Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 1

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भगवान का पुरुष अवतार.

भगवद-गीता का कथन है कि परम भगवान श्री कृष्ण का व्यक्तित्व अपने समग्र विस्तार द्वारा इन भौतिक ब्रम्हांडो का पालन करता है. इसलिए यह पुरुष रूप समान सिद्धांत की पुष्टि है. भगवान के परम व्यक्तित्व वासुदेव, या भगवान कृष्ण, जो राजा वासुदेव या राजा नंद के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं, वे सभी एश्वर्यों, सभी शक्तियों, समस्त प्रसिद्धि, सौंदर्य, समस्त ज्ञान और समस्त आत्मत्याग से पूर्ण हैं. उनके ऐश्वर्य का कुछ अंश अवैयक्तिक ब्राम्हण के रूप में, और उनके ऐश्वर्य का कुछ अंश परमात्मा के रूप में प्रकट हुआ है. भगवान श्री कृष्ण का समान व्यक्तित्व की यह पुरुष विशेषता ही भगवान का मूल परमात्मा प्रकटन है. भौतिक जगत में तीन पुरुष विशेषताएँ हैं, और यह रूप, जो कारणोदकशायी विष्णु के रूप में ज्ञात है, तीन में से पहला है. अन्य को गर्भोदकशायी विष्णु और क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में जाना जाता है, जिन्हें हम एक के बाद एक जानेंगे. इस क्षीरोदकशायी विष्णु के रोमछिद्रों से असंख्य ब्रम्हांड उपजते हैं, और प्रत्येक ब्रम्हांड में भगवान गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश लेते हैं. भगवद्-गीता में यह वर्णन भी मिलता है कि भौतिक संसार की उत्पत्ति एक निश्चित अंतराल पर होती है और फिर उसका विनाश हो जाता है. यह निर्माण और विनाश बद्ध आत्माओं, या नित्य-बद्ध जीवों के कारण परम इच्छा द्वारा ही किया जाता है. नित्य बद्ध, या शाश्वत बद्ध आत्माओं में, व्यक्तिगत बोध या अहंकार होता है, जो उनको इंद्रिय भोग में रत करता है, जिसे करने के लिए वे वैधानिक रूप से अक्षम हैं, भगवान ही एकमात्र भोगी हैं, और अन्य सभी भोगपात्र हैं. जीव प्रमुख भोक्ता हैं. लेकिन शाश्वत बद्ध आत्माओं को, इस वैधानिक स्थिति की विस्मृतिवश, भोग की सश्क्त कामना होती है. पदार्थ का भोग करने का अवसर बद्ध आत्माओं को भौतिक संसार में दिया जाता है, और साथ ही उन्हें अपनी वास्तविक वैधानिक स्थित को समझने का अवसर भी दिया जाता है. वे भाग्यशाली जीव जो सत्य को पकड़ लेते हैं और भौतिक संसार में कई जन्मों के बाद वासुदेव के चरण कमलों में समर्पण करते हैं, शाश्वत मुक्त आत्माओं में सम्मिलित हो जाते हैं और इस प्रकार उन्हें परम भगवान के धाम में प्रवेश करने की आज्ञा मिल जाती है. उसके बाद, ऐसे भाग्यशाली जीवों को दोबारा सामयिक भौतिक जगत में नहीं आना पड़ता. लेकिन जो वैधानिक सत्य को ग्रहण नहीं कर पाते वे भौतिक जगत के संहार के समय फिर से महत्तत्व में विलीन हो जाते हैं. जब जगत उत्पत्ति दोबारा निर्धारित होती है, यह महत्-तत्व फिर से स्वतंत्र कर दिया जाता है. इस महत्-तत्व में बद्ध आत्माओं सहित भौतिक उत्पत्ति के सभी तत्व शामिल होते हैं. प्राथमिक रूप से यह महत्-तत्व सोलह भागों में बंटा होता है, पाँच स्थूल भौतिक तत्व और इंद्रियों के ग्यारह कार्यकारी उपकरण. यह साफ़ आकाश में बादल के जैसा है. आध्यात्मिक आकाश में, ब्राम्हण की दीप्ति सभी ओर व्याप्त होती है, औऱ संपूर्ण व्यवस्था आध्यात्मिक प्रकाश से दीप्त होती है. महत्-तत्व विराट, असीमित आध्यात्मिक आकाश के कुछ कोनों में एकत्रित होता है, और इस प्रकार कुछ भाग जो महत्-तत्व से ढँका होता है, भौतिक आकाश कहलाता है. आध्यात्मिक आकाश का यह भाग, जो महत्-तत्व कहलाता है, संपूर्ण आध्यात्मिक आकाश का क्षुद्र हिस्सा होता है, और इस महत्-तत्व के भीतर असंख्य ब्रम्हांड होते हैं. ये सभी ब्रम्हांड सामूहिक रूप से कारणोदकशायी विष्णु द्वारा निर्मित होते हैं, जिन्हें महा-विष्णु भी कहा जाता है, जो भौतिक आकाश को गर्भवान करने के लिए बस अपना दृष्टिपात करते हैं. प्रथम पुरुष कारणोदकशायी विष्णु हैं.उनके रोम छिद्रों से असंख्य ब्रम्हांड उत्पन्न हुए हैं. प्रत्येक ब्रम्हांड में, पुरुष गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश करता है. वह आधे ब्रम्हांड में लेटे हुए हैं जो उनके शरीर के जल से भरा हुआ है. और गर्भोदकशायी विष्णु की नाभि से कमल पुष्प की डंठल निकली हुई है, जो ब्रम्हा के जन्म का स्थान है, जो सभी जीवों के पिता और सभी देवता अभियंताओं के स्वामी हैं जो ब्रम्हांडीय व्यवस्था के परिपूर्ण आकल्पन और प्रचालन में लगे हुए हैं. कमल की डंठल के भीतर ग्रह प्रणाली के चौदह विभाग हैं, और भूमंडलीय ग्रह मध्य में स्थित हैं. ऊपर की ओर अन्य, बेहतर ग्रह प्रणालियाँ हैं, और सर्वोच्च मंडल ब्रम्हलोक या सत्यलोक कहलाता है. भूमंडलीय ग्रह के नीचे की ओर सात निम्नतर ग्रह प्रणालियाँ हैं जिनमें एसुर और अन्य समान भौतिक जीव रहते हैं. गर्भोदकशायी विष्णु से क्षीरोदकशायी विष्णु का विस्तार है, जो सभी जीवों के सामूहिक परमात्मा हैं. उन्हें हरि कहा जाता है, और उनके द्वारा ब्रम्हांड में सभी अवतार विस्तार पाते हैं. इसलिए, निष्कर्ष यह है कि पुरुष अवतार तीन विशेषताओं में प्रकट होता है — पहले कारणोदकशायी जो महत्-तत्व में सकल भौतिक सामग्री की रचना करते हैं, दूसरे गर्भोदकशायी जो प्रत्येक ब्रम्हांड में प्रवेश करते हैं, और तीसरे क्षीरोदकशायी विष्णु जो प्रत्येक भौतिक वस्तु, जैविक या अजैविक, के परमात्मा हैं. जो भगवान के परम व्यक्तित्व की इन समग्र विशेषताओं को जानता है, वह परम भगवान को समुचित रूप से जानता है, और इस प्रकार जानने वाला जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों की भौतिक परिस्थितियों से स्वतंत्र हो जाता है, जैसा कि भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है, इस श्लोक में महा-विष्णु की विषय वस्तु का संक्षेप दिया गया है. महा-विष्णु अपनी स्वतंत्र इच्छा से आध्यात्मिक आकाश में कहीं लेटे होते हैं. इस प्रकार वे कारण के समुद्र में लेटते हैं, जहाँ से वे अपनी भौतिक प्रकृति को निहारते हैं, और तुरंत महत्-तत्व रचित हो जाता है. इस प्रकार भगवान की शक्ति से विद्युतीकृत होकर, भौतिक प्रकृति एक ही क्षण में असंख्य ब्रम्हांडों की रचना कर देती है, ठीक वैसे ही जैसे एक वृक्ष समय के साथ स्वयं को पके हुए फलों से सुसज्जित कर लेता है. वृक्ष का बीज रोपने वाला बोता है, और वृक्ष या बेल समय के साथ बहुत से फलों से आच्छादित हो जाते हैं. इसलिए कारण समुद्र को कारणात्मक समुद्र कहा जाता है. कारण का अर्थ “हेतुक” होता है. हमें नास्तिक अवधारणा को मूर्खतापूर्ण रूप से स्वीकार नहीं करना चाहिए. नास्तिकों का वर्णन भगवद्-गीता में दिया गया है. नास्तिक सर्जक में विश्वास नहीं करता, लेकिन वह जगतोत्पत्ति को समझाने के लिए कोई अच्छी अवधारणा नहीं दे पाता. भौतिक प्रकृति के पास पुरुष की शक्ति के बिना उत्पत्ति का कोई बल नहीं होता, वैसे ही जैसे प्रकृति, या स्त्री, बिना पुरुष के संबंध के एक शिशु को उत्पन्न नहीं कर सकती. पुरुष गर्भाधान करता है, और प्रकृति जन्म देती है. हमें बकरी की गर्दन की मांसल थैलियों से दूध की आशा नहीं करनी चाहिए, यद्यपि वे स्तन के समान लगती हैं. उसी प्रकार, हमें भौतिक सामग्री से कोई रचनात्मक शक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए; हमें पुरुष की शक्ति का विश्वास करना चाहिए, जो प्रकृति को गर्भवती करता है. चूँकि भगवान ने ध्यानावस्था में शयन की इच्छा की, तब भौतिक ऊर्जा ने क्षण भर में असंख्य ब्रम्हांडों की रचना कर दी, उनमें से प्रत्येक में भगवान शयन करते हैं, और इस प्रकार सभी ग्रह और विभिन्न सामग्रियाँ भगवान की इच्छा से क्षण भर में रचित कर दी गईं. भगवान की शक्तियाँ असीमित हैं, औऱ इस प्रकार वे परिपूर्ण योजना द्वारा जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं, यद्यपि व्यक्तिगत रूप से उन्हें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है. कोई भी उनसे महत्तर या उनके बराबर नहीं है. यही वेदों का मत है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 1 और 2

भगवान कृष्ण शत प्रतिशत हैं

परमार्थ कृष्ण अद्वितीय हैं. उन्होंने स्वयं-रूप, स्वयं-प्रकाश, तद्-एकात्म, प्रभाव, वैभव, विलास, अवेश, और जीव के रूप में स्वयं को स्वयं ही विस्तृत किया है, सभी को संबंधित व्यक्तित्वों के अनुकूल असंख्य ऊर्जाएँ प्रदान की गई हैं. पारलौकिक विषयों के ज्ञानी पंडितों ने सावधानी पूर्वक विश्लेषण करके परमार्थ कृष्ण को चौंसठ प्रमुख गुणों से युक्त जाना है. लेकिन श्रीकृष्णगुणों के शत प्रतिशत धारक हैं. और उन अवतारों की श्रेणी के स्तर तक उनके व्यक्तिगत विस्तार जो सभी विष्णु-तत्व हैं जैसे स्वयं-प्रकाश, तद्-एकात्म, इन पारलौकिक विशेषताओं के तिरयान्वे प्रतिशत तक धारक होते हैं. भगवान शिव, जो न तो अवतार हैं न ही उनके मध्य हैं, लगभग चौरासी प्रतिशत गुणों के धारक हैं. लेकिन जीव, या जीवन की विभिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न जीव, गुणों के अठहत्तर प्रतिशत की सीमा तक धारक होते हैं.

भौतिक अस्तित्व की बाधित स्थिति में, जीव इन गुणों को बहुत छोटी मात्रा में धारण करते हैं, जो जीव के पवित्र जीवन के संबंध में विभिन्न होते हैं. सबसे श्रेष्ण जीव ब्रम्हा हैं, जो एकल ब्रम्हांड के परम व्यवस्थापक हैं. वे पूर्ण रूप से अठहत्तर प्रतिशत गुणों के धारक हैं. अन्य सभी देवता कम मात्रा में समान गुणों के धारक हैं, जबकि मानव में ये गुण बहुत क्षीण मात्रा में होते हैं. मानव के लिए श्रेष्ठता का मानक गुणों को पूर्णता में अठहत्तर प्रतिशत तक विकसित करना है. प्राणी कभी भी शिव, विष्णु या भगवान कृष्ण के समान गुण नहीं धारण कर सकते. एक जीव पूर्णता में अड़तालीस प्रतिशत पारलौकिक विशेषताओं का विकास करके ईश्वरीय बन सकता है, लेकिन वह शिव, विष्णु या कृष्ण जैसा भगवान नहीं बन सकता. वह कालांतर में ब्रम्हा बन सकता है. आध्यात्मिक रूप से आकाश में स्थित ग्रहों में रहने वाले ईश्वरीय प्राणी हरि-धाम और महेशधाम नामक विभिन्न आध्यात्मिक ग्रहों में भगवान के अनन्त सहयोगी होते हैं. सभी आध्यात्मिक ग्रहों से ऊपर भगवान कृष्ण का धाम कृष्णलोक या गौलोक वृंदावन कहलाता है, और अठहत्तर प्रतिशत उपरोक्त गुणों को पूर्णता में विकसित करके, श्रेष्ण जीव, वर्तमान भौतिक शरीर का त्याग करने के बाद कृष्णलोक में प्रवेश ले सकता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 28

मानवों को माया के अधीन क्यों रखा जाता है?

