनाएँ न्यूनाधिक रूप से कामना के गुण (रजस) के विकास के कारण होती हैं. महत्-तत्व भौतिक रचना का सिद्धांत है, और जब ये परम की इच्छा से उत्तेजित होता है तो पहले कामना और भलाई के गुण प्रमुख होते हैं, औऱ बाद में समय के साथ विभिन्न प्रकार की भौतिक गतिविधियों द्वारा उत्पन्न होकर, कामना का गुण प्रमुख बन जाता है, और जीव इस प्रकार अधिकाधिक अज्ञान में रत हो जाते हैं. ब्रम्हा कामना की अवस्था के प्रतिनिधि हैं, और विष्णु सदाचार की अवस्था के प्रतिनिधि हैं, जबकि अज्ञानता की अवस्था का प्रतिनिधित्व भगवान शिव के द्वारा किया जाता है, जो भौतिक गतिविधियों के पिता हैं. भौतिक प्रकृति को माता कहा जाता है, और भौतिक जीवन का प्रारंभ करने वाले, भगवान शिव पिता हैं. अतः जीवों द्वारा समस्त भौतिक रचना कामना की अवस्था में की जाती है. एक विशेष सहस्राब्दी में जीवन की अवधि की प्रगति के साथ, विभिन्न अवस्थाएँ धीरे-धीरे विकास करते हुए कार्य करती हैं. कलि युग में (जब वासना की अवस्था सबसे प्रमुख है) मानव सभ्यता के विकास के नाम पर विभिन्न प्रकार की भौतिक गतिविधियाँ स्थान लेती हैं, और जीव अपनी वास्तविक पहचान – आध्यात्मिक प्रकृति को अधिक से अधिक भूलते जाते हैं. सदाचार के गुण की किंचित साधना द्वारा, आध्यात्मिक प्रकृति की झलक मिल जाती है, लेकिन वासना की अवस्था की प्रमुखता के कारण, सदाचार की अवस्था दूषित हो जाती है. इसलिए व्यक्ति भौतिक अवस्था से पार नहीं जा पाता, और इसलिए भगवान, जो भौतिक प्रकृति की अवस्था से सदैव पारलौकिक होते हैं, की प्रतीति जीवों के लिए बहुत कठिन हो जाती है, भले ही वे विभिन्न विधियों के अभ्यास से सदाचार की अवस्था में प्रमुखता से स्थित हों. दूसरे शब्दों में, स्थूल पदार्थ अधिभूतम होते हैं, उनका पालन अधिदैवम है, और भौतिक गतिविधियों को प्रारंभ करने वाले को आध्यात्मम कहते हैं. भौतिक संसार में ये तीन सिद्धांत प्रमुख गुणों, कच्ची सामग्री, उसका नियमित प्रदाय, और भटके हुए जीवों द्वारा इंद्रिय भोग के लिए विभिन्न प्रकार की भौतिक रचनाओं में इसके उपयोग के रूप में कार्य करते है.
जीव कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है. किसी जीव को बिल्ली का शरीर मिल सकता है, किसी अन्य को कुत्ते का शरीर मिल सकता है, और उसी प्रकार. इतने सारे विभिन्न शरीर क्यों हैं? क्यों किसी एक प्रकार का शरीर नहीं है? इसका उत्तर भी भगवद्-गीता (13.22) में दिया गया है:
कारणम गुण-संगोस्य सद-असद्-योनि-जन्माषु
“ऐसा भौतिक प्रकृति की अवस्था के साथ उसके संबंध के कारण है. इसलिए वह विभिन्न प्रजातियों के बीच अच्छे और बुरे से मिलता है.” चूँकि शरीर के भीतर स्थित आत्मा भौतिक प्रकृति के तीन गुणों (सदाचार, वासना, और अज्ञान) के साथ संबंध बनाती है, उसे विभिन्न प्रकार के शरीर मिलते हैं. किसी को अपने अगले शरीर की इच्छा नहीं करनी पड़ती; उसे बस निश्चिंत रहने की आवश्यकता होती है कि वह एक भिन्न शरीर होगा. दूसरी ओर, कृष्ण नहीं कहते कि व्यक्ति को किस प्रकार का शरीर मिलेगा. वह योग्यता पर निर्भर करता है. यदि व्यक्ति सदाचार की अवस्था से संबंध बनाता है, तो उसका उत्थान उच्चतर ग्रह मंडलों पर किया जाता है. यदि वह वासना के गुण से संबंध बनाता है, तो वह यहीं रह जाता है. और यदि वह अज्ञानता और अंधकार के गुण से संबंध बनाता है, तो वह निम्नतर जीवन रूपों- पशु, पेड़ और पौधों की ओर जाता है. भगवद-गीता (14.18) में श्रीकृष्ण का उद्घोष है:
