
Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 9
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वैदिक नियम के अनुसार, तलाक नाम की कोई चीज़ नहीं होती.
एक स्त्री कितनी भी महान हो, उसे सभी परिस्थितियों में अपने पति के आदेश को निभाने और उसे प्रसन्न करने के लिए तैयार होना चाहिए. फिर उसका जीवन सफल होगा. यदि पत्नी अपने पति के समान ही चिड़चिड़ी हो जाती है, तो उनका घरेलू जीवन का बाधित होना या अंततः संपूर्ण रूप से बिखर जाना अवश्यंभावी होता है. आधुनिक समय में, पत्नी कभी भी समर्पित नहीं होती, और इसलिए घरेलू जीवन छोटी सी घटनाओं से भी टूट जाता है. पत्नी या पति दोनों ही तलाक के कानून का लाभ ले सकते हैं. यद्यपि, वैदिक नियम के अनुसार तलाक के नियम जैसी कोई वस्तु नहीं होती, और एक स्त्री को अपने पति की इच्छानुसार समर्पित होने के लिए प्रशिक्षित होना चाहिए. पश्चिमी लोग बहस करते हैं कि यह पत्नी के लिए दासता की मानसिकता है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है; यह वह युक्ति है जिससे स्त्री अपने पति का हृदय जीत सके, भले ही वह कितना भी चिड़चिड़ा या दुष्ट हो.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 10
आधुनिक चिकित्सा शास्त्र अभी तक नहीं खोज पाया है कि किसी मृत शरीर को वापस जीवत कैसे किया जाए.
अश्विनी कुमारों जैसे स्वर्गीय चिकित्सक उन लोगों को भी युवावस्था से भरा जीवन दे सकते थे जिनकी आयु अधिक हो गई हो. निश्चित ही, महान योगी अपनी रहस्यमयी शक्ति से, एक मृत शरीर को भी वापस जीवित कर सकते हैं, यदि शरीर रचना अक्षत हो. हम इसकी चर्चा बाली महाराज के सैनिकों और शुक्राचार्य द्वारा उनके उपचार के संबंध में पहले ही कर चुके हैं. आधुनिक चिकित्सा शास्त्र अभी तक नहीं खोज पाया है कि किसी मृत शरीर को वापस जीवत कैसे किया जाए या किसी वृद्ध शरीर में युवावस्था की ऊर्जा को कैसे लाया जाए, किंतु इन श्लोकों से हम समझ सकते हैं कि ऐसा उपचार संभव है यदि व्यक्ति वैदिक सूचना से ज्ञान लेने में सक्षम हो. अश्विनीकुमार आयर्वेद के विशेषज्ञ थे, वैसे ही धन्वंतरि भी. भौतिक विज्ञान के किसी भी विभाग में, महारत प्राप्त करना होती है, और वह पाने के लिए व्यक्ति को वैदिक साहित्य का अध्ययन करना ही होता है. सबसे उत्तम संपूर्णता भगवान का भक्त बनना होती है. इस संपूर्णता को पाने के लिए, वयक्ति को श्रीमद्-भागवतम् का अध्ययन करना चाहिए, जिसे वैदिक कल्प वृक्ष का पका हुआ फल समझा जाता है (निगम-कल्प-तरोर्गिलितम फलम्).
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्”, नवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 11
संकीर्तन-यज्ञ शास्त्रों में कलियुग के लिए सुझाया गया त्याग है.
जब व्यक्ति वेदों में सुझाया गया आनुष्ठानिक आहूति देता है, तो व्यक्ति को याज्ञिक ब्राम्हण के रूप में ज्ञात दक्ष ब्राम्हणों की आवश्यकता होती है. कलि-युग में, यद्यपि, ऐसे ब्राम्हणों का अभाव है. इसलिए कलियुग में शास्त्रों में सुझाया गया त्याग संकीर्तन-यज्ञ है (यज्ञैः संकीर्तन प्रयैर यजंति हि सुमेधसः). कलि के इस युग में याज्ञिक-ब्राम्हणों का अभाव होने से नियोजित करने के लिए असंभव यज्ञों पर धन व्यय करने के स्थान पर, बुद्धिमान व्यक्ति संकीर्तन-यज्ञ का निर्वाह करता है. भगवान के परम व्यक्तित्व को संतुष्ट करने के लिए समुचित रूप से निर्वाह किए गए यज्ञ के बिना, वर्षा का अभाव होगा (यज्ञ भवति पर्जन्यः). इसलिए यज्ञ का निर्वहन आवश्यक है.
स्रोत - एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण), "श्रीमद भागवतम", नौवां सर्ग, अध्याय 4 - पाठ 22
भगवान के परम व्यक्तित्व से संबंधित कुछ भी भौतिक नहीं होता.