जीव वैधानिक रूप से भौतिक कारावास से आगे होता है, लेकिन अब वह बाहरी ऊर्जा (माया) का कैदी हो गया है, और इसलिए वह स्वयं को भौतिक उत्पाद समझने लगता है. और इस अपवित्र संपर्क के कारण, शुद्ध आध्यात्मिक जीव भौतिक प्रकृति की अवस्था के अधीन भौतिक कष्ट झेलता है. जीव त्रुटिवश स्वयं को भौतिक उत्पाद समझता है. इसका अर्थ है कि सोचने, अनुभव करने और इच्छा करने का विकृत तरीका, उसके लिए स्वाभाविक नहीं है. लेकिन उसके पास सोचने, अनुभव करने और इच्छा करने का अपना सहज तरीका है. अपनी मूल स्थिति में जीव विचार, इच्छा और शक्ति से रहित नहीं होता है. भगवद गीता में यह भी पुष्टि की गई है कि बद्ध आत्मा का वास्तविक ज्ञान अब अज्ञानता से आच्छादित है. इस प्रकार इस सिद्धांत का यहाँ खंडन किया जाता है कि जीव पूर्ण रूप से अवैयक्तिक ब्राह्मण है. ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि अपनी मूल मुक्त अवस्था में भी जीव के विचार करने का अपना तरीका होता है. वर्तमान बद्ध अवस्था बाहरी ऊर्जा के प्रभाव के कारण है, जिसका अर्थ है कि मायावी ऊर्जा पहल करती है जबकि परम भगवान पृथक हैं. भगवान नहीं चाहते कि कोई जीव बाहरी ऊर्जा से भ्रमित हो. बाहरी ऊर्जा इस तथ्य से अवगत है, लेकिन तब भी वह अपने भ्रामक प्रभाव से भूली हुई आत्मा को भ्रम में रखने का कृतघ्न कार्य स्वीकार करती है. भगवान मायावी ऊर्जा के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते हैं क्योंकि बद्ध आत्मा के सुधार के लिए मायावी ऊर्जा के कार्य भी आवश्यक हैं. एक स्नेही पिता अपने बच्चों को किसी दूसरे प्रतिनिधि द्वारा दंड दिलवाना पसंद नहीं करता है, फिर भी वह अपने अवज्ञाकारी बच्चों को एक कठोर व्यक्ति के अधीन रखता है ताकि वे सुधर सकें. लेकिन साथ ही सर्वशक्तिमान सर्वस्नेही पिता बद्ध आत्मा के लिए राहत चाहते हैं, भ्रम की ऊर्जा के चंगुल से राहत. राजा अवज्ञाकारी नागरिकों को जेल की दीवारों के भीतर रखता है, लेकिन कभी-कभी राजा, कैदियों की राहत की इच्छा रखते हुए, व्यक्तिगत रूप से वहाँ जाता है और सुधार के लिए प्रार्थना करता है, और उसके ऐसा करने पर कैदियों को मुक्त कर दिया जाता है. इसी प्रकार, परम भगवान अपने राज्य से मायावी ऊर्जा के राज्य पर उतरते हैं और व्यक्तिगत रूप से भगवद-गीता के रूप में राहत देते हैं, जहाँ वे व्यक्तिगत रूप से यह सुझाव देते हैं कि यद्यपि मायावी ऊर्जा की विधियों पर विजय पाना बहुत कठिन है, लेकिन जो भगवान के चरण कमल के प्रति समर्पण करता है वह परम के आदेश से मुक्त कर दिया जाता है. यह आत्मसमर्पण प्रक्रिया मायावी ऊर्जा के भयावह तरीकों से राहत पाने का उपाय है. समर्पण की प्रक्रिया संगति के प्रभाव से पूरी होती है. इसलिए, भगवान ने सुझाव दिया है कि संतों के भाषणों के प्रभाव से जिन्हें वास्तव में परम का अनुभव हुआ है, व्यक्ति उनकी पारलौकिक प्रेममयी सेवा में लगे हुए हैं. बद्ध आत्मा को भगवान के बारे में सुनने के लिए रुचि प्राप्त होती है, और इस प्रकार सुनने से ही वह धीरे-धीरे भगवान के प्रति सम्मान, भक्ति और लगाव के स्तर पर पहुँच जाता है. संपूर्ण वस्तु समर्पण प्रक्रिया से पूरी होती है. यहाँ भी भगवान ने व्यासदेव के अवतार में वही सुझाव दिया है. इसका अर्थ यह है कि बद्ध आत्माओं को भगवान द्वारा दोनों प्रकार से पुनःप्राप्त किया जा रहा है, अर्थात् भगवान की बाहरी ऊर्जा द्वारा दंड की प्रक्रिया से, और आध्यात्मिक गुरु के रूप में भीतर और बाहर स्वयं के द्वारा. प्रत्येक जीव के हृदय के भीतर स्वयं भगवान के रूप में परमात्मा आध्यात्मिक गुरु बन जाता है, और उसके बिना वह शास्त्रों, संतों और दीक्षा देने वाले आध्यात्मिक गुरु के रूप में आध्यात्मिक गुरु बन जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 7- पाठ 5

श्रीमद् भागवतम् और महाभारत को कब संकलित किया गया था?

साधारण विद्वानों के बीच, श्रीमद्-भागवतम् के संकलन के संबंध में भिन्न-भिन्न विचार हैं. हालाँकि, भागवतम् के लेख से यह निश्चित है कि इसका संकलन राजा परीक्षित के लोप हो जाने से पहले और भगवान कृष्ण के अंतर्धान हो जाने के बाद हुआ है. जब महाराज परीक्षित भारत-वर्ष के राजा के रूप में विश्व पर शासन कर रहे थे, तब उन्होंने कलियुग को दंड दिया था. प्रगट शास्त्रों और ज्योतिषीय गणना के अनुसार, कलियुग अपने पाँच हजारवें वर्ष में है. इसलिए, श्रीमद्-भागवतम् के संकलन का समय पाँच हज़ार वर्षों से कम पहले का नहीं है. महाभारत को श्रीमद-भागवतम से पहले संकलित किया गया था, और पुराणों का संकलन महाभारत से पहले किया गया था. यह विभिन्न वैदिक साहित्य के संकलन की तिथि का अनुमान है। नारायण के एक शक्तिशाली अवतार, बादरायण (व्यासदेव) ने वैदिक ज्ञान को दुनिया में प्रसारित किया. इस प्रकार, वैदिक साहित्य, विशेषकर पुराणों का जप करने से पहले व्यासदेव को सम्मान दिया जाता है. शुकदेव गोस्वामी उनके पुत्र थे, और वैशंपायन जैसे ऋषि वेदों की विभिन्न शाखाओं के लिए उनके शिष्य थे. वे महान महाकाव्य महाभारत और महान पारलौकिक साहित्य भागवतम् के रचियता हैं. ब्रम्ह सूत्र–वेदांत-सूत्र, या बादरायण-सूत्र उनके द्वारा संकलित किए गए थे. जव वे कलियुग में सभी लोगों के कल्याण के लिए महान महाकाव्य महाभारत को दर्ज करना चाहते थे, तो उन्हें किसी शक्तिशाली लेखक की आवश्यकता का अनुभव हुआ जो उनके निर्देश ले सके. ब्रह्मा जी के आदेश पर, श्री गणेश जी ने इस शर्त पर श्रुतिलेखन का जिम्मा उठाया कि वेद व्यास एक क्षण के लिए भी निर्देश बंद नहीं करेंगे. इस प्रकार महाभारत को व्यास और गणेश के संयुक्त प्रयास द्वारा संकलित किया गया था. महाभारत को व्यासदेव ने कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद और महाभारत के सभी नायकों की मृत्यु के बाद संकलित किया था. इसका पहला पाठ महाराज परीक्षित के पुत्र, महाराज जनमेजय की राजसभा में किया गया था.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 7 - पाठ 8 
अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 9 - पाठ 6 और 7 

 

समय (काल) का नियंत्रण सब पर है.

ब्रम्हांड के भीतर सारे अकाश में समय का नियंत्रण है, वैसे ही जैसे ग्रहों पर संपूर्ण रूप से समय का नियंत्रण है. सूर्य सहित, सभी महाकार ग्रहों का नियंत्रण वायु के प्रवाह से किया जा रहा है, जैसे मेघों को वायु के बल से ले जाया जाता है. इसी प्रकार, अपरिहार्य काल, या समय, वायु और अन्य तत्वों के कार्यों पर भी नियंत्रण रखता है. इसलिए, सभी वस्तुओं का नियंत्रण, परम काल द्वारा किया जाता है जो भौतिक संसार में भगवान का बलशाली प्रतिनिधि है. इसलिए युधिष्ठिर को समय के कल्पनातीत कर्म के लिए खेद नहीं करना चाहिए. सभी को समय के कर्मों और प्रतिक्रियाओं को सहना पड़ता है जब तक कि वे भौतिक संसार की परिस्थितियों के भीतर होते हैं. युधिष्ठिर को यह नहीं सोचना चाहिए कि उन्होंने पिछले जन्म में पाप किये थे और उसका प्रतिफल भुगत रहे हैं. सबसे पवित्रतम व्यक्तियों को भी भौतिक प्रकृति की स्थितियों को भुगतना पड़ता है. लेकिन एक पवित्र पुरुष भगवान के प्रति निष्ठावान होता है, क्योंकि उसका मार्गदर्शन धार्मिक सिद्धांतों का पालन करने वाले सच्चे ब्राम्हण और वैष्णव द्वारा किया जाता है. यही तीन मार्गदर्शक सिद्धांत जीवन के लक्ष्य होने चाहिए. व्यक्ति को शाश्वत समय के छलावों से विक्षुब्ध नहीं होना चाहिए. यहाँ तक कि ब्रम्हांड के महान नियंत्रक, ब्रम्हाजी भी उसी समय के नियंत्रण में हैं; इसलिए, व्यक्ति को धार्मिक सिद्धांतों का सच्चा अनुयायी होने पर भी इस तरह समय द्वारा नियंत्रित किए जाने का विद्वेष नहीं करना चाहिए.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पहला सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 14

भगवान की योजना को कोई नहीं जान सकता.

अपने अतीत के पापमयी कर्मों और परिणामी कष्टों पर महाराजा युधिष्ठिर के भ्रम को महान विद्वान भीष्म (बारह प्रामाणिक व्यक्तियों में से एक) ने पूरी तरह नकारा गया है. भीष्म महाराजा युधिष्ठिर को समझाना चाहते थे कि शिव और ब्रम्हा जैसे देवता सहित, आदिकाल से कोई भी भगवान की वास्तविक योजना को नहीं समझ सकते थे. तो हम इस बारे में क्या समझ सकते हैं? इसके बारे में खोज-बीन करना भी व्यर्थ है. यहाँ तक कि ऋषियों द्वारा सघन दार्शनिक शोध भी भगवान की योजना को सुनिश्चित नहीं कर सका. सर्वोत्म युक्ति बस बिना तर्क किये भगवान के आदेशों का पालन करना है. पांडवों के कष्ट उनके पिछले कर्मों के कारण नहीं थे. भगवान को धर्म के राज्य की स्थापना करने की योजना को संचालित करना था, और इसलिए उनके अपने भक्तों को धर्म की विजय को स्थापित करने के लिए अस्थायी कष्ट झेलने पड़े. भीष्मदेव निश्चित ही धर्म की विजय देख कर संतुष्ट हुए थे, और वे सिंहासन पर राजा युध्ष्ठिर को देखकर प्रसन्न थे, यद्यपि वे स्वयं उनके विरुद्ध लड़े थे. भीष्म जैसे महान योद्धा भी कुरुक्षेत्र का रण नहीं जीत सके क्योंकि भगवान दिखाना चाहते थे कि अधर्म धर्म पर विजय नहीं पा सकता, भले ही उसका संचालन कोई भी कर रहा हो. भीष्मदेव भगवान के महान भक्त थे, लेकिन उन्होंने भगवान की इच्छा से पांडवों के विरुद्ध लड़ना चुना था क्योंकि भगवान दिखाना चाहते थे कि भीष्म जैसे योद्धा गलत पक्ष की ओर से नहीं जीत सकते.

स्रोत :अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 16

भगवान कृष्ण प्रत्यक्ष अवतार हैं.

भीष्मदेव कहते हैं कि श्रीकृष्ण पहले नारायण हैं. इसकी पुष्टि भागवतम् (10.14.14) में ब्रम्हा जी द्वारा भी की गई है. आध्यात्मिक संसार (वैकुंठ) में असीमित संख्या में नारायण हैं, जो परम भगवान के समान व्यक्तित्व हैं और परम भगवान, श्रीकृष्ण के मूल व्यक्तित्व के समग्र विस्तार माने जाते हैं. भगवान श्रीकृष्ण का पहला रूप स्वयं को पहले बलदेव के रूप में विस्तार देता है, और बलदेव अन्य बहुत से रूपों में विस्तार लेते हैं, जैसे संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, वासुदेव, नारायण, पुरुष, राम और नृसिंह. ये सभी विस्तार एक और समान विष्णु-तत्व हैं, और श्रीकृष्ण समस्त समग्र विस्तारों के मूल स्रोत हैं. इस प्रकार वे परम भगवान के प्रत्यक्ष व्यक्तित्व हैं, वे भौतिक संसार के रचियता हैं, और वे सभी वैकुंठ ग्रहों में नारायण के रूप में ज्ञात प्रमुख देवता हैं. इसलिए, मानवों के बीच उनका होना एक और प्रकार का संभ्रम है. इसलिए भगवान भगवद्-गीता में कहते हैं कि मूर्ख लोग उनकी गतिविधियों की जटिलताओं को जाने बिना उन्हें मानवों में से एक मानते हैं.

अवतार का अर्थ “वह जो अवरोहण करता है”. स्वयं भगवान सहित, भगवान के सभी अवतार, भौतिक संसार के विभिन्न ग्रहों में और साथ ही जीवन की विभिन्न जातियों में विशिष्ट प्रयोजन को पूरा करने के लिए अवतरित होते हैं. कई बार वे स्वयं आते हैं, और कई बार उनके विभिन्न समग्र अंश या समग्र अंश के भाग, या उनके पृथक हो गए अंश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनसे बल पाकर, इस भौतिक संसार में कुछ विशिष्ट कार्यों को पूरा करने उतरते हैं.

मूल रूप से भगवान सभी ऐश्वर्यों, शूरता, प्रसिद्धि, समस्त सौंदर्य, समस्त ज्ञान और सारे परित्यागों से परिपूर्ण हैं. जब वे समग्र अंशों के समग्र भागों या अंशों के माध्यम से आंशिक रूप से प्रकट होते हैं, तो ध्यान देना चाहिए कि उनकी विभिन्न शक्तियों के निश्चित प्रकटन उन विशिष्ट कार्यों के लिए आवश्यक होते हैं. जब कमरे में छोटे बिजली के बल्ब दिखाई देते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि बिजलीघर छोटे बल्बों द्वारा सीमित है. यही समान बिजलीघर अधिक वोल्टेज वाले बड़े पैमाने के औद्योगिक यंत्रों को चलाने की शक्ति दे सकता है. उसी प्रकार, भगवान के अवतार सीमित शक्ति प्रदर्शित करते हैं क्योंकि किसी विशेष समय पर उतनी ही शक्ति की आवश्यकता होती है. उदाहरण के लिए, भगवान परशुराम और भगवान नृसिंह ने अनज्ञाकारी क्षत्रियों का इक्कीस बार वध करके और महा बलशाली नास्तिक हिरण्यकशिपु का वध करके असाधारण बाहुल्य प्रदर्शित किया था. हिरण्यकशिपु इतना शक्तिशाली था कि अन्य ग्रहों के देवता भी उसकी अनिष्ट भृकुटी तानने पर काँप जाते थे. उच्चतर स्तर के भौतिक अस्तित्व में देवता जीवन अवधि, सौंदय, संपत्ति, सामग्री, और अन्य सभी पक्षों में सर्वोच्च मानवों से कई गुना आगे थे. फिर भी वे हिरण्यकशिपु से डरते थे. अतः हम सरलता से कल्पना कर सकते हैं कि भौतिक संसार में हिरण्यकशिपु कितना शक्तिशाली था. लेकिन तब भी हिरण्यकशिपु को भगवान नृसिंह के नखों द्वारा छोटे टुकड़ों में काट दिया गया था. इसका अर्थ है कि भौतिक रूप से बलशाली कोई भी व्यक्ति भगवान के नाखूनों की शक्ति के आगे नहीं टिक सकता.