उर्ध्वम गच्छंति सत्व-स्थ मध्ये तिष्ठंति रजसः
जघन्य-गुण-वृत्ति-स्थ अधो गच्छंति तमसः
“जो लोग सदाचार की अवस्था में हैं वे धीरे-धीरे उच्चतर ग्रहों को पहुँचेंगे; जो वासना की अवस्था में हैं वे पृथ्वी ग्रह पर रहते हैं; और जो अज्ञान की अवस्था में होते हैं वे नीचे की ओर नारकीय संसारों में जाएंगे.” जीवन की 8,400,000 प्रजातियां हैं, और ये सभी प्रकृति की अवस्थाओं (कारणम् गुण-संगो’स्य) के साथ व्यक्ति के संबंध से उत्पन्न होती हैं. और, शरीर के अनुसार, व्यक्ति दुख और सुख भोगता है. कोई एक कुत्ते से ऐसी आशा नहीं कर सकता कि उसे किसी राजा या संपन्न व्यक्ति जैसी प्रसन्नता मिले. चाहे व्यक्ति इस या उस की प्रसन्नता का आनंद लेता हो या उसे यह या वह दुख हो, दोनों दुख और प्रसन्नता भौतिक शरीर के कारण ही हैं.
योग का अर्थ भौतिक शरीर के कष्ट या सुख से आगे चला जाना है. यदि हम स्वयं को परम योग के माध्यम से कृष्ण के साथ जोड़ लें, तो हम शरीर से उत्पन्न होने वाले भौतिक सुख या दुख से छुटकारा पा सकते हैं. कृष्ण के साथ फिर से जुड़ने को भक्ति-योग कहा जाता है, और कृष्ण हमें इस सर्वोच्च योग में निर्देश देने आते हैं. संक्षेप में, वे कहते हैं, “हे अधम,मेरे साथ अपने संबंध को पुनर्जीवित करो. इन सभी बनाए हुए योग और धर्मों को त्याग दो और मेरे प्रति समर्पण करो.” यह कृष्ण का निर्देश है, और कृष्ण के प्रतिनिधि, अवतार या गुरु, एक ही बात कहते हैं. यद्यपि कपिलदेव कृष्ण के अवतार हैं, वे कृष्ण के प्रतिनिधि, गुरु के रूप में कार्य करते हैं. यदि हम केवल कृष्ण के प्रति समर्पण के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हम वास्तव में तथाकथित भौतिक सुख के पार हो जाएंगे. हमें भौतिक सुख से वशीभूत नहीं होना चाहिए या भौतिक संकट से दुखी नहीं होना चाहिए. ये बंधन के कारण हैं. भौतिक सुख वास्तविक सुख नहीं है. यह वास्तव में संकट है. हम धन प्राप्त करके खुश रहने का प्रयास करते हैं, लेकिन पैसा बहुत आसानी से प्राप्त नहीं होता है, और इसे पाने के लिए हमें बहुत कष्टों से गुजरना पड़ता है. हालाँकि, हम इस संकट को कुछ झूठी खुशी पाने की आशा के साथ स्वीकार करते हैं. दूसरी ओर, यदि हम अपनी इंद्रियों को शुद्ध करते हैं, तो हम आध्यात्मिक स्तर पर आ सकते हैं. वास्तविक आनंद हमारी इंद्रियों को कृष्ण की इंद्रियों की संतुष्टि में लगाना है. इस तरह हमारी इंद्रियाँ आध्यात्मिक हो जाती हैं, और इसे अध्यात्म-योग या भक्ति-योग कहा जाता है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007, अंग्रेजी संस्करण). “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 89, 90 व 91