उनके लिए जो भौतिक रूप से आसक्त होते हैं, इंद्रियों का नियंत्रण आवश्यक होता है, किंतु एक भक्त की इंद्रियाँ भगवान की सेवा में रत होती हैं, जिसका अर्थ है कि वे पहले ही से नियंत्रण में हैं. परम दृष्ट्वा निवर्तते (भगी. 2.59). एक भक्त की इंद्रियाँ भौतिक भोग से आकर्षित नहीं होती. और भले ही भौतिक संसार कष्टों से भरा होता है, भक्त इस भौतिक संसार को भी आध्यात्मिक मानता है क्योंकि सब कुछ भगवान की सेवा में ही रत है. आध्यात्मिक संसार और भौतिक संसार में सेवा की भावना का अंतर होता है. निर्बंधः कृष्ण-संबंधे युक्तम वैराग्यम उच्यते. जब भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा की भावना नहीं होती, तो व्यक्ति की गतिविधियाँ भौतिक होती हैं.
प्रपंचि-कतय बुद्द्य हरि-संबंधि-वस्तुनः
मुमुक्षभिः परित्यागो वैराग्यम फलगु कथ्यते
(भक्ति-रसामृत-सिंधु 1.2.256)
वह जो भगवान की सेवा में रत है भौतिक नहीं होता है, और इस प्रकार से रत वस्तु को त्याग नहीं जाना चाहिए. किसी ऊँची गगनचुंबी इमारत के निर्माण और किसी मंदिर के निर्माण में, एक समान उत्सुकता हो सकती है, किंतु प्रयास में अंतर होता है, क्योंकि एक भौतिक होता है और दूसरा आध्यात्मिक. आध्यात्मिक गतिविधियों को भौतिक गतिविधियाँ नहीं मान लेना चाहिए, और छोड़ना नहीं चाहिए. हरि, भगवान के परम व्यक्तित्व से जुड़ा कुछ भी भौतिक नहीं होता. एक भक्त जो इस सबका विचार करता है, हमेशा आध्यात्मिक गतिविधियों में स्थित होता है, और इसलिए वह भौतिक गतिविधियों से और आकर्षित नहीं होता (परम दृष्ट्वा निवर्तते).
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 25
एक शुद्ध भक्त सदैव ही भगवान की पारलौकिक प्रसन्नता को बढ़ाने में लगा होता है.
भगवान का परम व्यक्तित्व आत्म-निर्भर होता है, किंतु अपने पारलौकिक आनंद का भोग करने के लिए उन्हें अपने भक्तों के सहयोग की आवश्यकता होती है. उदाहरण के लिए, वृंदावन में भले ही भगवान कृष्ण स्वयं में पूर्ण होते हैं, तो भी वे अपने पारलौकिक आनंद को बढ़ाने के लिए ग्वाल बाल और गोपियों का सहयोग चाहते हैं. ऐसे निर्मल भक्त, जो भगवान के परम व्यक्तित्व की आनंद क्षमता को बढ़ा सकते हैं, उन्हें निश्चित ही सबसे प्रिय होते हैं. भगवान के परम व्यक्तित्व न केवल अपने भक्तों के संग का आनंद लेते हैं, बल्कि चूँकि वे असीमित होते हैं, वे अपने भक्तों को भी असीमित रूप से बढ़ाना चाहते हैं. अतः, वे अभक्तों और विद्रोही जीवों को वापस घर, परम भगवान के पास लौटने को प्रवृत्त करने के लिए इस भौतिक संसार में उतरते हैं. वे उनसे स्वयं के प्रति समर्पण करने का अनुरोध करते हैं, क्योंकि असीमित होने के नाते, वे अपने भक्तों को भी असीमित स्तर तक बढ़ाना चाहते हैं. कृष्ण चेतना आंदोलन परम भगवान के शुद्ध भक्तों की संख्या को अधिक से अधिक बढ़ाने का प्रयास है. यह निश्चित है कि एक भक्त जो भगवान के परम व्यक्तित्व को संतुष्ट करने के इस प्रयास में सहायता करता है परोक्ष रूप से परम भगवान का एक नियंत्रक बन जाता है. यद्यपि परम भगवान छः एश्वर्यों से परिपूर्ण हैं, वे अपने भक्तों के बिना पारलौकिक आनंद का अनुभव नहीं करते हैं. एक उदाहरण जो इस संबंध में उद्धृत किया जा सकता है, वह यह है कि यदि किसी बहुत धनवान आदमी के परिवार में पुत्र नहीं हों तो वह प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता. निस्संदेह, कभी-कभी कोई धनवान व्यक्ति अपनी प्रसन्नता को पूर्ण करने के लिए एक पुत्र गोद लेता है. पारलौकिक आनंद का विज्ञान शुद्ध भक्त को पता होता है. इसलिए शुद्ध भक्त हमेशा भगवान के पारलौकिक आनंद को बढ़ाने में लगा रहता है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 64
सत्ता का दुरुपयोग अंततः समाज के लिए नहीं बल्कि उस व्यक्ति के लिए खतरनाक है जो इसका दुरुपयोग करता है.