उसी प्रकार, जमदग्नि ने अपने-अपने राज्यों में दृढ़ता से स्थित अनाज्ञाकारी राजाओं का वध करने के लिए भगवान की शक्ति का प्रदर्शन किया. भगवान के सशक्त अवतार नारद और विस्तारित अवतार वराह, साथ ही परोक्ष रूप से सशक्त भगवान बुद्ध ने जन-सामान्य में धर्म की स्थापना की थी. राम और धन्वंतरि के अवतारों ने उनकी प्रसिद्धि, और बलराम, मोहिनी और वामन ने उनके सौंदर्य का प्रदर्शन किया. दत्तात्रेय, मत्स्य, कुमार और कपिल ने उनके पारलौकिक ज्ञान का प्रदर्शन किया. नर और नारायण ऋषियों ने उनके त्याग का प्रदर्शन किया. अतः भगवान के सभी विभिन्न अवतारों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विभिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित कीं, लेकिन मौलिक भगवान, भगवान कृष्ण ने परम भगवान की संपूर्ण विशेषताएँ प्रदर्शित कीं, और इसलिए यह पुष्टि होती है कि अन्य सभी अवतारों के स्रोत वही हैं. और भगवान कृष्ण द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली सबसे असाधारण विशेषता गोपियों के साथ उनकी लीलाओं द्वारा उनका आंतरिक ऊर्जामयी प्रकटन था. गोपियों के साथ उनकी लीलाएँ पारलौकिक अस्तित्व, आनंद और ज्ञान का ही प्रदर्शन था, यद्यपि इनका प्रकटन स्पष्ट रूप से कामुक प्रेम के रूप में हुआ है. गोपियों के साथ उनकी लीलाओं के विशिष्ट आकर्षण को समझने में कभी त्रुटि नहीं करनी चाहिए. भागवतम् दसवें अध्याय में इन पारलौकिक लीलाओं से संबंध दर्शाती है. और भगवान कृष्ण की गोपियों के साथ लीलाओं के पारलौकिक स्वभाव को समझने की स्थिति तक पहुँचने के लिए, भागवतम् विद्यार्थियों को धीरे-धीरे नौ अतिरिक्त अध्यायों तक विकसित करती है.

श्रील जीव गोस्वामी के वक्तव्य के अनुसार, अधिकृत स्रोतों की अनुरूपता में, भगवान कृष्ण अन्य सभी अवतारों के स्रोत हैं. ऐसा नहीं है कि भगवान कृष्ण के अवतार का कोई स्रोत है. परम सत्य के सभी लक्षण संपूर्ण रूप से भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व में विद्यमान हैं, और भगवद्-गीता में भगवान बलपूर्वक घोषणा करते हैं कि स्वयं उनसे महत्तर या समकक्ष कोई भी सत्य नहीं है. यद्यपि अन्य स्थानों पर अवतारों का वर्णन उनके विशिष्ट कार्यों के कारण भगवान के रूप में किया गया है, उन्हें कहीं भी परम व्यक्तित्व घोषित नहीं किया गया है. इस पद में ‘स्वयं’ शब्द परमार्थ के रूप में श्रेष्ठता का परिचायक है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 18
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 28

श्रेष्ठ का अनुगमन करना क्यों महत्वपूर्ण है?

ज्येष्ठाधिकार का आधुनिक अंग्रेजी कानून, या प्रथम संतान के उत्तराधिकार का कानून उन दिनों भी प्रचलित था जब महाराजा युधिष्ठिर पृथ्वी और समुद्रों पर राज्य करते थे. उन दिनों में हस्तिनापुर (अब नई दिल्ली का भाग) के राजा, समुद्रों सहित महाराज युधिष्ठिर के पोते महाराजा परीक्षित के समय तक संसार के सम्राट थे. महाराज युधिष्ठिर के कनिष्ठ भाई उनके मंत्रियों और राज्य के सेनापतियों के रूप में कार्य कर रहे थे, और राजा के संपूर्ण धार्मिक भाइयों के बीच पूर्ण सहयोग था. महाराज युधिष्ठिर आदर्श राजा या पृथ्वी पर राज्य करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि थे और राजा इंद्र के समतुल्य थे, जो स्वर्ग के प्रतिनिधि शासक थे. इंद्र, चंद्र, सूर्य, वरुण, और वायु जैसे देवता ब्रम्हांड के विभिन्न ग्रहों के प्रतिनिधि राजा हैं, और वैसे ही महाराज युधिष्ठिर भी उनमें से एक थे, जो पृथ्वी पर राज्य करते थे. महाराज युधिष्ठिर आधुनिक लोकतंत्र के किसी अशिक्षित नेता नहीं थे. महाराज युधिष्ठिर को भीष्मदेव और अभ्रांत भगवान ने भी प्रशिक्षित किया था, और इसलिए उन्हें सभी बातों का अचूक ज्ञान था. आधुनिक चुना गया राज्य कार्यकारी प्रमुख बस एक कठपुतली की तरह होता है क्योंकि उसके पास राजा जैसी कोई शक्ति नहीं होती. भले ही वह महाराज युधिष्ठिर की तरह प्रबुद्ध हो, वह वैधानिक स्थिति के कारण स्वयं अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकता. इसलिए, पृथ्वी पर बहुत सारे राज्य वैचारिक मतभेदों या अन्य स्वार्थपरक कारणों से झगड़ते रहते हैं. लेकिन महाराज युधिष्ठिर जैसे राजा की अपनी कोई विचारधारा नहीं थी. उनको केवल अभ्रांत भगवान और भगवान के प्रतिनिधि और आधिकारिक दूत, भीष्मदेव के निर्देशों का पालन करना था. शास्त्रों में निर्देश किया गया है कि व्यक्ति को महान विद्वान और अभ्रांत भगवान का अनुसरण किसी व्यक्तिगत मंशा और बनाई हुई विचारधारा के बिना करना चाहिए. इसलिए, महाराज युधिष्ठिर के लिए समुद्रों सहित, संपूर्ण संसार पर शासन करना संभव था, क्योंकि सिद्धांत अचूक थे और वैश्विक रूप से सभी के लिए अनुकूल थे. एक विश्व राज्य की अवधारणा तभी पूरी हो सकती है जब हम अचूक प्राधिकार का पालन कर सकें. एक असिद्ध मानव एक ऐसी विचारधारा नहीं बना सकता जो सभी को स्वीकार्य हो. केवल एक निपुण और अचूक व्यक्ति ही ऐसा कार्यक्रम बना सकता है जो प्रत्येक स्थान के अनुकूल हो और संसार में सभी के द्वारा पालन किया जा सके. वह व्यक्ति होते हैं जो शासन करते हैं, न कि अवैयक्तिक प्रशासन. यदि व्यक्ति निपुण है तो प्रशासन भी संपूर्ण है. यदि व्यक्ति एक मूर्ख है, तो सरकार भी मूर्खों की महासभा होगी. यही प्रकृति का नियम है. अयोग्य राजाओं या कार्यकारी प्रमुखों की ऐसी अनेक कहानियाँ हैं. इसलिए, कार्यकारी प्रमुख को महाराज युधिष्ठिर जैसा प्रशिक्षित व्यक्ति होना चाहिए, और उसके पास संसार पर शासन करने की पूर्ण निरंकुश शक्ति होनी चाहिए. एक विश्व राज्य की अवधारणा महाराज युधिष्ठिर जैसे किसी निपुण राजा के शासन के अधीन ही आकार ले सकती है. विश्व उन दिनों प्रसन्न था क्योंकि संसार पर शासन करने के लिए महाराज युधिष्ठिर जैसे राजा थे.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 10 – पाठ 3

ब्रम्हांड का विलयन किस प्रकार होता है?

प्रकट विश्व का विलयन दो प्रकार से होता है. प्रत्येक 4,320,000,000 सौर वर्षों के अंत में, जब ब्रम्हा, किसी एक विशिष्ट ब्रम्हांड के स्वामी, सो जाते हैं, तो एक प्रलय होता है. और भगवान ब्रम्हा के जीवन के अंत में, जो ब्रम्हा की सौ वर्ष की आयु की समाप्ति पर, हमारी गणना के अनुसार 8,640,000,000 x 30 x 12 x 100 सौर वर्षों की समाप्ति पर, संमस्त ब्रम्हांड का संपूर्ण नाश हो जाता है, और दोनों अवधियों में महत्-तत्व कहलाने वाली भौतिक ऊर्जा और जीव-तत्व कहलाने वाली अत्यल्प ऊर्जा दोनों परम भगवान के व्यक्तित्व में समाहित हो जाती हैं. जीव तब तक भगवान के शरीर में सोते रहते हैं जब तक कि भौतिक संसार की रचना फिर से नहीं की जाती, और भौतिक उत्पत्ति के निर्माण, पालन और विनाश की यही विधि है. भौतिक रचना पर भगवान द्वारा चलायमान भौतिक प्रकृति के तीन रूपों के संपर्क से प्रभावित होती है, और इसलिए यहाँ कहा गया है कि भगवान भौतिक प्रकृति के रूपों के गति में आने से पहले अस्तित्वमान थे. श्रुति-मंत्र में कहा गया है कि केवल, परम भगवान, विष्णु ही ब्रम्हांड रचना के पहले अस्तित्वमान थे, और कोई भी ब्रम्हा, शिव या अन्य देवता नहीं थे. विष्णु का अर्थ महा-विष्णु है, जो समुद्र पर लेटे हुए हैं. उनके श्वसन मात्र से सभी ब्रम्हांडों के बीज उत्पन्न होते हैं और प्रत्येक ब्रम्हांड में असंख्य ग्रहों के साथ-साथ धीरे-धीरे विशालकाय रूपों में विकसित होते हैं. ब्रम्हांडों के बीज विशालका रूपों में वैसे ही विकसित होते हैं जैसे वट वृक्ष के बीज असंख्य वट वृक्षों में विकसित हो जाते हैं.

यह महा-विष्णु भगवान श्री कृष्ण का परिपूर्ण रूप है, जिनका उल्लेख ब्रम्ह-संहिता में इस प्रकार मिलता है: “मैं भगवान के मूल व्यक्तित्व गोविंद के प्रति अपना सादर अभिवादन प्रस्तुत करता हूँ, जिनके परिपूर्ण भाग महा-विष्णु हैं. सभी ब्रम्हा, ब्रम्हांडों के प्रमुख, उनकी अलौकिक काया के रोमछिद्रों से ब्रम्हांडों की उत्पत्ति के बाद से केवल उनके उच्छ्वास की अवधि तक ही जीवित रहते हैं.” (ब्रम्हसंहिता 5.58) अतएव गोविंद, या भगवान कृष्ण ही महा-विष्णु के भी कारक हैं. इस वैदिक सत्य के बारे में बातें करने वाली स्त्रियों ने ऐसा आधिकारिक सूत्रों से अवश्य ही सुना होगा. निश्चित ही कोई आधिकारिक सूत्र ही वह एकमात्र साधन होता है जिससे अलौकिक विषय वस्तु के बारे में ज्ञान हो सके. इसका कोई विकल्प नहीं है. महा-विष्णु के शरीर में जीवों का विलय ब्रम्हा के सौ वर्ष समाप्त होने पर स्वतः ही होता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जीवों की व्यक्तिगत पहचान खो जाती है. पहचान बनी रहती है, और जैसे ही भगवान की सर्वोच्च इच्छा से दोबारा रचना होती है, सभी प्रसुप्त, निष्क्रिय जीव उनके पिछले जीवन पक्षों की निरंतरता में उनकी गतिविधियाँ करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिए जाते हैं. इसे सुप्तोत्थित न्याय कहते हैं, या निद्रा से जागना और अपने संबंधित कर्तव्य में फिर से रत हो जाना. जब कोई पुरुष रात्रि में सोता है, वह स्वयं को भूल जाता है, कि वह क्या है, उसका कर्तव्य क्या है और अपनी जागृत अवस्था का सब कुछ भूल जाता है. लेकिन जैसे ही वह निद्रा से जागता है, उसे वह सब याद आ जाता है जो उसे करना है और इस प्रकार वह स्वयं को अपनी निर्दिष्ट गतिविधियों में फिर से रत कर लेता है. विनाश की अवधि के दौरान जीव भी महा-विष्णु के शरीर में विलीन रहते हैं, लेकिन जैसे ही अगली रचना होती है वे अपने अधूरे कार्य पूरे करने के लिए जाग जाते हैं. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता (8.18-20) में भी की गई है. भगवान रचनात्मक ऊर्जा के कार्यरत होने से पहले अस्तित्वमान थे. भगवान भौतिक ऊर्जा का उत्पाद नहीं हैं. उनका शरीर पूर्णतया आध्यात्मित है, और उनके शरीर और स्वयं उनमें कोई अंतर नहीं है. रचना से पहले भगवान अपने निवास में स्थित थे, जो कि परम और एकमात्र है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पहला सर्ग, अध्याय 10 – पाठ 21

भगवान की भक्ति सेवा सभी परिस्थितियों में अनियंत्रणीय होती है.

हम वेश्याओं से भी घृणा नहीं कर सकते यदि वे भगवान की भक्त हों. आज तक भी भारत के महान नगरों में कई ऐसी वेश्याएँ हैं जो भगवान की गंभीर भक्त हैं. संयोग की माया से व्यक्ति को ऐसा व्यवसाय चुनना पड़ सकता है जो समाज में बहुत सम्माननीय न हो, लेकिन इससे व्यक्ति द्वारा भगवान की भक्ति सेवा में बाधा नहीं पड़ती. भगवान की भक्ति सेवा सभी परिस्थितियों में अनियंत्रणीय होती है. इसलिए यहाँ समझ में आता है कि उन दिनों में भी, लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले, द्वारका जैसे नगर में भी वेश्याएँ थीं, जहाँ भगवान कृष्ण रहते थे. इसका अर्थ है कि समाज के उचित समारक्षण के लिए वेश्याएँ आवश्यक नागरिक होती हैं. सरकार मदिरा की दुकान खोलती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार मदिरापान को बढ़ावा देती है. विचार यह है कि व्यक्तियों का ऐसा वर्ग होता है जो किसी भी परिस्थिति में मदिरापान करता है, और ऐसा अनुभव किया गया है कि बड़े शहरों में प्रतिबंध ने मदिरा की अवैध तस्करी को बढ़ावा दिया है. उसी प्रकार, जो पुरुष घर पर संतुष्ट नहीं होते हैं उन्हें ऐसी छूट चाहिए होती है, और यदि कोई वेश्याएँ नहीं होंगी, तो फिर इस तरह के हीन पुरुष अन्य को वेश्यावृत्ति में झोकेंगे. यह बेहतर होगा कि व्यापार के स्थानों पर वेश्याएँ उपलब्ध हों ताकि समाज की पवित्रता बनी रहे. वेश्याओं का ऐसा वर्ग बनाए रखना समाज में वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहित करने से बेहतर है. सभी लोगों को भगवान का भक्त बनाने के लिए जागृत करना ही सही जानकारी है, और उससे जीवन का क्षय करने वाले सभी तत्वों पर नियंत्रण रहेगा. विष्णुस्वामी वैष्णव संप्रदाय के एक महान आचार्य, श्री बिल्वमंगल ठाकुर, अपने गृहस्थ जीवन में एक वेश्या से अत्यधिक आसक्त थे जो भगवान की एक भक्त थी. एक रात जब ठाकुर चिंतामणि के घर पर घनघोर बारिश और तूफान में आये, तो चिंतामणि यह देखकर आश्चर्यचकित रह गईं कि ठाकुर कैसे ऐसी भयंकर रात में एक उफनती नदी को पार करके आ पाए थे जिसमें भरपूर लहरें थीं. उसने ठाकुर बिल्वमंगल से कहा कि उनका किसी उसके जैसी साधारण महिला के शरीर के लिए आकर्षण का उचित उपयोग हो सकेगा यदि उसे भगवान की पारलौकिक सुंदरता के लिए आकर्षण अर्जित करने के लिए भगवान की भक्ति सेवा में परिवर्तित किया जा सके. वह ठाकुर के लिए महान समय साबित हुआ, और ठाकुर एक वेश्या के शब्दों द्वारा आध्यात्मिक आत्मसाक्षात्कार की ओर मुड़ गए. बाद में ठाकुर ने वेश्या को अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार किया, और उनके साहित्यिक कर्म में कई स्थानों पर उन्होंने चिंतामणि के नाम को गौरवान्वित किया, जिसने उन्हें सही मार्ग दिखाया. भागवद्-गीता (9.32) में भगवान कहते हैं, “हे पृथ के पुत्र, वे भी जो हीन-जन्म चांडाल हैं और जो नास्तिकों के घर में पैदा हुए हैं, और वेश्याएँ भी, जीवन की परिपूर्णता अर्जित करेंगे, यदि वे मेरी विशुद्ध भक्ति सेवा की शरण में आएँ, क्योंकि भक्ति सेवा के मार्ग में हीन जन्म और जीविका के कारण कोई अवरोध नहीं होता. यह मार्ग उन सभई के लिए खुला है जो इसे स्वीकार करते हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 11- पाठ 19

कई बार देखा गया कोई भी पदार्थ अंततः संतृप्ति के नियम से अनाकर्षक हो जाता है.