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण). “श्रीमद् भागवतम, द्वितीय सर्ग, खंड 5, पाठ 23
ब्रम्हांड में ग्रहों का स्थान
“इस एक ब्रम्हांड के भीतर चौदह ग्रह मंडल हैं, और जीव विभिन्न ग्रहों पर विभिन्न शारीरिक रूप लेकर विचर रहे हैं. कर्म के अनुसार, जीव कभी ऊपर औऱ कभी नीचे जाते हैं. निचले ग्रह मंडल भूर्लोक कहलाते हैं, मध्य के ग्रह मंडल भुवर्लोक कहलाते हैं, और ब्रम्हांड के सर्वोच्च ग्रह मंडल, ब्रम्हलोक (सत्यलोक) तक के सारे उच्च ग्रह मंडल स्वर्गलोक कहलाते हैं. और वे सभी भगवान की काया पर स्थित हैं. दूसरे शब्दों में, ब्रम्हांड में कोई भी ऐसा नहीं है जिसका संबंध भगवान से न हो. अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले अंतरिक्षयात्री श्रीमद्-भगवतम् से जानकारी ले सकते हैं कि अंतरिक्ष में ग्रह मडलों के चौदह भाग हैं. इस स्थिति की गणना भूमंडलीय ग्रह प्रणाली से की जाती है, जिसे भूर्लोक कहा जाता है. भूर्लोक के ऊपर भुवर्लोक है, और भुवर्लोक के ऊपर स्वर्गलोक, महार्लोक, जनलोक, तपलोक, और सत्यलोक हैं, ये उच्चतर सात लोक, या ग्रह मंडल हैं. और इसी प्रकार से, सात निम्नतर ग्रह मंडल होते हैं, जिन्हें अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल लोक कहा जाता है. से सभी ग्रह मंडल संपूर्ण ब्रम्हांड में फैले हुए हैं, जिसका विस्तार दो अरब मील के दो अरब गुना स्थान जितना है. आधुनिक अंतरिक्ष यात्री धरती से कुछ हज़ार मील तक ही यात्रा कर पाते हैं, और इसलिए आकाश में उनकी यात्रा का प्रयास महासमुद्र के तट पर शुशु के खेल जैसा ही है. हमें जिस ब्रम्हांड में रखा गया है उसके अतिरिक्त असंख्य ब्रम्हांड हैं, और इन सभी भौतिक ब्रम्हांडों का विस्तार आध्यात्मिक आकाश का केवल एक बहुत छोटे हिस्से तक है. समस्त भौतिक ब्रम्हांड देवीधाम कहलाता है, औऱ उसके ऊपर शिवधाम है, जहाँ भगवान शिव औऱ उनकी पत्नी पार्वती का शाश्वत निवास है. उस ग्रह मंडल के ऊपर आध्यात्मिक आकाश है जिसमें असंख्य आध्यात्मिक ग्रह स्थित हैं जिन्हें वैकुंठ कहते हैं. इन वैकुंठ ग्रहों के ऊपर कृष्ण का ग्रह गौलोक है. गौलोक वृंदावन सभी भौतिक और आध्यात्मिक ग्रहों के योग से भी बड़ा है. जो कृष्ण के विस्तार नारायण के भक्त होते हैं उन्हें वैकुंठ ग्रह मिलते हैं, लेकिन गौलोक वृंदावन पहुँचना बहुत कठिन है. वास्तव में, उस ग्रह पर केवल वेे व्यक्ति पहुँच सकते हैं जो भगवान चैतन्य या भगवान श्री कृष्ण को समर्पित हैं.
स्रोत:”अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) श्रीमद् भगवतमं, द्वितीय सर्ग, पर्व 5- पाठ 38, 40 और 41.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), भगवान चैतन्य की शिक्षाएँ, स्वर्णिम अवतार, पृष्ठ 168.
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), भगवान कपिल की शिक्षाएँ, देवाहुतु का पुत्र, पृष्ठ 15.”
जाप का महत्व.