एक वैष्णव अभक्तों के लिए सदैव ईर्ष्या का पात्र होता है, भले ही वह अभक्त उसका पिता हो. एक व्यावहारिक उदाहरण देने हेतु, हिरण्यकशिपु प्रह्लाद महाराज से ईर्ष्या रखता था, किंतु भक्त के प्रति यह ईर्ष्या हिरण्यकशिपु के लिए हानिकारक थी, प्रह्लाद के लिए नहीं. हिरण्यकशिपु द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म अपने पुत्र प्रह्लाद महाराज के विरुद्ध था जिसे भगवान के परम व्यक्तित्व ने बहुत गंभीरता से लिया, और इसलिए जब हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने वाला था, तो भगवान स्वयं प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का वध किया. भक्त के विरुद्ध लगाया गया किसी व्यक्ति का तथाकथित बल, उसी को हानि पहुँचाता है जो उसका उपयोग कर रहा है. इस प्रकार कर्ता को हानि पहुँचती है, ना कि पात्र को.
यह कहा जाता है कि रत्न बड़ा मूल्यवान होता है, किंतु जब वह किसी सर्प के फन पर होता है, तो उसके मूल्य के बावजूद वह खतरनाक होता है. उसी प्रकार, जब एक भौतिकवादी अभक्त शिक्षा और तप में बड़ी सफलता पाता है, तो वह सफलता समस्त समाज के लिए खतरनाक होती है. उदाहरण के लिए, तथाकथित निपुण वैज्ञानिकों ने आणविक हथियारों का अविष्कार किया जो कि समस्त मानवता के लिए घातक हैं. इसलिए कहा जाता है, मणिना भूषितः सर्पः किं असौ न भंयकरः. मणि धारण किया हुआ सर्प उतना ही घातक होता है जितना कि बिना मणि वाला सर्प. दुर्वासा मुनि रहस्यमय शक्तियों के साथ एक बहुत ज्ञानी ब्राम्हण थे, किंतु वे एक सज्जन नहीं थे, इसलिए नहीं जानते थे कि अपनी शक्ति का उपयोग कैसे किया जाए. इसलिए वे बड़े खतरनाक थे. भगवान का परम व्यक्तित्व का झुकाव ऐसे किसी खतरनाक व्यक्ति की ओर नहीं होता जो अपनी शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत हेतु के लिए करता हो. इसलिए, प्रकृति के नियमों द्वारा, सत्ता का ऐसा दुरुपयोग अंततः समाज के लिए नहीं बल्कि उस व्यक्ति के लिए खतरनाक है जो इसका दुरुपयोग करता है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नौवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 69 व 70
भौतिक रचना का मूल कारण भगवान की दृष्टि है.
वैदिक निर्देशों से हम यह समझते हैं कि इस भौतिक संसार की रचना भगवान के परम व्यक्तित्व की दृष्टि से हुई है ( स ऐक्षत, स असृजत). भगवान के परम व्यक्तित्व ने महत्-तत्व, या भौतिक ऊर्जा पर दृष्टिपात किया, और जब वह उत्तेजित हुआ, तब सब कुछ अस्तित्व में आ गया. पश्चिमी दार्शनिक कई बार सोचते हैं कि उत्पत्ति का कारण एक पिण्ड है जिसमें विस्फोट हुआ था. यदि कोई इस पिण्ड को संपूर्ण भौतिक ऊर्जा, महत्-तत्व मानता है, तो वह समझ सकता है कि वह पिण्ड भगवान के दृष्टिपात से उत्तेजित हुआ था, और इस प्रकार भगवान का दृष्टिपात ही भौतिक उत्पत्ति का मूल कारण है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 5, पाठ 5
सुदर्शन चक्र क्या है?
सुदर्शन का अर्थ “शुभ दृश्य” होता है. सुदर्शन चक्र भगवान के परम व्यक्तित्व की दृष्टि होती है जिससे वे समस्त संसार को रचते हैं. सा ऐक्षत, सा असृजत. यह वैदिक संस्करण है. सुदर्शन चक्र जो उत्पत्ति का मूल है और भगवान को सबसे प्रिय है, उसमें सहस्त्र शलाकाएँ होती हैं. यह सुदर्शन चक्र अन्य सभी शस्त्रों के बल का संहारक है, अंधकार का संहारक है, और भक्ति सेवा के बल का प्रदर्शक है; यह धार्मिक सिद्धांतों को स्थापित करने का साधन होता है, और यह समस्त अधार्मिक कृत्यों का संहारक है. बिना उसकी दया के, ब्रम्हांड का पालन नहीं हो सकता, और इसलिए भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा सुदर्शन चक्र को प्रयुक्त किया जाता है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 5 व परिचय
पश्चिमी देश भौतिक सभ्यता के शिखर पर पहुँच गए हैं.