जब द्वारका शहर की स्त्रियाँ अपने महलों की छतों पर बैठी थीं, तो उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन्होंने पहले कई बार अमोघ भगवान के सुंदर शरीर को देखा था. यह इंगित करता है कि उन्हें भगवान को देखने की इच्छा में कोई संतृप्ति नहीं थी. कई बार देखा गया है कि कोई भी पदार्थ अंततः संतृप्ति के नियम से अनाकर्षक हो जाता है. संतृप्ति का नियम भौतिक रूप से कार्य करता है, लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं है. अमोघ शब्द यहाँ महत्वपूर्ण है, क्योंकि यद्यपि भगवान दया दिखाते हुए पृथ्वी पर उतरे हैं, लेकिन वे अभी भी अमोघ हैं. जीव दोषक्षम होते हैं क्योंकि जब वे भौतिक संसार के संपर्क में आते हैं तो उनमें अपनी आध्यात्मिक पहचान की कमी होती है, और इस प्रकार भौतिक रूप से प्राप्त किया गया शरीर, जन्म, विकास, परिवर्तन, स्थिति, क्षरण और विनाश का विषय बन जाता है. भगवान का शरीर ऐसा नहीं है. वे जैसे हैं वैसे ही अवतरण करते हैं और कभी भी भौतिक नियमों के अधीन नहीं होते. उनका शरीर हर वस्तु का स्रोत है जो हमारे अनुभव से परे सभी सौंदर्यों का भंडार है. इसलिए, कोई भी भगवान के पारलौकिक शरीर को देखकर संतृप्त नहीं होता, क्योंकि सदैव नित नए सौंदर्य की अभिव्यक्तियाँ होती रहती हैं. पारलौकिक नाम, रूप, गुण, आदि सभी आध्यात्मिक अभिव्यक्तियाँ हैं, और भगवान के पवित्र नाम का जप करने में कोई संतृप्ति नहीं है, भगवान के गुणों पर चर्चा करने में कोई संतृप्ति नहीं होती है, और भगवान के प्रतिवेश की कोई सीमा नहीं है. वे सभी के स्रोत हैं और असीम हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 11- पाठ 25

संसार की गतिविधियाँ पुरुष और स्त्री के केंद्रीय आकर्षण के द्वारा प्रचालित की जा रही हैं.

मोक्ष का मार्ग या परम भगवान तक वापस जाने वाला मार्ग हमेशा स्त्रियों के जुड़ाव की मनाही करता है, और समस्त संन्यास-धर्म या वर्णाश्रम-धर्म योजना स्त्रियों के साथ संबंध को प्रतिबंधित करती या रोक लगाती है. फिर, कैसे, किसी को भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो सोलह हजार से अधिक पत्नियों का आसक्त है? यह प्रश्न प्रासंगिक रूप से जिज्ञासु व्यक्तियों द्वारा उठाया जा सकता है जो वास्तव में परम भगवान के पारलौकिक स्वरूप के बारे में जानने के लिए उत्सुक हैं. और ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए, नैमिषारण्य में ऋषियों ने इस और इसके बाद के छंदों में भगवान के पारलौकिक चरित्र की चर्चा की है. यहाँ स्पष्ट है कि स्त्रैण आकर्षक विशेषताएँ जो कामदेव पर या यहाँ तक कि सबसे अधिक सहिष्णु भगवान शिव पर भी विजय पा सकती हैं, भगवान की इंद्रियों पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती हैं. कामदेव का कार्य सांसारिक वासना का आह्वान करना है. कामदेव के बाण से पूरा ब्रह्मांड आंदोलित हो रहा है. संसार की गतिविधियाँ पुरुष और स्त्री के केंद्रीय आकर्षण के द्वारा प्रचालित की जा रही हैं. एक पुरुष अपनी पसंद के अनुसार एक साथी खोज रहा है, और स्त्री एक उपयुक्त पुरुष को खोज रही है. यह भौतिक उत्तेजना का व्यवहार है. और जैसे ही एक पुरुष किसी स्त्री के साथ जुड़ता है, जीवित होने का भौतिक बंधन तुरंत काम संबंध से कड़ाई से जुड़ जाता है, और इसके परिणाम स्वरूप, समाज और मित्रता और धन का संचय, गतिविधियों का भ्रामक क्षेत्र बन जाता है, और इस प्रकार अस्थायी भौतिक अस्तित्व के लिए एक झूठा लेकिन अदम्य आकर्षण, जो दुखों से भरा है, प्रकट हो जाता है. इसलिए, जो भगवान के घर वापस जाने के लिए मोक्ष के मार्ग पर हैं, उन्हें विशेष रूप से सभी शास्त्रों द्वारा सुझाव दिया जाता है कि वे भौतिक आकर्षण के इस तरह के विरोधाभास से मुक्त हो जाएँ. और यह भगवान के भक्तों की संगति से ही संभव है, जिन्हें महात्मा कहा जाता है. कामदेव विपरीत लिंग के पीछे पागल बनाने के लिए जीवों पर अपना तीर चलाते हैं, चाहे वह पक्ष वास्तव में सुंदर हो या न हो. कामदेव के उकासावे जारी हैं, यहाँ तक कि ऐसे पाशविक समाजों में भी जो सभ्य देशों के अनुमान में कुरूप माने जाते हैं. इस प्रकार कामदेव का प्रभाव कुरूप रूपों के बीच भी व्याप्त है, और सबसे उत्तम सुंदरियों का तो कहना ही क्या. भगवान शिव, जिन्हें सबसे अधिक सहिष्णु माना जाता है, वे भी कामदेव के तीर से आहत हो गए थे, क्योंकि वे भी भगवान के मोहिनी अवतार के पीछे पागल हो गए थे और खुद को हारा हुआ मान लिया था. यद्यपि स्वयं कामदेव भाग्य की देवियों के प्रभावी और रोमांचक व्यवहार से मोहित हो गए थे, और उन्होंने हताशा की भावना में अपने धनुष और तीर का त्याग कर दिया था. ऐसे थे भगवान कृष्ण की रानियों की सुंदरता और आकर्षण. फिर भी वे भगवान की पारलौकिक इंद्रियों को विचलित नहीं कर सके. ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान सर्वगुण सम्पन्न, या आत्मनिर्भर हैं. उन्हें अपनी व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए किसी की बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं है. इसलिए, रानियां अपने स्त्रियोचित आकर्षण से प्रभु को संतुष्ट नहीं कर सकती थीं, लेकिन उन्होंने अपने सच्चे स्नेह और सेवा से उन्हें संतुष्ट कर दिया. केवल विशुद्ध रूप से पारलौकिक प्रेममय सेवा द्वारा ही वे भगवान को संतुष्ट कर सकती थीं, और भगवान उन्हें पारस्परिक रूप से पत्नियों के रूप में स्वीकार कर प्रसन्न थे. इस प्रकार केवल उनकी सेवा से संतुष्ट होने के कारण, भगवान ने धर्मपरायण पति के रूप में सेवा का प्रतिफल दिया. अन्यथा बहुत सी पत्नियों का पति बनना भगवान का कार्य नहीं था. वे सभी के पति हैं, लेकिन जो उन्हें इस रूप में स्वीकार करता है, उसे वे प्रतिफल देते हैं. भगवान के प्रति इस विशुद्ध स्नेह की तुलना सांसारिक वासना से कभी नहीं की जानी चाहिए. यह विशुद्ध रूप से पारलौकिक है. और जो प्रभावी व्यवहार, जो रानियों ने सहज स्त्रियोचित ढंग से प्रदर्शित किया था, वह भी पारलौकिक था, क्योंकि भावनाओं को पारलौकिक परम आनंद द्वारा व्यक्त किया गया था. पिछले छंद में यह पहले ही समझाया जा चुका है कि भगवन एक सांसारिक पति की तरह ही प्रकट हुए थे, लेकिन तथ्यात्मक रूप से पत्नियों के साथ उनका संबंध पारलौकिक, शुद्ध और भौतिक प्रकृति की विधियों से निर्बंध था.

अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 11- पाठ 36

सामान्य भौतिक बद्ध आत्माएँ अटकलें लगाती हैं कि भगवान उनमें से एक हैं.

अबुद्धः शब्द यहाँ महत्वपूर्ण है. केवल अज्ञान के कारण, मूर्ख साधारण उपद्रवी परम भगवान को अनुचित ढंग से समझते हैं और अपनी मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं को निर्दोष व्यक्तियों के बीच प्रसारित करते हैं. परम भगवान श्रीकृष्ण ही भगवान के मूल प्रधान व्यक्तित्व हैं, और जब वे सभी के सम्मुख साक्षात् उपस्थित थे, तो उन्होंने कर्म के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण दिव्य शक्ति प्रदर्शित की. वे अपनी इच्छानुसार गतिविधि करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं, लेकिन उनके कार्य-कलाप आनंद, ज्ञान और अमरत्व से परिपूर्ण होते हैं. उनकी विभिन्न शक्तियाँ प्राकृति क्रम की योजना में संपूर्णता से कार्य करती हैं, और उनकी विभिन्न शक्तियों के प्रतिनिधित्व द्वारा कार्य कर रही हैं. वे शाश्वत रूप से परम स्वतंत्र बने रहते हैं. जब वे विभिन्न प्राणियों के प्रति अपनी अहेतुक दया द्वारा भौतिक संसार में उतरते हैं, तो वे ऐसा स्वयं अपनी शक्ति से करते हैं. वे प्रकृति के भौतिक नियमों की किसी भी परिस्थिति के अधीन नहीं हैं, और वे वैसे ही अवतरित होते हैं जैसे वे मूल रूप से हैं. मानसिक अटकल लगाने वाले उन्हें परम व्यक्तित्व के रूप में गलत समझते हैं, और वे उनकी अवैयक्तिक विशेषताओं को सब कुछ होने वाला अबोध्य ब्राह्मण मान लेते हैं. इस तरह की अवधारणा भी बद्ध जीवन का उत्पाद है क्योंकि वे स्वयं अपनी व्यक्तिगत क्षमता से आगे नहीं जा सकते.

इसलिए, वह जो भगवान को उसकी सीमित शक्ति के स्तर पर सोचता है, सामान्य व्यक्ति होता है. ऐसे व्यक्ति को विश्वास नहीं दिलाया जा सकता कि भगवान का परम व्यक्तित्व भौतिक प्रकृति की रीतियों से हमेशा अप्रभावित रहता है.वह यह नहीं समझ सकता कि सूर्य संक्रामक पदार्थ से हमेशा अप्रभावित रहता है. मानसिक कल्पना करने वाले हर वस्तु की तुलना स्वयं अपने प्रयोगात्मक ज्ञान के दृष्टिकोण से करते हैं. इसलिए जब भगवान वैवाहिक बंधन में एक सामान्य व्यक्ति की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं, तो वे उन्हें वैसा ही समझते हैं, बिना यह विचार करे कि भगवान एक ही बार में सहस्त्र या उससे अधिक पत्नियों से विवाह कर सकते हैं. सीमित ज्ञान के चलते वे चित्र के एक ही पक्ष को ही स्वीकार करते हैं जबकि दूसरे पर अविश्वास करते हैं. इसका अर्थ है कि वे केवल अज्ञानतावश ही भगवान कृष्ण को अपने जैसा मानते हैं और अपने ही निष्कर्ष निकालते हैं, जो मूर्खतापूर्ण और श्रीमद्-भागवतम् के मूलपाठ से अप्रमाणिक होते हैं.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 11 – पाठ 37

हमारे जीवन पर खगोलीय प्रभाव

किसी जीव पर नक्षत्रीय प्रभावों की खगोलीय गणनाएँ अनुमान नहीं हैं बल्कि तथ्यात्मक हैं, जैसा कि श्रीमद्-भागवतम् में पुष्टि की गई है. प्रत्येक जीवित प्राणी प्रत्येक क्षण प्रकृति के नियमों के नियंत्रण में होता है, ठीक राज्य की संप्रभुता के प्रभाव से नियंत्रित नागरिक के समान. राज्य के कानून स्थूल रूप से देखे जा सकते हैं, लेकिन भौतिक प्रकृति के नियम, हमारी सकल समझ के लिए सूक्ष्म होने के कारण, स्थूल रूप से अनुभव नहीं किए जा सकते हैं. जैसा कि भगवद्-गीता (3.9) में कहा गया है, जीवन की प्रत्येक क्रिया किसी अन्य प्रतिक्रिया की उत्पादक होती है, जो कि हम पर बंधनकारी है, और केवल वही लोग प्रतिक्रियाओं के बंधन में नहीं बंधे होते हैं जो यज्ञ (विष्णु) के अनुसार कर्म कर रहे हैं. हमारे कर्मों का मूल्यांकन उच्चतर सत्ताओं, भगवान के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है, और इस प्रकार हमारी गतिविधियों के अनुसार हमें शरीर प्रदान किए जाते हैं. प्रकृति का नियम इतना गूढ़ है कि हमारे शरीर का हर भाग संबंधित नक्षत्रों द्वारा प्रभावित होता है, और जीव को उसका कार्यकारी शरीर इसलिए प्राप्त होता है कि वह ऐसे खगोलीय प्रभाव की छलयोजना द्वारा अपने कारावास की अवधि को पूरा कर सके. इस प्रकार किसी पुरुष का भाग्य जन्म समय की नक्षत्र स्थिति द्वारा निश्चित होता है, और किसी गुणी ज्योतिषी द्वारा एक वास्तविक राशिफल बनाया जाता है. यह एक वृहद् विज्ञान है, और किसी विज्ञान का दुरुपयोग उसे अनुपयुक्त नहीं बनाता है.