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जाप करने पर श्रीमद्-भागवतम् के द्वितीय सर्ग, प्रथम खंड, श्लोक 11 में इस प्रकार से बहुत महत्व दिया गया है. शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित से कहते हैं, “मेरे प्रिय राजन, यदि कोई सहज ही हरे कृष्ण महामंत्र के जाप से जुड़ जाता है, तो यह समझना चाहिए कि उसने श्रेष्ठता का सर्वोच्च स्तर प्राप्त कर लिया है.” यह विशेष रूप से उल्लिखित है कि वे कर्मी जो अपने कर्मों के फलकारी परिणामों के आकांक्षी हैं, मुक्ति के आकांक्षी जो परम व्यक्तित्व के साथ एक हो जाना चाहते हैं, और वे योगी, जो रहस्यवादी पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं, वे बस महा-मंत्र का जाप करके संपूर्णता के सभी स्तरों के परिणाम अर्जित कर सकते हैं. शुकदेव निर्नितम शब्द का उपयोग करते हैं, जिसका अर्थ है “ऐसा पहले ही निर्धारित किया जा चुका है”. वह एक मुक्त आत्मा थे और इसलिए ऐसी किसी भी वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकते थे जो निर्णायक नहीं हो. इसलिए शुकदेव गोस्वामी विशेषरूप से बल देते हैं कि यह निष्कर्ष पहले ही निकाला जा चुका है कि वह व्यक्ति जो निश्चय और स्थिरता के साथ हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने के स्तर तक आ चुका है उसे फलकारी गतिविधियों, मानसिक अटकलों और रहस्यवादी योग को पार कर चुका माना जाना चाहिए. कृष्ण द्वारा आदि पुराण में इसी बात की पुष्टि की गई है. अर्जुन को संबोधित करते हुए वे कहते हैं, “कोई भी व्यक्ति जो मेरे अलौकिक नाम के जाप में रत है उसे हमेशा मेरे संपर्क में माना जाना चाहिए. और मैं तुम्हें निःसंकोच कह सकता हूँ कि ऐसे भक्त के लिए मैं सरलता से बिक जाता हूँ”. पद्म पुराण में भी कहा गया है, “हरे कृष्ण मंत्र का जाप किसी ऐसे व्यक्ति के होठों पर ही उपस्थित हो सकता है जिसने कई जन्मों तक वासुदेव की भक्ति की हो”. पद्म पुराण में आगे कहा गया है, “भगवान के पवित्र नाम और स्वयं भगवान में कोई अंतर नहीं है. इस तरह, पवित्र नाम एक भौतिक ध्वनि स्पंदन नहीं है, न ही उसमें कोई भौतिक संदूषण है”. इसलिए, किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा पवित्र नाम का जाप अपराध नहीं है जो अपनी इंद्रियों को शुद्ध करने में असफल रहा हो. दूसरे शब्दों में, भौतिकवादी इंद्रियाँ हरे कृष्ण महा मंत्र के पवित्र नामों का जाप उचित ढंग से नहीं कर सकतीं. लेकिन जाप की इस प्रक्रिया को अपना कर, व्यक्ति को स्वयं को शुद्ध करने का अवसर मिलता है, ताकि वह शीघ्र ही बिना अपराधी हुए जाप कर सके. चैतन्य महाप्रभु ने सुझाव दिया है कि सभी व्यक्तियों को हरे कृष्ण मंत्र का जाप केवल अपने हृदय से धूल हटाने के लिए करना चाहिए. यदि हृदय की धूल को हटा दिया जाए, तब व्यक्ति वास्तव में पवित्र नाम के महत्व को समझ सकता है. वे व्यक्ति जो अपने हृदय से धूल नहीं हटाना चाहते और जो चीज़ों को जस का तस रखना चाहते हैं, उनके लिए हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने का आलौकिक परिणाम प्राप्त करना संभव नहीं है. इसलिए व्यक्ति को, भगवान के प्रति सेवा का भाव विकसित करना चाहिए, क्योंकि इससे उसे बिना अपराध जाप करने में सहायता मिलेगी. और इसलिए, किसी आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में, शिष्य को सेवा करना और साथ ही हरे कृष्ण मंत्र का जाप सिखाया जाता है. जैसे ही व्यक्ति अपना सहज सेवा भाव विकसित कर लेता है, वह महा-मंत्र के पवित्र नामों का आलौकिक स्वभाव तुरंत समझ सकता है.
स्रोत:अभय भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण – अंग्रेजी), “भक्ति का अमृत”, पृष्ण 106



