भौतिक कामना बिलकुल प्रचंड अग्नि के समान होती है. यदि अग्नि को वसा की बूंदें लगातार मिलती रहेंगी, तो अग्नि अधिकाधिक बढ़ेगी और कभी नहीं बुझेगी. इसलिए व्यक्ति की भौतिक माँगों की पूर्ति करके भौतिक इच्छाओं को संतुष्ट करने की नीति कभी भी सफल नहीं होगी. आधुनिक सभ्यता में, हर कोई आर्थिक विकास में लगा हुआ है, जो कि भौतिक अग्नि में लगातार वसा डालते रहने का ही एक और प्रकार है. पश्चिमी देश भौतिक सभ्यता के शिखर पर पहुँच गए हैं, किंतु तब भी लोग असंतुष्ट हैं. कृष्ण चेतना वास्तविक संतुष्टि है. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता (5.29) में की गई है, जहाँ कृष्ण कहते हैं :
भोक्तारम् यज्ञ-तपसम सर्व-लोक-महेश्वरम
सुहृदम सर्व-भूतानाम ज्ञत्व मम शांतिम् रक्षति
“मुनि, मुझे समस्त चढ़ावों और तपों का परम उद्देश्य, सभी ग्रहों और देवताओं का परम भगवान और सभी जीवों का हितकारी और शुभचिंतक जानते हुए, भौतिक कष्टों की पीड़ा से शांति प्राप्त करते हैं.” इसलिए व्यक्ति को कृष्ण चेतना को अपनाना चाहिए और नियामक सिद्धांतों का पालन करते हुए कृष्ण चेतना में विकास करना चाहिए. तब व्यक्ति एक शांति और ज्ञान से युक्त, अमर, आनंदमय जीवन को प्राप्त कर सकता है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नौवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 48
एकांत स्थान भी सुरक्षित नहीं होता है जब तक कि अच्छी संगति न हो.
सौभरि मुनि, अपने व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त निष्कर्ष बताते हुए, हमें निर्देश करते हैं कि भौतिक सागर के उस पार जाने में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को उन व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए जो यौन जीवन और धन संग्रह करने में रुचि रखने वाले होते हैं. यह सुझाव श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी दिया है :
निश्किंचनस्य भागवद-भजनोन्मुकस्य परम परम जिगमिसोर भाव-सागरस्य
संदर्षणम विषयिनाम अथ योशिताम च ह हंता हंता विष-भक्षणतो प्य असाधु
(चैतन्य-चंद्रोदय-नाटक 8.27)
“हाय, कोई ऐसा व्यक्ति जो भव सागर को पार करने और बिना किसी भौतिक उद्देश्य के भगवान की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में रत होना चाहता है, उसके लिए किसी भौतिकवादी को इंद्रिय तुष्टि में लगे हुए देखना और समान रुचि रखने वाली स्त्री को देखना स्वेच्छा से विष पीने से भी अधिक घृणास्पद होता है.” वह जो भौतिक बंधन से पूर्ण मुक्ति की कामना रखता है स्वयं को भगवान की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में लगा सकता है. उसे विषयी –भौतिकवादी व्यक्तियों या उनसे संबंध नहीं रखना चाहिए जिसकी रुचि यौन जीवन में हो. प्रत्येक भौतिकवादी मैथुन में रुचि रखता है. अतः साधारण भाषा में यही सुझाव है कि एक उत्कृष्ट संत स्वभाव के व्यक्ति को भौतिक रुझान रखने वाले व्यक्तियों से संबंध से बचना चाहिए. सौभरी मुनि पछतावा करते हैं कि सबसे गहरे जल में भी उनकी संगति बुरी थी. यौन वृत्ति में रत मछली के साथ संगति के कारण, वे पतित हुए. यदि अच्छी संगति न हो तो एक एकांत स्थान भी सुरक्षित नहीं होता.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 51
यदि मृत्यु के समय कोई भी भौतिक कामना न हो तो सूक्ष्म शरीर समाप्त हो जाता है.