महाराज परीक्षित या स्वयं भगवान का व्यक्तित्व भी नक्षत्रों की किसी विशिष्ट ग्रहदशा में प्रकट होता है, और इस प्रकार शुभ मुहूर्त में जन्मे शरीर पर उसका प्रभाव पड़ता है. नक्षत्रों की सबसे शुभ स्थिति इस संसार में भगवान के प्रकटन की अवधि में होती है, और उसे विशिष्ट रूप से जयंती कहा जाता है, ऐसा शब्द जिसका दुरुपयोग अन्य उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए. महाराजा परीक्षित न केवल एक महान क्षत्रिय सम्राट थे, बल्कि भगवान के एक महान उपासक भी थे. इसलिए वे किसी अशुभ क्षण में जन्म नहीं ले सकते. किसी आदरणीय व्यक्तित्व की आगवानी के लिए एक उचित स्थान और समय का चयन किया जाता है, इसलिए महाराजा परीक्षित जैसे व्यक्तित्व की आगवानी के लिए भी, जिनकी चिंता स्वयं भगवान ने की थी, एक उचित क्षण चुना गया, जब सभी शुभ नक्षत्र राजा पर अपने प्रभाव डालने के लिए एक साथ इकट्ठे हो गए. इस प्रकार उनका जन्म केवल श्रीमद्-भागवतम् के महान नायक के रूप में ज्ञात होने के लिए ही हुआ. सूक्ष्म प्रभावों की यह उपयुक्त व्यवस्था कभी भी मनुष्य की इच्छा से रचित नहीं होती, बल्कि परम भगवान की संस्था के उच्चतर प्रबंधन की व्यवस्था होती है. निस्संदेह, यह व्यवस्था जीव के अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार ही की जाती है. यहाँ जीवों द्वारा किए गए पुण्य कर्मों का महत्व है. केवल पुण्य कर्मों द्वारा ही व्यक्ति को संपत्ति, अच्छी शिक्षा और सुंदर रूप-रंग प्राप्त होता है. सनातन-धर्म(मानव का शाश्वत जुड़ाव) की शिक्षा के संस्कार शुभ नक्षत्रीय प्रभावों का लाभ लेने के लिए उचित वातावरण रचने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं, और इस प्रकार गर्भाधान-संस्कार, या मानव समाज में पवित्र और बुद्धिमान पुरुषों का वर्ग प्राप्त करने के लिए उच्चतर जातियों के लिए बताई गई अंकुरण शुद्धिकरण प्रक्रिया सभी पवित्र कृत्यों का आरंभ है. केवल अच्छी और स्वस्थ चित्त जनसंख्या के कारण ही विश्व में शांति और समृद्धि होगी; नर्क और व्यवधान केवल इसलिए हैं क्योंकि अनिच्छित, उन्मत्त जन काम क्रिया के आदी हैं.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पहला सर्ग, अध्याय 12- पाठ 12.

भगवान कृष्ण ने भागवद्-गीता का ज्ञान सूर्य-भगवान को दिया.

वैदिक साहित्य उच्चतर ग्रहों में भी पढ़ाया जाता है, जैसा कि भगवान द्वारा सूर्य-भगवान (विवस्वन) को शिक्षा देने का संदर्भ भागवद्-गीता (4.1) में मिलता है, और ऐसी शिक्षा शिष्य उत्तराधिकार में हस्तांतरित की जाती है, जैसा कि सूर्य-भगवान द्वारा उनके पुत्र मनु, और मुन से महाराज इक्ष्वाकु को किया गया था. ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं, और यहाँ संदर्भित मनु सातवें हैं, जो प्रजापतियों (जो संतति उत्पन्न करते हैं) में से एक हैं, और वह सूर्य-भगवान के पुत्र हैं. वे वैवस्वत मनु के रूप में जाने जाते हैं. उनके दस पुत्र थे, और महाराज इक्ष्वाकु उनमें से एक हैं. महाराज इक्ष्वाकु ने अपने पिता, मनु से भागवद्-गीता में पढ़ाया गया भक्ति-योग भी सीखा था, जिन्हें यह शिक्षा अपने पिता सूर्य-भगवान से मिली थी. इसके पश्चात में भगवद्-गीता की शिक्षा महाराज इक्ष्वाकु द्वारा शिष्य परंपरा के माध्यम से जारी रही, लेकिन कालांतर में विवेकहीन व्यक्तियों द्वारा इस श्रंखला को तोड़ दिया गया, और इस प्रकार इसकी शिक्षा कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन को फिर से दिए जाने की आवश्यकता पड़ी. अतः सभी वैदिक साहित्य भौतिक जगत की रचना की शुरुआत से ही विद्यमान हैं, और इस प्रकार वैदिक साहित्य को अपौरुषेय (मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं) के रूप में जाना जाता है. वैदिक ज्ञान भगवान द्वारा कहा और ब्रह्मा द्वारा पहले सुना गया था, जो ब्रह्मांड में सबसे पहले उत्पन्न जीव हैं.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 12 - पाठ 19

हर कोई परम भगवान के नियंत्रण के अधीन है.

प्रत्येक जीव, चाहे इस भौतिक संसार में या आध्यात्मिक संसार में, परम भगवान, भगवान के परम व्यक्तित्व के नियंत्रण में होता है. इस ब्रम्हांड के सर्वेसर्वा, ब्रम्हाजी से प्रारंभ करते हुए, एक क्षुद्र सी चींटी तक, सभी परम भगवान के आदेश का पालन कर रहे हैं. इसलिए जीवों की वैधानिक स्थिति भगवान के नियंत्रण के अधीन होती है. मूर्ख प्राणी, विशेषकर मानव, कृत्रिम रूप से सर्वोच्च के नियम से विद्रोह करता है और इस प्रकार एक असुर, या नियम तोड़ने वाले के रूप में दंड पाता है. किसी प्राणी को किसी विशेष अवस्था में परम भगवान के आदेश के अनुसार रखा जाता है, और उसे उस स्थान से दोबारा परम भगवान या उनके अधिकृत प्रतिनिधि के आदेशानुसार स्थानांतरित किया जाता है. ब्रम्हा, शिव, इंद्र, चंद्र, महाराज युधिष्ठिर, या आधुनिक इतिहास में, नेपोलियन, अकबर, सिकंदर, गांधी, सुभाष और नेहरु सभी भगवान के सेवक हैं, और उन्हें उनके संबंधित स्थानों में स्थापित या वहाँ से निष्काषित भगवान की परम इच्छा से ही किया जाता है. उनमें से कोई भी स्वतंत्र नहीं है. भले ही ऐसे मनुष्य या नेता भगवान की सत्ता को न पहचानते हुए विद्रोह करें, उन्हें विभिन्न कष्टों द्वारा भौतिक संसार के और भी अधिक कठिन नियमों के अधीन रखा जाता है. इसलिए केवल मूर्ख व्यक्ति ही कहता है कि कोई भगवान नहीं है. महाराज युधिष्ठिर को इस नग्न सत्य का विश्वास दिलाया जा रहा था क्योंकि वह अपने वृद्ध काका और काकियों के गमन से बहुत अधिक विव्हल हो गए थे. महाराज धृतराष्ट्र को उस स्थिति में उनके पिछले कर्मों के अनुसार ही रखा गया था; वे पूर्व में ही कष्ट या अपने उपार्जित लाभों का भोग कर चुके थे, लेकिन अपने सौभाग्य के कारण, संयोगवश उनका एक सदाचारी छोट भाई, विदुर था, और उनके निर्देशों पर वे इस भौतिक संसार के सभी खातों को बंद कर चले गए. सामान्यतः व्यक्ति योजना द्वारा उसकी नियत प्रसन्नता या कष्ट को बदल नहीं सकता. सभी को उन्हें काल या अजेय समय की गूढ़ व्यवस्था के अधीन उन्हें वैसा ही स्वीकारना पड़ता है. उन पर प्रतिक्रिया करना उपयोगी नहीं होता. इसलिए सर्वोत्तम यही है कि वयक्ति को मुक्ति पाने का प्रयास करना चाहिए, और यह विशेषाधिकार उसकी विकसित मानसिक गतिविधियों और बुद्धि की अवस्था के कारण केवल मानव को दिया जाता है. केवल मानव के लिए ही अस्तित्व के मानव रूप में ही मुक्ति पाने के विभिन्न वैदिक निर्देश होते हैं. वह जो इस उच्चतर बुद्धि के इस अवसर का दुरुपयोग करता है विभिन्न प्रकार से दंडित किया जाता है और विभिन्न कष्ट भोगता है, इस वर्तमान जीवन में या भविष्य में. यही विधि है जिससे परम भगवान सबको नियंत्रित करते हैं.

स्रोत :अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 13 – पाठ 41

निर्बल ही बलवान का भोजन है. हमें भगवान को भोजन क्यों चढ़ाना चाहिए? क्या हम भगवान को मांस भेंट कर सकते हैं?

अस्तित्व के संघर्ष में निर्वाह के लिए परम इच्छा की ओर से एक व्यवस्थित नियम है, और चाहे कोई कितनी भी योजना बना ले, इससे कोई बच नहीं सकता. परम जीव की इच्छा के विरुद्ध भौतिक संसार में आने वाले जीव एक सर्वोच्च शक्ति के नियंत्रण में हैं जिसे माया-शक्ति कहा जाता है, जो भगवान की नियुक्त प्रतिनिधि है, और यह दैवी माया बद्ध आत्माओं को त्रिविध कष्ट देने के लिए है, जिनमें से एक को इस श्लोक में समझाया गया है: निर्बल ही बलवान का भोजन है. कोई भी इतना बलवान नहीं है जो स्वयं को अपने से अधिक बलवान के आक्रमण से बचा सके, और भगवान की इच्छा से निर्बल, बलवान और सबसे बलवान की व्यवस्थित श्रेणियाँ हैं. यदि एक बाघ किसी मनुष्य सहित, किसी निर्बल पशु को खा जाता है तो इसमें शोक करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यही परम भगवान का नियम है. लेकिन यद्यपि नियम कहता है कि एक मनुष्य को दूसरे जीवित प्राणी पर निर्वाह करना चाहिए, एक अच्छी बुद्धि का नियम भी है, क्योंकि मानव को शास्त्रों के नियमों का पालन भी करना चाहिए. यह अन्य प्राणियों के लिए असंभव है. मनुष्य का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार करना है, और इस उद्देश्य के लिए ऐसा कुछ भी नहीं खाना चाहिए जो पहले भगवान को अर्पित नहीं किया जाता. भगवान अपने भक्त से सब्जियों, फलों, पत्तियों और अनाज से बने सभी प्रकार के व्यंजनों को स्वीकार करते हैं. विभिन्न प्रकार के फल, पत्ते और दूध भगवान को अर्पित किए जा सकते हैं, और भगवान द्वारा भोजन ग्रहण करने के बाद, भक्त प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं, जिससे अस्तित्व के संघर्ष में सभी दुख धीरे-धीरे कम हो जाएंगे. भगवद-गीता (9.26) में इसकी पुष्टि की गई है. वे लोग भी जो पशुओं का भक्षण करने के अभ्यस्त हैं, वे भी भोग लगा सकते हैं, सीधे भगवान को नहीं, किंतु धार्मिक संस्कारों की शर्तों के अधीन भगवान के किसी प्रतिनिधि को. शास्त्रों की निषेध आज्ञाएँ पशुओं के भक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि उन्हें विनियमित सिद्धांतों द्वारा प्रतिबंधित करने के लिए हैं.

जीव अन्य अधिक शक्तिशाली जीवों के निर्वाह का स्रोत है. किसी भी परिस्थिति में किसी को भी अपने निर्वाह के लिए बहुत चिंतित नहीं होना चाहिए क्योंकि हर जगह जीवित प्राणी होते हैं, और कोई भी जीव किसी भी स्थान पर भोजन के लिए भूखा नहीं रहता. महाराजा युधिष्ठिर को नारद द्वारा सुझाव दिया गया कि वे भोजन के अभाव में कष्ट भोग रहे अपने काकाओं के बारे में चिंता न करें, क्योंकि वे परम भगवान के प्रसाद के रूप में जंगलों में उपलब्ध सब्जियों पर जीवित रह सकते हैं और इस तरह मोक्ष के मार्ग का अनुभव कर सकते हैं.

बलवान जीवों द्वारा निर्बल जीवों का शोषण अस्तित्व का प्राकृतिक नियम है; जीवों के विभिन्न राज्यों में निर्बलों का भक्षण करने का प्रयास हमेशा रहता है. भौतिक परिस्थितियों में किसी भी कृत्रिम ढंग से इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने की कोई संभावना नहीं है; इसे केवल आध्यात्मिक नियमों के अभ्यास द्वारा मनुष्य की आध्यात्मिक भावना को जागृत करके ही नियंत्रित किया जा सकता है. यद्यपि, आध्यात्मिक नियामक सिद्धांत व्यक्ति को यह अनुमति नहीं देते कि एक ओर तो वह निर्बल पशुओं की हत्या करे और दूसरी ओर अन्य को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाए. यदि मनुष्य पशुओं को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अनुमति नहीं देता है, तो वह मानव समाज में शांतिपूर्ण अस्तित्व की आशा कैसे कर सकता है? इसलिए अंधे नेताओं को परम सत्ता को समझना चाहिए और फिर भगवान के राज्य को लागू करने का प्रयास करना चाहिए. दुनिया के लोगों के जन मानस में ईश्वर चेतना के जागरण के बिना भगवान का राज्य, या राम-राज्य असंभव है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 13 – पाठ 47

भगवान के आत्म और भगवान के पारलौकिक शरीर में कोई अंतर नहीं होता है.

जब भगवान कृष्ण ब्रम्हा के समय के प्रत्येक 24 घंटे में एक बार (या 8,640,000,000 सौर वर्षों के अंतराल के बाद) प्रत्येक ब्रम्हांड में प्रकट होते हैं, और उनकी सभी पारलौकिक लीलाएँ प्रत्येक ब्रम्हांड में एक नियमित चक्र में प्रदर्शित होती हैं. लेकिन उस नियमित चक्र में भगवान कृष्ण, भगवान वासुदेव, इत्यादि के कार्य सामान्य व्यक्ति के लिए एक जटिल समस्या होते हैं. भगवान के आत्म और भगवान के पारलौकिक शरीर में कोई अंतर नहीं होता. विस्तार अंतरकारी गतिविधियों को कार्यशील करता है. यद्यपि, जब प्रभु, भगवान श्रीकृष्ण के रूप में उनके व्यक्तित्व में प्रकट होते हैं, तो उनके अन्य विस्तृत अंश भी उनके योगमाया नामक अकल्पनीय सामर्थ्य से उनके साथ जुड़ते हैं, औऱ इस प्रकार वृंदावन के भगवान कृष्ण, मथुरा के भगवान कृष्ण या द्वारका के भगवान कृष्ण से भिन्न होते हैं. भगवान कृष्ण का विराट रूप भी उनके अकल्पनीय सामर्थ्य द्वारा उनसे भिन्न होता है. कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में प्रदर्शित उनका विराटरूप उनके रूप का भौतिक आकल्पन है. इसलिए यह समझना चाहिए कि जब भगवान कृष्ण शिकारी के धनुष-बाण द्वारा स्पष्ट रूप से मारे गए थे, तब भगवान अपने तथाकथित भौतिक शरीर को भौतिक संसार में छोड़ गए थे. भगवान कैवल्य हैं, और उनके लिए पदार्थ और आत्मा में कोई अंतर नहीं है क्योंकि प्रत्येक वस्तु की रचना उनके लिए ही की गई है. इसलिए उनका एक प्रकार के शरीर को छोड़ने या एक अन्य शरीर को स्वीकारने का यह अर्थ नहीं है कि वे एक सामान्य जीव के समान हैं. ऐसी सभी गतिविधियाँ उनकी अकल्पनीय शक्ति द्वारा एक साथ ही एक भी होती हैं और भिन्न भी. जब महाराज युधिष्ठिर उनके खो जाने की संभावना पर शोक कर रहे थे, तो वह केवल एक महान मित्र के खो जाने का विलाप करने की परंपरानुसार था, लेकिन वास्तविकता में भगवान अपने पारलौकिक शरीर को कभी नहीं त्यागते हैं, जैसा कि अल्पबुद्धि व्यक्तियों द्वारा गतत समझा जाता है. ऐसे कम बुद्धिमान व्यक्तियों की निंदा स्वयं भगवान द्वारा भगवद्-गीता में की गई है, और उन्हें मूढ़ कहा जाता है. भगवान ने अपना शरीर त्यागा इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने पूर्णांश को संबंधित धामों (पारलौकिक धामों) में त्याग दिया, जैसे उन्होंने अपने विराट रूप को भौतिक संसार में छोड़ दिया था.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 8

भौतिक संपन्नता भगवान की दया पर निर्भर होती है.