मृत्यु के समय पर, स्थूल शरीर को अग्नि जला देता है, और यदि भौतिक भोग की कोई इच्छा नहीं हो तो सूक्ष्म शरीर भी समाप्त हो जाता है. ऐसा भगवद्-गीता में पुष्ट किया गया है (त्यक्त्व देहम् पुनर्जन्म नेति). यदि व्यक्ति स्थूल और सूक्ष्म भौतिक शरीरों के बंधन से मुक्त हो और शुद्ध आत्मा ही बचे, तो वह वापस घर, परम भगवान के पास, भगवान की सेवा में लीन होने के लिए पहुँच जाता है. त्यक्त्व देहम् पुनर्जन्म नेति मम एति : वह वापस घर, परम भगवान के पास जाता है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्”, नवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 54
यदि स्त्री का पति आध्यात्मि रूप से उन्नत हो तो उसे आध्यात्मिक संसार में प्रवेश करने का अवसर स्वतः मिल जाएगा.
जैसा कि भगवद्-गीता (9.32) में कहा गया है, स्त्रियो वैश्यस तथा शूद्रास ते अपि यन्ति परम गतिम्. स्त्रियों को आध्यात्मिक सिद्धांतों का पालन करने में बहुत बलशाली नहीं माना जाता, किंतु यदि कोई स्त्री एक ऐसा अनुकूल पति पाने के लिए पर्याप्त भाग्यशाली हो जो कि आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो और यदि वह सदैव उसकी सेवा में रहती है, तो उसे अपने पति के समान ही लाभ मिलते हैं. यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि सौभरी मुनि की पत्नियाँ भी अपने पति के प्रभाव से आध्यात्मिक संसार में प्रविष्ट हुई थीं. वे अयोग्य थीं, किंतु चूँकि वे अपने पति की निष्ठावान अनुयायी थीं, वे भी उसके साथ आध्यात्मि संसार में प्रविष्ट हो सकीं. इसलिए एक स्त्री को अपने पति की निष्ठावान सेविका होना चाहिए, और यदि पति आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो, तो स्त्री को आध्यात्मिक संसार में प्रवेश करने का अवसर स्वतः ही मिल जाएगा.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 55
गंगा में स्नान का सुझाव क्यों दिया जाता है?
ऐसा वास्तव में देखा गया है कि जो भी नियमित रूप से माँ गंगा की पूजा उसके जल में स्नान करते हुए करता है उसका स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता है और वह धीरे-धीरे भगवान का भक्त हो जाता है. एसा गंगा में स्नान का प्रभाव होता है. वैदिक शास्त्रों में गंगा स्नान का अनुमोदन किया गया है, और जो भी इस मार्ग पर चलता है वह निश्चित ही समस्त पापमय प्रतिक्रियाओं से भली भाँति मुक्त हो जाएगा. इसका व्यावहारिक उदाहरण यह है कि महाराज सागर के पुत्रों के जले हुए शव की राख से गंगा के पानी के स्पर्श मात्र से ही वे पुत्र स्वर्गीय ग्रहों तक चले गए.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 14
अविकसित भ्रूण को गर्भ में नष्ट कर देना पाप होता है.
जैसा कि अमर-कोष शब्दकोश में दिया गया है, भ्रूणोर्भके बाल-गर्भे : भ्रूण शब्द का आशय गाय या भ्रूण में स्थित जीव होता है. वैदिक संस्कृति के अनुसार, गर्भ में आत्मा के अविकसित भ्रूण को नष्ट करना गौ हत्या या ब्राम्हण की हत्या करने जितना ही पापमय होता है. भ्रूण में जीव अविकसित अवस्था में उपस्थित होता है. आधुनिक वैज्ञानिक धारणा कि जीवन रसायनों का संयोजन होता है, बकवास है; वैज्ञानिक जीव निर्मित नहीं कर सकते, वे भी नहीं जो अंडे से पैदा होते हैं. यह विचार कि वैज्ञानिक अंडे से मिलने-जुलने वाली रासायनिक अवस्था विकसित कर सकते हैं और उससे जीवन उत्पन्न कर सकते हैं, अतर्कसंगत है. उनका यह तर्क कि रासायनिक संयोजन में जीवन हो सकता है स्वीकार किया जा सकता है, किंतु ये दुष्ट ऐसा संयोजन निर्मित नहीं कर सकते. यह श्लोक भ्रूणस्य वधम् से संबंध रखता है–भ्रूण हत्या या उसका नाश. वैदिक साहित्य की ओर से एक चुनौती है. यह अपरिष्कृत, नास्तिक धारणा कि जीव पदार्थ का एक संयोजन है, पूरी तरह से अज्ञानता से संबंधित है.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्”, नवाँ सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 31
एक आदर्श राजा के रूप में, भगवान रामचंद्र ने केवल एक पत्नी को स्वीकार किया था.
एक-पत्नी-व्रत, केवल एक पत्नी को स्वीकार करना, भगवान रामचंद्र द्वारा प्रस्तुत किया गया अनोखा उदाहरण था. व्यक्ति को एक पत्नी से अधिक स्वीकार नहीं करना चाहिए. उन दिनों में, निस्संदेह, लोग एक से अधिक पत्नियों से विवाह रचते थे. बल्कि भगवान रामचंद्र के पिता की भी एक से अधिक पत्नियाँ थीं. किंतु भगवान रामचंद्र ने एक आदर्श राजा के रूप में, केवल एक पत्नी रखना स्वीकार किया. जब माँ सीता का अपहरण रावण और राक्षसों द्वारा कर लिया गया, तब भगवान रामचंद्र, भगवान के परम व्यक्तित्व होने के नाते, सैकड़ों- सहस्त्रों सीताओं से विवाह कर सकते थे, किंतु हमें यह शिक्षा देने के लिए कि वे कितने पतिव्रता थे, उन्होंने रावण से युद्ध किया और अंततः उसका वध कर दिया. भगवान ने मनुष्यों को यह निर्देश देने के लिए रावण को दंड दिया और अपनी पत्नी को छुड़ाया कि पुरुषों को केवल एक पत्नी रखना चाहिए. भगवान रामचंद्र ने केवल एक पत्नी स्वीकार की और उदात्त चरित्र का प्रदर्शन किया, और इस प्रकार गृहस्थों के लिए उदाहरण प्रस्तुत किया. गृहस्थ को भगवान रामचंद्र के आदर्श के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए, जिन्होंने दिखाया कि एक श्रेष्ठ व्यक्ति कैसे बनें. एक गृहस्थ होने या एक पत्नी और बच्चों के साथ जीवन यापन करने की कभी भर्त्सना नहीं की गई है, यदि व्यक्ति वर्णाश्रम-धर्म के सिद्धांतों के अनुसार जीवन यापन करे. जो लोग इन सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीते हैं, भले ही गृहस्थ, ब्रम्हचारी या वानप्रस्थ के रूप में, वे समान रूप से महत्वपूर्ण हैं.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 10 – पाठ 54
वैदिक सभ्यता में राजतंत्र को पसंद किया जाता है.
यदि सरकार अस्थिर और अनियमित हो, तो लोगों के लिए भय का संकट होता है. वर्तमान समय में लोगों द्वारा सरकार के कारण यह खतरा सदैव बना रहता है. तथाकथित लोगों की सरकार में कोई भी प्रशिक्षित क्षत्रिय राजा के रूप में नहीं होता; जैसे ही कोई शक्तिशाली वोट पा लेता है, वह शास्त्रों पारंगत ब्राम्हणों से प्रशिक्षित हुए बिना ही मंत्री या राष्ट्रपति बन जाता है. निश्चित ही, हम देखते हैं कि कुछ देशों में सरकार अलग-अलग पार्टियों में बदलती रहती है, और इसलिए सरकार में प्रभारी व्यक्ति नागरिक प्रसन्न हैं या नहीं, इसकी चिंता करने के बजाए अपने पदों की रक्षा करने में अधिक उत्सुक होते हैं. वैदिक सभ्यता में राजतंत्र को अधिक पसंद किया जाता है. लोगों को भगवान रामचंद्र का शासन, महाराज युधिष्ठिर का शासन और महाराज परीक्षित, महाराज अंबरीष और महाराज प्रह्लाद का शासन अच्छा लगता था. किसी राजा के अधीन सुशासन के अनेक उदाहरण हैं. धीरे-धीरे लोकतांत्रिक सरकार लोगों की आवश्यकता के प्रति अनुकूलता खोती जा रही है, और इसलिए कुछ पार्टियाँ किसी तानाशाह को चुनने का प्रयास कर रही हैं. तानाशाही राजतंत्र के समान ही है किंतु किसी प्रशिक्षित नेता के बिना. वास्तव में लोग प्रसन्न होंगे जब कोई प्रशिक्षित नेता, भले ही वह राजा हो या तानाशाह हो, सरकार का नियंत्रण रखेगा और आधिकारिक शास्त्रों के मानक नियमों के अनुसार लोगों पर शासन करेगा.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 13 – पाठ 12
कभी भी किसी स्त्री या राजनेता पर अपनी निष्ठा न रखें.