भौतिक समृद्धि में अच्छी पत्नी, अच्छे घर, पर्याप्त भूमि, अच्छे बच्चे, कुलीन परिवारिक संबंध, प्रतिस्पर्धियों पर विजय और धर्मनिष्ठ कार्य, भौतिक सुख-सुविधाओं की बेहतर सुविधाओं के लिए उच्चतर आकाशीय ग्रहों में रहने की प्राप्ति शामिल होती है. ये सुविधाएं न केवल किसी के कठिन श्रम से या अनुचित साधनों से, बल्कि परम भगवान की दया से अर्जित की जाती हैं. किसी के व्यक्तिगत प्रयास से अर्जित समृद्धि भी प्रभु की दया पर निर्भर करती है. निजी श्रम भगवान की इच्छा के अतिरिक्त होना चाहिए, लेकिन भगवान के आशीर्वाद के बिना कोई भी व्यक्तिगत श्रम द्वारा सफल नहीं होता. कलियुग का आधुनिक व्यक्ति व्यक्तिगत प्रयास में विश्वास करता है और परम भगवान के वरदान को नकारता है. यहाँ तक कि भारत के एक महान संन्यासी ने शिकागो में भाषण दिया और परम भगवान के वरदानों का विरोध किया. लेकिन जहाँ तक वैदिक शास्त्रों का प्रश्न है, जैसा कि हम श्रीमद- भागवतम के पन्नों में पाते हैं, समस्त सफलता के लिए परम अनुमति परम भगवान के हाथों में ही है. महाराजा युधिष्ठिर ने अपनी व्यक्तिगत सफलता में इस सच्चाई को स्वीकार किया, और यह व्यक्ति को अपना जीवन सफल बनाने के लिए एक महान राजा और भगवान के भक्त के पदचिन्हों पर चलने के लिए प्रासंगिक बनाता है. यदि व्यक्ति भगवान की अनुमति के बिना सफलता प्राप्त कर सकता है तो कोई भी चिकित्सक किसी रोगी को ठीक करने में विफल नहीं होगा. सबसे उन्नत चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के सबसे उन्नत उपचार के बाद भी मृत्यु हो जाती है, और सबसे निराशाजनक प्रसंग में, उपचार के बिना भी कोई रोगी आश्चर्यजनक रूप से ठीक हो जाता है. इसलिए निष्कर्ष यह है कि भगवान की अनुमति सभी अच्छी या बुरी घटनाओं के लिए प्रत्यक्ष कारण होती है. किसी भी सफल व्यक्ति को भगवान के प्रति कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिए.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 14- पाठ 9

भौतिक प्रकृति की तीन अवस्थाओं के बाध्यकारी प्रभाव कभी भी नहीं जीते जा सकते.

सभ्यता की भौतिक उन्नति का अर्थ है खगोलीय प्रभाव के कारण तीन गुना दुख की प्रतिक्रियाओं की प्रगति, धरती की प्रतिक्रिया औऱ शारीरिक या मानसिक कष्ट. नक्षत्रों के खगोलीय प्रभाव से अत्यधिक गर्मी, ठंड, बारिश या बारिश नहीं होने जैसी कई आपदाएँ होती हैं, और उसके परिणाम स्वरूप अकाल, बीमारी और महामारी होते हैं. कुल परिणाम शरीर और मन की पीड़ा है. मानव निर्मित भौतिक विज्ञान इन त्रिविध दुखों का मुकाबला करने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता है. वे सभी परम भगवान के निर्देश के अधीन माया की उच्चतर ऊर्जा की ओर से दंड हैं. इसलिए भक्ति सेवा द्वारा भगवान के साथ हमारा निरंतर संपर्क हमारे मानवीय कर्तव्यों के निर्वहन में व्यवधान डाले बिना हमें राहत दे सकता है. यद्यपि, असुर, जो भगवान के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं, इन त्रिविध दुखों का मुकाबला करने के लिए अपनी योजना बनाते हैं, और इसलिए उन्हें हर बार विफलता मिलती है. भगवद-गीता (7.14) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीन अवस्थाओं के बाध्यकारी प्रभाव के कारण भौतिक ऊर्जा की प्रतिक्रिया को कभी नहीं जीता जा सकता. उन्हें केवल उसके द्वारा जीता जा सकता है जो पूर्ण रूप से भगवान के चरण कमलों में समर्पण करता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 14- पाठ 10

भगवान की इच्छा के बिना घास का एक तिनका भी नहीं हिलता.

मानवशास्त्रियों के अनुसार, अस्तित्व के लिए संघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता का प्रकृति का नियम है. लेकिन वे नहीं जानते कि प्रकृति के नियम के पीछे भगवान के परम व्यक्तित्व के परम निर्देश का हाथ होता है. भगवद्-गीता में यह पुष्टि की गई है कि प्रकृति का नियम भगवान के निर्देशन के अधीन ही निष्पादित किया जाता है. इसलिए, संसार में जब भी शांति होती है, तो यह जानना चाहिए कि ऐसा भगवान की सदिच्छा के कारण ही है. और जब भी संसार में अशांति हो, तो वह भी भगवान की परम इच्छा से ही होता है. भगवान की इच्छा के बिना तृण का एक तिनका भी नहीं हिलता. इसलिए, जब भी भगवान द्वारा निष्पादित किए गए स्थापित नियमों का उल्लंघन किया जाता है, तो मनुष्यों और राष्ट्रों में युद्ध होता है. इसलिए, शांति के पथ का सुनिश्चित मार्ग सभी वस्तुओँ का भगवान के स्थापित नियम से सामंजस्य बनाना ही है.

स्थापित नियम यही है कि हम जो कुछ भी करें, हम जो कुछ भी खाएँ, हम जो कुछ भी बलि दें या जो कुछ भी दान करें वह भगवान की पूर्ण संतुष्टि के लिए ही करा जाना चाहिए. किसी को भी भगवान की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करना, कुछ भी खाना, कोई बलि या दान नहीं देना चाहिए. विवेक वीरता का श्रेष्ठतर भाग होता है, और व्यक्ति को उन कर्मों के बीच अंतर करना सीखना चाहिए जो भगवान को प्रिय हो सकते हैं और जो उनके लिए प्रसन्नकारी न हों. इसलिए कर्म को भगवान की प्रसन्नता और अप्रसन्नता द्वारा आँका जाता है. व्यक्तिगत इच्छा के लिए कोई स्थान नहीं होता; हमारी पथ-प्रशस्ति हमेशा भगवान की प्रसन्नता द्वारा होनी चाहिए. ऐसे कर्म को योगः कर्मषु कौशलम्, या परम भगवान के साथ जुड़े हुए निष्पादित कर्म कहा जाता है. वही पूर्णता से किसी कर्म को करने की कला है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 15 – पाठ 24

मानव रूप भौतिक प्रकृति का विशेष उपहार है.

कम बुद्धिमान व्यक्ति जीवन के मानव रूप का वास्तविक मूल्य नहीं जानते हैं. भौतिक प्रकृति द्वारा जीवों पर दुखों के कड़े नियमों का निष्पादन करने के दौरान उसका एक विशेष उपहार है. यह जीवन का सर्वोच्च वरदान प्राप्त करने का अवसर, अर्थात् बार-बार जन्म और मृत्यु के उलझाव से बाहर निकलने का अवसर होता है. बुद्धिमान लोग पूर्ण रूप से उलझाव से बाहर निकलने का प्रयास करते हुए इस महत्वपूर्ण उपहार की देखभाल करते हैं. लेकिन कम बुद्धिमान लोग आलसी हैं और भौतिक बंधन से मुक्ति पाने के लिए मानव शरीर के उपहार का मूल्यांकन करने में असमर्थ हैं; वे तथाकथित आर्थिक विकास में अधिक रुचि रखते हैं और बस भंगुर शरीर की इंद्रिय तुष्टि के लिए जीवन भर कड़ा श्रम करते हैं. प्रकृति के नियमों द्वारा हीनतर पशुओँ को भी भोग की अनुमति होती है, और इस प्रकार एक मनुष्य को भी उसके पिछले या वर्तमान जीवन के अनुसार एक निश्चित मात्रा में आनंद भोग प्राप्त होता है. लेकिन व्यक्ति को यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि इंद्रिय भोग मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं होता है. यहाँ ऐसा कहा गया है कि दिन के समय में व्यक्ति “किसी भी वस्तु के लिए नहीं” कार्य करता क्योंकि लक्ष्य कुछ नहीं केवल इंद्रिय भोग होता है. हम विशेष रूप से अवलोकन कर सकते हैं कि महान नगरों और औद्योगिक नगरों में मानव बिना किसी कारण व्यस्त होता है. मानव ऊर्जा द्वारा निर्मित बहुत सी वस्तुएँ हैं, लेकिन वे सभी इंद्रिय भोग के लिए हैं, न कि भौतिक बंधन से बाहर निकलने के लिए. और दिन के समय कड़ा श्रम करने के बाद, एक थका हुआ व्यक्ति रात में या तो सोता है या यौन व्यवहार में रत रहता है. यह कम बुद्धिमानों के लिए भौतिकवादी सभ्य जीवन का कार्यक्रम होता है. इसलिए वे यहाँ आलसी, हतभागी और अल्प जीवन के रूप में नियुक्त हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 16- पाठ 9

कलियुग के लक्षण.