“चाणक्य पंडित ने विमर्श दिया है, विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राज-कुलेषु च: “”कभी भी किसी स्त्री या राजनेता पर अपनी निष्ठा न रखें”” जब तक व्यक्ति आध्यात्मिक चेतना तक ऊंचा न उठा हो, वह बद्ध और पतित होता है, स्त्रियों का कहना ही क्या, जो पुरुषों से कम बुद्धिमान होती हैं. स्त्रियों की तुलना शूद्रों और वैश्यों से की गई है. यद्यपि आध्यात्मिक धरातल पर, जब कोई कृष्ण चेतना के स्तर तक ऊंचाई पा लेता है, तो चाहे वह पुरुष हो, स्त्री हो, शूद्र या जो भी हो, सभी समान होते हैं. अन्यथा, उर्वशी, जो स्वयं एक स्त्री थी और जो स्त्रियों का स्वभाव जानती थी, ने कहा कि स्त्री का हृदय एख धूर्त लोमड़ी के समान होता है. यदि कोई व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर पात, तो वह ऐसी धूर्त लोमड़ियों का शिकार हो जाता है. किंतु अगर कोई इंद्रियों को नियंत्रित कर सके, तब धूर्त, लोमड़ी जैसी महिलाओं से पीड़ित होने की उसकी कोई संभावना नहीं होती है. चाणक्य पंडित ने यह भी सुझाव दिया है कि यदि किसी की पत्नी धूर्त लोमड़ी जैसी हो, तो उसे तुरंत गृहस्थ जीवन का त्याग कर वन में जाना चाहिए.
माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रिया-वादिनी
अरण्यं तेन गंत्व्यं यथारण्यं तथा गृहम (चाणक्य-श्लोक 57)
कृष्ण चेतन गृहस्थों को धूर्त लोमड़ी जैसी स्त्रियों से बहुत सावधान रहना चाहिए. अगर घर में पत्नी आज्ञाकारी है और कृष्ण भावनामृत में अपने पति का अनुसरण करती है, तो घर में स्वागत है. अन्यथा घर छोड़कर वन में चले जाना चाहिए.
हित्वात्मा-पातं गृहम अंध-कूपं वनम् गतो यद् धारिम आश्रयेत (भाग. 7.5.5)
व्यक्ति को वन में चले जाना चाहिए और हरि, भगवान के परम व्यक्तित्व के चरण कमलों की शरण लेनी चाहिए.”
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, नौवाँ सर्ग, अध्याय 14- पाठ 36
सतयुग में केवल एक वेद था और ऊँकार ही एकमात्र मंत्र था.
सत्य युग में केवल एक वेद था, न कि चार. बाद में, कलि-युग के प्रारंभ से पहले, इस एक वेद, अथर्व वेद (अथवा, कुछ लोग कहते हैं, यजुर्वेद), को मानव समाज की सुविधा के लिए चार वेदों – साम, यजुर्, ऋग् और अथर्व – में बाँट दिया गया. सत्य-युग में एक मात्र मंत्र ऊँकार (ऊँ तत् सत्) था. हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे मंत्र में यही नाम ऊँकार प्रकट होता है. यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण न हो, तो वह ऊँकार का उच्चारण नहीं कर सकता और वांछित परिणाम प्राप्त नहीं कर सकता. लेकिन कलियुग में लगभग हर व्यक्ति शूद्र है, और प्रणव, ऊँकार के उच्चारण के लिए अयोग्य है. इसलिए शास्त्रों ने हरे कृष्ण महा-मंत्र के जाप की अनशंसा की है. ऊँकार एक मंत्र, या महा-मंत्र है, और हरे कृष्ण भी एक महा-मंत्र है. ऊँकार का उच्चारण करने का उद्देश्य भगवान के परम व्यक्तित्व, वासुदेव (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) को संबोधित करना है. और हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने का उद्देश्य भी वही है. हरे: “हे प्रभु की ऊर्जा!” कृष्ण: “हे भगवान कृष्ण!” हरे: “हे प्रभु की ऊर्जा!” राम: “हे परम भगवान, हे परम भोक्ता!” एकमात्र पूज्य भगवान हरि हैं, जो वेदों का लक्ष्य हैं (वेदैश्च सर्वैर अहम् एव वेद्य:). देवताओं की पूजा करते हुए, व्यक्ति भगवान के विभिन्न भागों की पूजा करता है, जैसे कोई पेड़ की शाखाओं और टहनियों को सींचता है. किंतु भगवान के सर्व-समावेशी परम व्यक्तित्व नारायण की पूजा करना, पेड़ की जड़ पर पानी डालने जैसा है, इस प्रकार तने, शाखाओं, टहनियों, पत्तियों आदि को पानी की आपूर्ति करना. सत्य-युग में लोग केवल भगवान नारायण की पूजा करके जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करना जानते थे. उसी उद्देश्य की पूर्ति इस कलियुग में हरे कृष्ण मंत्र के जाप से की जा सकती है, जैसा कि भागवतम में अनुशंसित किया गया है. कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्त-संग: परं व्रजेत. हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने मात्र से, व्यक्ति भौतिक अस्तित्व के बंधन से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार घर, वापस भगवान के पास लौटने के योग्य हो जाता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, नवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 48
अक्षौहिणी क्या है?