कलि के इस युग में संसार के लोग हमेशा चिंतित रहते हैं. सभी लोग किसी प्रकार के रोग से ग्रस्त हैं. इस युग के लोगों के मुख से ही, व्यक्ति मन के संकेत का पता लगा सकता है. सभी लोग घर से दूर अपने संबंधी की अनुपस्थिति का अनुभव करते हैं. कलियुग का एक विशेष लक्षण है कि कोई भी परिवार साथ रहने के लिए अनुग्रहित नहीं है. जीविकोपार्जन के लिए पिता अपने पुत्र से किसी दूरस्थ स्थान पर रहता है, या पत्नी अपने पति से बहुत दूर रहती है आदि. आंतरिक रोगों की पीड़ा, अपने सगे संबंधियों और प्रियजनों से अलगाव, और प्रतिष्ठा बनाए रखने की चिंताएँ हैं. यही सब महत्वपूर्ण घटक हैं जो इस युग के लोगों को सदैव अप्रसन्न रखते हैं. कलियुग की प्रगति के साथ, विशेषकर चार बातें, जीवन की अवधि, दया, स्मरण शक्ति, और नैतिक या धार्मिक सिद्धांत, धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं. चूँकि धर्म, या धर्म के सिद्धांत, चार में से तीन के अनुपात में लुप्त हो जाएंगे, प्रतीकात्मक बैल केवल एक पैर पर खड़ा था. जब समस्त संसार की तीन चौथाई जनसंख्या अधार्मिक हो जाएगी तब पशुओं के लिए परिस्थिति नर्क जैसी हो जाएगी. कलियुग में, भगवानहीन सभ्यता कई सारे तथा-कथित धार्मिक समाज की रचना कर लेगी जिनमें भगवान के परम व्यक्तित्व प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवहेलना की जाएगी. और इस प्रकार मानवों के आस्थाहीन समाज स्वस्थचित्त लोगों के समूह के लिए निवास के लिए इस संसार को अनुपयुक्त बना देंगे. भगवान के परम व्यक्तित्व में आनुपातिक आस्था के संदर्भ में मानव के वर्गीकरण हैं. प्रथम श्रेणी के आस्थावान पुरुष वैष्णव और ब्राह्मण हैं, फिर क्षत्रिय, फिर वैश्य, फिर शूद्र, फिर म्लेच्छ, यवन और सबसे अंतिम चांडाल होते हैं. मानव वृत्ति का ह्रास म्लेच्छों से प्रारंभ होता है, और जीवन की चांडाल अवस्था मानवीय ह्रास की अंतिम स्थिति है. वैदिक साहित्य में उल्लिखित सभी उक्त शब्द किसी विशेष समुदाय या जन्म के लिए कभी नहीं थे. वे सामान्य रूप से मनुष्यों की विभिन्न योग्यताएं हैं. जन्मसिद्ध अधिकार या समुदाय का कोई प्रश्न नहीं है. व्यक्ति अपने स्वयं के प्रयासों से संबंधित योग्यता प्राप्त कर सकता है, और इस प्रकार वैष्णव का पुत्र म्लेच्छ भी बन सकता है, या चांडाल का पुत्र ब्राह्मण से भी उच्च हो सकता है, सभी परम भगवान के साथ अपनी संगति और अंतरंग संबंध के संदर्भ में. मांसाहारियों को सामान्यतः म्लेच्छ कहा जाता है. लेकिन मांसाहारी म्लेच्छ नहीं होते. जो लोग मांस को शास्त्रों के अनुसार स्वीकार करते हैं वे म्लेच्छ नहीं होते, लेकिन जो किसी भी प्रतिबंध के बिना मांस स्वीकार करते हैं उन्हें म्लेच्छ कहा जाता है. गौमांस शास्त्रों में प्रतिबंधित है, और वेदों के अनुयायिओं द्वारा बैलों और गायों को विशेष सरंक्षण दिया जाता है. लेकिन इस कलियुग में, लोग बैल और गाय के शरीर का मनचाहा शोषण करेंगे, और इस प्रकार वे विभिन्न प्रकार के कष्टों को आमंत्रित करेंगे. इस युग के लोग कोई भी त्याग नहीं करेंगे. म्लेच्छ जनसंख्या त्यागों के लिए बहुत कम चिंता करेगी, यद्यपि त्याग करना उन लोगों के लिए आवश्यक है जो भौतिक रूप से इंद्रिय भोग में रत होते हैं. भगवद्-गीता में त्याग करने पर बहुत बल दिया गया है (भ.गी. 3.14-16). जीवों की रचना, रचनाकार ब्रम्हा द्वारा की जाती है, और केवल निर्मित जीवों के वापस परम भगवान की ओर प्रगतिशील पालन के लिए ही, त्याग करने की प्रणाली भी उन्हीं के द्वारा बनाई गई है. व्यवस्था यह है कि जीव अन्न और शाकों की उपज पर जीवित रहते हैं, और इस प्रकार का भोजन करके वे रक्त और वीर्य के रूप में शरीर का आवश्यक बल पाते हैं, और रक्त और वीर्य से एक जीव अन्य जीवों कि रचना करने में सक्षम होता है. लेकिन अन्न और शाक, इत्यादि का उत्पादन वर्षा द्वारा संभव होता है, और उचित रूप से वर्षा के लिए सुझाई गई बलियाँ होती हैं. इस प्रकार के बलिदान सामवेद, यजुर्वेद, ऋग्वेद, और अथर्ववेद नाम के वेदों के संस्कारों द्वारा निर्दिष्ट होते हैं. मनु-स्मृति में सुझाया गया है कि अग्नि के वेदी पर बलि देने से सूर्य भगवान प्रसन्न होते हैं. जब सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं, तो वे समुद्र से समुचित मात्र में जल एकत्र करते हैं, और इस प्रकार क्षितिज पर पर्याप्त मेघ एकत्रित होते हैं और वर्षा होती है. पर्याप्त जलवृष्टि के बाद, सभी मानवों और पशुओं के लिए अन्न का पर्याप्त उत्पादन होता है, और इस प्रकार प्राणियों में विकासशील गतिविधियों के लिए ऊर्जा आती है. यद्यपि, म्लेच्छ अन्य पशुओं के साथ ही बैलों और गायों के वध के लिए वधशालाएँ बनाने की योजना बनाते हैं. यह सोच कर कि वे कारखानों की संख्या बढ़ाकर और बिना बलि या अन्न के उत्पादन की चिंता किए, समृद्ध होंगे. लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि पशुओं के लिए भी उन्हें घास और शाकों का उत्पादन करना होगा, अन्यथा पशु जीवित नहीं रह सकते हैं. और पशुओं के लिए घास का उत्पादन करने के लिए, उन्हें पर्याप्त वर्षा की आवश्यकता होती है. इसलिए उन्हें अतंतः सूर्य-देव, इंद्र और चंद्र जैसे देवताओं की दया पर निर्भर होना पड़ेगा, औऱ ऐसे देवताओं को बलि से संतुष्ट किया जाना आवश्यक है. यह भौतिक संसार एक प्रकार का कारागृह है, जैसा कि हमने कई बार बताया है. देवता भगवान के सेवक हैं जो इस कारावास के उचित रख-रखाव का ध्यान रखते हैं. ये देवता देखना चाहते हैं कि उन विद्रोही जीवों को धीरे-धीरे भगवान की परम शक्ति की ओर उन्मुख किया जाए, जो आस्थाहीन रूप से जीवित रहना चाहते हैं. इसलिए, शास्त्रों में बलि करने का सुझाव दिया गया है. भौतिकवादी पुरुष इन्द्रिय भोग के लिए कठिन परिश्रम करना चाहते हैं और फलदायक परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं. इस प्रकार वे जीवन के प्रत्येक चरण पर वे हर प्रकार के पाप कर रहे हैं. यद्यपि, जो सचेत रूप से प्रभु की भक्ति सेवा में लगे रहते हैं, पाप और पुण्य के सभी प्रकारों के परे होते हैं. उनकी गतिविधियाँ भौतिक प्रकृति की तीन अवस्थाओं के प्रदूषण से मुक्त होती हैं. भक्तों के लिए सुझाए हुए बलिदानों की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि भक्त का जीवन ही बलि का प्रतीक होता है. लेकिन जो लोग इंद्रिय सुख के लिए फलदायी गतिविधियों में लगे होते हैं उन्हें निर्दिष्ट बलियां करनी होती हैं क्योंकि फलदायी कार्य करने वालों द्वारा किए गए सभी पापों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त होने का एकमात्र साधन यही है. बलिदान ऐसे संचित पापों का प्रतिकार करने का साधन होता है. जब ऐसी बलियाँ दी जाती हैं तो देवता प्रसन्न होते हैं, वैसे ही जैसे कारागृह के अधिकारी संतुष्ट हो जाते हैं जब बंदी आज्ञाकारी कर्ताओं में बदल जाते हैं. भगवान चैतन्य, यद्यपि, केवल एक यज्ञ, या बलिदान का सुझाव दिया है, जिसे संकीर्तन यज्ञ, हरे कृष्ण का जाप, कहते हैं, जिसमें हर कोई भाग ले सकता है. अतः भक्त और फल के अभिलाषी कार्यकर्ता दोनों ही संकीर्तन-यज्ञ के निष्पादन से समान लाभ ले सकते हैं. नीच पशुओं के साथ जीवन की कुछ समान आवश्याकताएँ होती हैं, और वे खा रहे हैं, सो रहे हैं, डर रहे हैं और संभोग कर रहे हैं. ये शारीरिक आवश्यकताएँ पशुओं औऱ मानवों दोनों के लिए होती हैं. लेकिन मानव को इन आवश्यकताओं की पूर्ति पशुओं के जैसे नहीं, बल्कि मानवों के जैसे करनी होती है. एक कुत्ता सार्वजनिक रूप से किसी कुतिया के साथ निस्संकोच संसर्ग कर सकता है, लेकिन यदि कोई मनुष्य ऐसा करता है तो उस कृत्य को सार्वजनिक विघ्न माना जाएगा, और उस व्यक्ति पर आपराधिक प्रकरण बनाया जाएगा. इसलिए मनुष्यों के लिए सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी कुछ नियम और विनियम होते हैं. मानव समाज जब कलियुग से प्रभावित होता है तो ऐसे नियमों को टालता है. इस युग में, लोग जीवन की ऐसी आवश्यकताओं की पूर्ति में नियम और विनियमों का पालन किए बिना रत रहते हैं, और ऐसे पाशविक व्यवहार के हानिकारक प्रभाव के कारण सामाजिक और नैतिक नियमों की यह गिरावट निश्चित रूप से शोचनीय है. इस युग में, पिता और अभिभावक अपने बच्चों के व्यवहार से प्रसन्न नहीं हैं. उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके अबोध बच्चे इस कलियुग के प्रभाव से उपजी बुरी संगत से पीड़ित हैं. हम श्रीमद्-भागवतम् से जानते हैं कि एक ब्राम्हण का अबोध पुत्र, अजामिल जब सड़क पर जा रहा था और उसने एक शूद्र युगल को कामुक रूप से संसर्ग करते देख लिया. इस कृत्य ने बालक को आकर्षित किया, और बाद में बालक समस्त व्याभिचारों का शिकार बना. एक विशुद्ध ब्राम्हण से, वह एक अधम दुष्ट की अवस्था में पतित हो गया, और यह सब कुसंगति के कारण हुआ. उन दिनों में केवल अजामिल जैसा ही शिकार हु्आ था, लेकिन इस कलियुग में बेचारे अबोध विद्यार्थी प्रतिदिन सिनेमा के शिकार बनते हैं जो पुरुषों को केवल यौन आसक्ति की ओर आकर्षित करता है. तथाकथित प्रशासक क्षत्रिय के व्यवहार के प्रति अशिक्षित हैं. क्षत्रिय प्रशासन के लिए होते हैं, जैसे कि ब्राम्हण ज्ञान और मार्गदर्शन के लिए होते हैं. क्षत्र-बंधु शब्द का आशय प्रशासकों या उन व्यक्तियों से होता है जिन्हें सांस्कृतिक और परंपरा के किसी उचित प्रशिक्षण के बिना ही प्राशासनिक पद पर पदोन्नत कर दिया जाता है. आजकल उन्हें ऐसे उच्च पदों पर ऐसे लोगों के मत से पदोन्नत कर दिया जाता है जो जीवन के नियमों और विनियमों के प्रसंग में स्वयं पतित हैं. ऐसे लोग किस प्रकार एक उचित व्यक्ति का चयन कर सकते हैं जब वे स्वयं ही जीवन के मानकों में पतित हों? इसलिए, कलियुग के प्रभाव से, सभी ओर, राजनीतिक, सामाजिक या धार्मिक स्तर पर सभी कुछ उलट-पुलट है, औऱ इसलिए सचेत व्यक्ति के लिए यह सब खेदजनक है. कलियुग की प्रगति के साथ, लोग बहुत अहंकारी बन रहे हैं, और स्त्रियों तथा नशे पर आसक्त हो रहे हैं. कलियुग के प्रभाव से, एक दरिद्र भी अपने एक पैसे पर अहंकार रखता है, स्त्रियाँ पुरुषों के मन को शिकार बनाने के लिए हमेशा अत्यधिक भड़कीले वस्त्र पहने रहती हैं, और पुरुष मदिरा पीने, धुम्रपान करने, चाय पीने और तंबाखू चबाने इत्यादि के व्यसन में है. ये सभी आदतें, या सभ्यता की तथा-कथित प्रगति ही सभी अधार्मिकताओं का मूल कारण हैं, और इसलिए भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और भाई-भतीजावाद पर रोक लगाना असंभव है. मनुष्य बस वैधानिक कार्यवाहियों और पुलिस की पहरेदारी से इन सभी बुराइयों पर नियंत्रण नहीं कर सकता, लेकिन वह उचित औषधि से मन के रोग का उपचार कर सकता है, जैसे ब्राम्हण संस्कृति या आत्मसंयम, स्वच्छता, दया और सच्चाई. आधुनिक स्भ्यता और आर्थिक विकास ग्राहक की वस्तुओं का भयादोहन के परिणाम के साथ निर्धनता और अभाव की नयी परिस्थिति को जन्म दे रहे हैं. यदि समाज के नेता और संपन्न व्यक्ति अपनी सिंचित संपत्ति का पचास प्रतिशत पथभ्रष्ट लोगों के लिए दया के साथ व्यय करें और उन्हें भगवान की चेतना, भागवतम के ज्ञान, की शिक्षा दें, तो निश्चित ही बद्ध आत्माओं को जाल में लेने के प्रयास में कलियुग हार जाएगा. हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि झूठा अहंकार, या जीवन मूल्यों के बारे में व्यक्ति का अपना बहुत ऊँचा आकलन, स्त्रियों के प्रति या उनकी संगति की अनुचित आसक्ति, और नशा मानव सभ्यता को शांति के पथ से विलग कर देगा, यद्यपि लोग शांति के लिए कितना भी शोर मचा लें. भागवतम् के सिद्धांतों का उपदेश स्वतः ही सभी व्यक्तियों को सादगीपूर्ण, आंतरिक और बाह्य रूप से निर्मल, कष्टों के प्रति दयावान, और दैनिक व्यवहार में सच्चा बनाएगा. यही मानव समाज की त्रुटियों को ठीक करने का ढंग है, जो कि वर्तमान क्षण में बहुत प्रमुखता से प्रदर्शित हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 16- पाठ 19, 20 व 22
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 17- पाठ 24

शास्त्रों के अनुसार धर्म के क्या सिद्धांत हैं?

महाराज परीक्षित का अनुसरण करते हुए, राज्य के सभी प्रमुख अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे सुनिश्चित करें कि तप, स्वच्छता, दया और सत्य नामक धर्म के सिद्धांत राज्य में स्थापित हों, और अधर्म के सिद्धांत, अहंकार, अवैध स्त्री संबंध या वेश्यावृत्ति, नशा और असत्य को हर संभव विधि से रोका जाए. धर्म के सिद्धांत कुछ रूढ़ियों या मानव-निर्मित फ़ार्मुलों पर नहीं खड़े होते हैं, बल्कि वे चार नियमों, जैसे तपस्या, स्वच्छता, दया और सच्चाई के पालन पर निर्भर होते हैं. लोगों को बचपन से ही बड़े पैमाने पर इन सिद्धांतों का पालन करना सिखाया जाना चाहिए. तपस्या का अर्थ स्वेच्छा से उन चीजों को स्वीकार करना है जो शरीर के लिए बहुत आरामदायक नहीं हो सकती हैं, लेकिन आध्यात्मिक बोध के लिए अनुकूल होती हैं, उदाहरण के लिए, उपवास. महीने में दो बार या चार बार उपवास करना एक प्रकार की तपस्या है जिसे केवल आध्यात्मिक रूप से आत्मिक बोध के लिए स्वीकार किया जा सकता है, न कि राजनीतिक या अन्य किसी उद्देश्य के लिए. जो उपवास आत्म-साक्षात्कार के लिए नहीं बल्कि अन्य उद्देश्य के लिए हो, भगवद्-गीता (17.5-6) में उनकी निंदा की गई है.

उसी समान, स्वच्छता मन और शरीर दोनों के लिए आवश्यक है. केवल शारीरिक स्वच्छता कुछ हद तक मदद कर सकती है, लेकिन मन की सफाई आवश्यक है, और भगवान का गुणगान करने से इस पर प्रभाव पड़ता है. परम भगवान की महिमा के बिना कोई भी वयक्ति इकट्ठी हो गई मानसिक धूल को साफ नहीं कर सकता है. एक ईश्वरविहीन सभ्यता मन को शुद्ध नहीं कर सकती क्योंकि उसे ईश्वर का कोई पता नहीं है. और बस इसी कारण एसी सभ्यता के लोग अच्छी शिक्षा नहीं ले सकते, हालाँकि वे भौतिक रूप से वे साधन संपन्न हों. हमें चीज़ों को उनके परिणामी कर्मों से देखना होगा. कलियुग में मानव सभ्यता का परिणामी कर्म असंतोष है, इसलिए हर कोई मन की शांति पाने के लिए चिंतित है. मन की यह शांति सतयुग में मानव के उपरोक्त गुणों के अस्तित्व के कारण पूर्ण थी. त्रेता-युग में ये गुण धीरे-धीरे कम होकर तीन चौथाई रह गए, द्वापर में आधे, और कलियुग में केवल एक चौथाई, और वर्तमान असत्य के कारण वह भी धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं. अहंकार, चाहे कृत्रिम या वास्तविक, द्वारा तपस्या का परिणामी कर्म बेकार हो जाता है; नारी के समागम के अत्यधिक आकर्षण के कारण, स्वच्छता नष्ट हो जाती है; नशे की अत्य़धिक व्यसन के कारण, दया नष्ट हो जाती है; और अत्धिक झूठे प्रचार के कारण, सत्य का नाश हो जाता है. भगवत्-धर्म का पुनरुत्थान मानव सभ्यता को सभी प्रकार की बुराइयों का शिकार होने से बचा सकता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 17 - पाठ 25-38

धर्म के प्रचार के लिए शास्त्रों का क्या परामर्श है?

धर्म के सिदंधांतों, जैसे तप, स्वच्छता, दया और सत्य का पालन किसी भी धर्म के अनुयायी द्वारा किया जा सकता है. हिंदू से मुस्लिम, ईसाई या किसी अन्य पंथ में परिवर्तन करने और इस प्रकार स्वधर्मत्यागी बनने और धर्म के सिद्धांतों का उल्लंघन करने की आवश्यकता नहीं है. भागवतम् धर्म, धर्म के सिद्धांतों का पालन करने पर बल देता है. धर्म के सिद्धांत किसी निश्चित पंथ के सिद्धांत या नियामक सिद्धांत नहीं हैं. विशिष्ट समय और स्थान के संदर्भ में इस तरह के नियामक सिद्धांत भिन्न हो सकते हैं. यह देखना चाहिए कि धर्म के उद्देश्य प्राप्त हुए हैं या नहीं. वास्तविक सिद्धांतों को प्राप्त किए बिना हठधर्मिता और सूत्रों से चिपके रहना अच्छा नहीं है. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य किसी विशेष प्रकार के पंथ के प्रति निष्पक्ष हो सकता है, लेकिन राज्य ऊपर वर्णित धार्मिक सिद्धांतों के प्रति उदासीन नहीं रह सकता. किंतु कलियुग में राज्य के अधिकारी ऐसे धार्मिक सिद्धांतों के प्रति उदासीन होंगे, और इसलिए उनके संरक्षण में धार्मिक सिद्धांतों के विरोधी, जैसे लोभ, असत्य, छल और चोरी, स्वाभाविक रूप से पनपेंगे, और इसलिए राज्य में भ्रष्टाचार रोकने के भ्रामक प्रचार का कोई अर्थ नहीं होगा.

इसलिए राज्य को श्रेणीगत रूप से समस्त जुआ, मद्यपान, वेश्यावृत्ति और असत्य को रोकना चाहिए. जो राज्य भ्रष्टाचार को बड़े स्तर पर मिटाना चाहते हैं वे निम्नलिखित विधियों से धर्म के सिद्धांतों को लागू कर सकते हैं:

1 यदि अधिक नहीं तो, महीने में दो अनिवार्य उपवास. आर्थिक दृष्टि से भी राज्य में महीने में दो दिन के उपवास से टनों भोजन बचेगा, और यह प्रणाली नागरिकों के सामान्य स्वास्थ्य पर भी बहुत अनुकूल प्रभाव डालेगी.

2. चौबीस वर्षों के युवा और सोलह वर्षीय आयु की युवतियों का विवाह अनिवार्य रूप से हो जाना चाहिए. विद्यालयों और महाविद्यालयों में संयुक्त शिक्षा में कोई हानि नहीं है, बशर्ते युवक और युवतियों का विवाह हो चुका हो, और यदि प्रसंगवश किसी पुरुष और स्त्री छात्र में कोई अंतरंग संबंध हो, तो अनैतिक संबंध के बिना उचित विधि से उनका विवाह हो जाना चाहिए. तलाक नियम वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दे रहा है, और इसे समाप्त करना चाहिए.

3. राज्य के नागरिकों को राज्य या मानव समाज में आध्यात्मिक वातावरण बनाने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से अपनी आय का पचास प्रतिशत तक दान में देना चाहिए. उन्हें निम्न द्वारा भागवतम् के सिद्धांतों का उपदेश देना चाहिए (अ) कर्म-योग, या हर कर्म भगवान की संतुष्टि के लिए करना, (ब) विद्वत जनों या आत्म ज्ञानियों से श्रीमद्-भागवतम् सुनना चाहिए, (स) घर या पूजा स्थलों पर प्रभु की महिमा का जाप करना, (द) श्रीमद्-भागवतम् के उपदेश में रत सभी भागवतों की सभी प्रकार से सेवा करना और (ई) ऐसे निवास में रहना जहाँ का वातावरण भगवान की चेतना से परिपूर्ण हो. यदि राज्य उपरोक्त प्रक्रिया द्वारा संचालित हो, तो स्वाभाविक रूप से वहाँ सभी ओर भगवान की चेतना व्याप्त होगी.

सभी प्रकार का जुआ, चाहे वह लाभ के व्यापार का उद्यम हो, उसे असम्मानजनक माना जाता है, और जब किसी राज्य में जुआ प्रोत्साहित किया जाता है, तो वहाँ सत्य पूरी तरह से अदृश्य हो जाता है. युवक युवतियों को ऊपर वर्णित आयु से अधिक अविवाहित रहने की अनुमति देना और सभी प्रकार की पशु वधशालाओं को लायसेंस देना तुरंत प्रतिबंधित होना चाहिए. मांसाहारियों को शास्त्रों के अनुसार मांस लेने की अनुमति दी जा सकती है, अन्यथा नहीं. सभी प्रकार का नशा–चाहे सिगरेट पीना, तमाखू खाना या चाय पीना–प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 17 - पाठ 32 और 38

शास्त्रों में मदिरा पीने और बलि द्वारा मांस भक्षण की अनुमति क्यों दी गई है?

अधार्मिकता के मूल सिद्धांत जैसे अहंकार, वेश्यावृत्ति, नशा और असत्य, धर्म के चार सिद्धांतों, तपस्या, स्वच्छता, दया और सत्य का प्रतिकार करते हैं. कलि के व्यक्ति्व को राजा द्वारा निर्दिष्ट चार स्थानों, जुआ खेलने का स्थान, वेश्यावृत्ति का स्थान, मदिरापान का स्थान और पशु बलि के स्थान पर रहने की अनुमति दी गई थी. श्रील जीव गोस्वामी निर्देश करते हैं कि शास्त्रों के सिद्धांतों के विरुद्ध मदिरापान करना जैसे शौत्रमणियज्ञ, विवाह से इतर स्त्रियों से संबंध रखना, और शास्त्रों के सिद्धांतों के विरुद्ध पशु हत्या करना अधर्म है. वेदों में प्रवृत्तों, या जो भौतिक भोग में लगे हुए लोग हैं, उनके लिए दो भिन्न प्रकार के निषेध हैं. प्रवृत्तों के लिए वैदिक निषेध धीरे-धीरे उनकी गतिविधियों को मुक्ति के मार्ग में नियमित करना है. इसलिए, वे जो अज्ञान की सबसे निचली पायदान पर हैं और वे जो मदिरा, स्त्रियों और मांस का उपभोग करते हैं, उन्हें कुछ बार शौत्रमणि-यज्ञ का आयोजन करके मदिरापान करने, विवाह द्वारा स्त्रीगमन करने और बलि द्वारा मांस-भक्षण करने का सुझाव दिया जाता है. वैदिक साहित्य में ऐसे सुझाव पुरुषों के एक विशेष वर्ग के लिए हैं, सभी के लिए नहीं. लेकिन चूँकि वे विशेष प्रकार के व्यक्तियों के लिए वेदों के आज्ञाएँ हैं, प्रवृत्तों द्वारा ऐसे कार्यों को अधर्म नहीं माना गया है. किसी एक व्यक्ति का भोजन दूसरों के लिए विष हो सकता है; इसी समान, अज्ञानी लोगों के लिए जो सुझाव दिए गए हैं वे श्रेष्ठ व्यक्तियों के लिए विष हो सकते हैं. श्रील जीवा गोस्वामी प्रभु, इस बात की पुष्टि इसलिए करते हैं कि शास्त्रों में पुरुषों के एक निश्चित वर्ग के लिए उचित बातों को कभी भी अधार्मिक नहीं माना जाता है. परंतु ऐसी गतिविधियाँ वास्तविक रूप में अधर्म ही हैं, और उन्हेंप्रोत्साहित नहीं करना चाहिए. शास्त्रों के सुझाव इस प्रकार अधर्म के प्रोत्साहन के लिए नहीं हैं, बल्कि आवश्यक अधर्म को धीरे-धीरे धर्म के मार्ग पर लाने के लिए मर्यादित करने के लिए हैं.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 17 - पाठ 38

अर्जुन भगवद् गीता का माध्यम थे जबकि उनके पोते परीक्षित श्रीमद् भागवतम् के लिए माध्यम बने.

परम भगवान अपने सच्चे भक्तों के प्रति बड़े दयालु हैं और सही समय पर ऐसे भक्तों को अपने पास बुला लेते हैं और इस प्रकार भक्तों के लिए शुभ परिस्थिति का निर्माण करते हैं. महाराज परीक्षित भगवान के सच्चे भक्त थे, और ऐसा कोई कारण नहीं था कि वे क्लांत, भूखे और प्यासे हों क्योंकि भगवान का भक्त ऐसी शारीरिक बाध्यताओं से चिंतित नहीं होता. लेकिन भगवान की इच्छा होने पर, एसा भक्त भी स्पष्ट रूप से क्लांत और प्यास से पीड़ित हो सकता है ताकि बस उसकी सांसारिक गतिविधियों के त्याग की परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाएँ.

परम भगवान तक वापस जाने की योग्यता से पहले व्यक्ति को सांसारिक संबंधों की सभी आसक्तियाँ त्यागनी होंगी, और जब कोई भक्त सांसारिक प्रसंगों में बहुत अधिक खो जाता है, तो भगवान उदासीनता उपजाने के लिए कोई कारण उत्पन्न करते हैं. परम भगवान अपने भक्त को कभी नहीं भूलते, भले ही वह तथाकथित सांसारिक उलझनों में खोया हो. कभी-कभी वे एक अटपटी परिस्थिति बना देते हैं, और भक्त सभी सांसारिक प्रसंगों को त्यागने के लिए बाध्य हो जाता है. भक्त प्रभु के संकेत से समझ सकता है, लेकिन अन्य लोग इसे प्रतिकूल और निराशाजनक मानते हैं. महाराज परीक्षित को भगवान कृष्ण द्वारा श्रीमद्-भागवतम् के प्रकटन का माध्यम बनना था, जैसे उनके पितामह अर्जुन भगवद्-गीता के माध्यम थे. यदि अर्जुन को भगवान की इच्छा से पारिवारिक स्नेह का भ्रम नहीं होता, तो स्वयं भगवान द्वारा भागवद्-गीता का कथन नहीं किया जाता. इसी तरह, यदि महाराज परीक्षित इस समय थकान, भूख औऱ प्यास से व्याकुल न होते तो श्रीमद्-भागवतम् के प्रमुख विद्वान श्रील शुकदेव गोस्वामी द्वारा श्रीमद्-भागवतम् नहीं कही जाती.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, अध्याय 18 - पाठ 24-25

कलियुग में, कोई भी जीव पापमय गतिविधि का पीड़ित तब तक नहीं बनता जब तक कि वह कृत्य वास्वव में नहीं किया जाता.

कलियुग को पतन का युग कहा जाता है. इस पतित युग में, चूँकि जीव एक अटपटी स्थिति में हैं, परम भगवान ने उनके लिए कुछ विशिष्ट सुविधाएँ दी हैं. अतः भगवान की इच्छा से, कोई भी जीव पापमय गतिविधि का पीड़ित तब तक नहीं बनता जब तक कि वह कृत्य वास्वव में नहीं किया जाता. अन्य युगों में किसी पापमय कर्म को करने की कल्पना करने मात्र से, व्यक्ति पापमय गतिविधि का पीड़ित बन जाता था. इसके विरुद्ध, इस युग में कोई जीव को किसी पवित्र कर्म की कल्पना करने मात्र से उनका परिणाम मिलता है. भगवान की कृपा से, सबसे ज्ञानी और अनुभवी, महाराज परीक्षित अनावश्यक रूप से कलि के वयक्तित्व से ईर्ष्या नहीं करते थे क्योंकि वे उसे पापमय कर्म करने का कोई अवसर नहीं देना चाहते थे. उन्होंने अपनी प्रजा को कालियुग के पापमय कृत्यों का भोगी होने से बचाया, और साथ ही साथ उन्होंने उसे कुछ विशेष स्थान प्रदान करके कलियुग को पूरी सुविधा दी. श्रीमद्-भागवतम् के अंत में यह कहा गया है कि भले ही कलि के व्यक्तित्व के सभी अपवित्र कृत्य उपस्थित हों, कलि युग का बहुत बड़ा लाभ है. व्यक्ति बस भगवान के पवित्र नाम का जाप करने मात्र से मुक्ति पा सकता है. इसलिए महाराज परीक्षित ने भगवान के पवित्र नाम के जाप का प्रचार करने के लिए संगठित प्रयास किया, और इस प्रकार अपने नागरिकों को कलि के पंजे से बचाया. इसी लाभ के लिए कभी-कभी महान संत कलियुग के लिए आशीर्वाद देते हैं. वेदों में भी यह कहा गया है कि भगवान कृष्ण की गतिविधियों पर प्रवचन द्वारा, व्यक्ति कलियुग की हनियों से छुटकारा पा सकता है. श्रीमद्-भागवतम् की शुरुआत में यह भी कहा गया है कि श्रीमद्-भागवतम् के वाचन द्वारा, परम भगवान व्यक्ति के हृदय में तुरंत उपस्थित हो जाते हैं. कलियुग के कुछ महान लाभ यही हैं, महाराज परीक्षित ने सभी लाभ लिए और उन्होंने अपने वैष्णव धर्म पर सच्चा बना रहते हुए कलियुग के बारे में बुरा नहीं सोचा.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, खंड 18 – पाठ 7

कर्म के नियम के परिणामों को केवल भगवान ही बदल सकते हैं.

हमें यह निश्चित ही जानना चाहिए कि अभी हम जिस स्थिति में स्थापित हैं वह अतीत में हमारे अपने कृत्यों के अनुसार परम की व्यवस्था है. परम भगवान प्रत्येक जीव के हृदय में स्थानीयकृत परमात्मा के रूप में उपस्थित हैं, जैसा कि भगवद्-गीता (13.23) में कहा गया है, और इसलिए वे हमारे जीवन की प्रत्येक अवस्था में हमारे कर्मों के बारे में सबकुछ जानते हैं. वे हमारे कर्मों का फल हमें विशिष्ट स्थान में रख कर देते हैं. एक धनाड्य व्यक्ति का पुत्र मुंह में चांदी का चम्मच लेकर जन्म लेता है, लेकिन जो बालक धनाड्य व्यक्ति के पुत्र के रूप में आया वह उस स्थान के योग्य था, और इसलिए उसे उस स्थिति में भगवान की इच्छा से रखा गया है. और किसी विशेष क्षण में जब बालक को उस स्थान से हटाना होगा, तब भी उसे भगवान की इच्छा से ही किया जाएगा, चाहे बालक और पिता उस प्रसन्न संबंध से अलग नहीं होना चाहते हों. इसी प्रकार किसी निर्धन व्यक्ति के संदर्भ में भी होता है. जीवों के मिलने और बिछुड़ने पर ना तो धनाड्य व्यक्ति और ना ही निर्धन पुरुष का कोई नियंत्रण होता है. खेलने वाले और उसके खेल के उदाहरण को समझने में त्रुटि नहीं करनी चाहिए. कोई यह तर्क कर सकता है कि चूँकि भगवान हमारे कर्मों का फल प्रदान करने के लिए बाध्य हैं, तो खेल खेलने वाले का उदाहरण नहीं लागू किया जा सकता. लेकिन ऐसा नहीं है. हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि भगवान ही सर्वोच्च इच्छा हैं, और वे किसी नियम से नहीं बंधे हैं. समान्यतः कर्म का नियम वही होता है जो हमारे अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप दिया जाता है, लेकिन विशिष्ट प्रकरणों में, भगवान की इच्छा द्वारा, ऐसे कर्मफल बदल भी जाते हैं. लेकिन यह बदलाव केवल भगवान की इच्छा से ही प्रभावित हो सकता है, और किसी अन्य द्वारा नहीं. इसलिए, इस ऋचा में उद्धृत खेलने वाले का उदाहरण बिलकुल उपयुक्त है, क्योंकि परम इच्छा वह सब करने के लिए स्वतंत्र है जो वह चाहती है, क्योंकि वे परम-श्रेष्ठ हैं, उनकी किसी भी गतिविधि या प्रतिक्रिया में कोई भी त्रुटि नहीं है. जब कोई विशुद्ध भक्त का प्रकरण हो तो परिणामी फल के इन परिवर्तनों को विशेष रूप से भगवान द्वारा रचा जाता है. भगवद-गीता (9.30-31) में यह आश्वासन दिया गया है कि भगवान एसे विशुद्ध भक्त को बचाते हैं, जो पापों की सभी प्रकार की प्रतिक्रियाओं के प्रति बिना पूर्वग्रह के उनके समक्ष समर्पण कर चुका है, और इसमें कोई संदेह नहीं है. संसार के इतिहास में भगवान द्वारा बदले गए कर्मफलों के सैकड़ों उदाहरण हैं. यदि भगवान किसी के पिछले कर्मों की प्रतिक्रियाओं को बदलने में सक्षम है, तो निश्चित रूप से वे स्वयं अपने कर्मों की क्रिया या प्रतिक्रिया से बाध्य नहीं हैं. वे सभी नियमों के लिए परिपूर्ण और पारलौकिक हैं.

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, खंड 13 – पाठ 43

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31 दिसम्बर 25