अक्षौहिणी शब्द एक सैन्य व्यूह रचना को संदर्भित करता है जिसमें 21,870 रथ और हाथी, 109,350 पैदल सैनिक और 65,610 घोड़े शामिल होते हैं. एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़ों को विज्ञान के विद्वान लोगों द्वारा पत्ति कहा जाता है. बुद्धिमान यह भी जानते हैं कि सेनामुख एक पत्ति से तीन गुना अधिक बड़ा होता है. तीन सेनामुखों को एक गुल्म कहा जाता है, तीन गुल्मों को एक गण कहा जाता है, और तीन गणों को एक वाहिनी कहा जाता है. विद्वान तीन वाहिनियों को पृतना बुलाते हैं, तीन पृतनाएँ एक चमू के बराबर होती हैं, और तीन चमू एक अनीकिनी के बराबर होते हैं. बुद्धिमान दस अनीकिनियों को एक अक्षौहिणी कहते हैं. उन लोगों द्वारा एक अक्षौहिणी के रथों की गणना 21,870 की गई है जो इस प्रकार की गणना के विज्ञान को जानते हैं, द्विजों में से सर्वश्रेष्ठ, और हाथियों की संख्या समान होती है. पैदल सैनिकों की संख्या 109,350 और घोड़ों की संख्या 65,610 है. इसे एक अक्षौहिणी कहा जाता है.”
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, नवाँ सर्ग, अध्याय 15 – पाठ 30
नर-बकरे और मादा-बकरी की कथा.
“भौतिक संसार में कई वर्षों के यौन संबंधों और आनंद के बाद, राजा ययाति अंततः इस प्रकार के भौतिक सुख से निराश हो गए. भौतिक भोग से तृप्त होने पर, उन्होंने स्वयं के जीवन के अनुरूप एक बकरे और बकरी की कथा रचित की, और अपनी प्रिय देवयानी को वह कथा सुनाई. कथा इस प्रकार है. एक बार की बात है, जब एक बकरा जंगल में खाने के लिए तरह-तरह की वनस्पतियाँ ढूँढ रहा था, तब संयोग से वह एक कुएँ के पास आ गया, जिसमें उसे एक बकरी दिखाई दी. वह इस बकरी के प्रति आकर्षित हो गया और किसी प्रकार से उसे कुएँ से छुड़ाया, और इस प्रकार वे एक हो गए. उसके एक दिन बाद, जब बकरी ने देखा कि वह बकरा किसी अन्य मादा-बकरी के साथ यौन संबंध का आनंद ले रहा है, तो वह क्रोधित हो गई, उसने बकरे को त्याग दिया, और अपने ब्राह्मण मालिक के पास लौट आई, जिसे उसने अपने पति के व्यवहार का वर्णन कह सुनाया. ब्राह्मण बहुत क्रोधित हुआ और उसने नर-बकरे को अपनी यौन शक्ति खोने का श्राप दिया. इसके बाद, नर- बकरे ने ब्राह्मण से क्षमा मांगी और उसे यौन शक्ति वापस दे दी गई. फिर उस बकरे ने कई वर्षों तक उस बकरी के साथ मैथुन का आनन्द लिया, पर फिर भी वह सन्तुष्ट नहीं हुआ. यहाँ महाराज ययाति ने अपनी तुलना एक नर-बकरे से और देवयानी की तुलना एक मादा-बकरी से की है और पुरुष और स्त्री के स्वभाव का वर्णन किया है. किसी नर-बकरे के समान, पुरुष इन्द्रियतृप्ति की खोज करता रहता है, और पुरुष या पति के आश्रय के बिना एक स्त्री कुएँ में गिरी हुई बकरी के समान होती है. किसी पुरुष द्वारा देखभाल किए जाने के अभाव में, एक स्त्री सुखी नहीं रह सकती. निस्संदेह, वह एक मादा-बकरी के समान होती है जो कुँए में गिर गई है और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है. अतः स्त्री को अपने पिता की शरण में रहना चाहिए, जैसा कि देवयानी ने किया था जब वह शुक्राचार्य की देखभाल में थी, और फिर पिता को उसका कन्यादान किसी उपयुक्त पुरुष को कर देना चाहिए, या उपयुक्त पुरुष को स्त्री को अपनी देखभाल में रखकर उसकी सहायता करनी चाहिए. यह देवयानी के जीवन से स्पष्ट रूप से दिखाया गया है. जब राजा ययाति ने देवयानी को कुएँ से छुड़ाया, तो उन्हें बड़ी राहत मिली और उन्होंने ययाति से अनुरोध किया कि वह उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें.
यदि कोई वासनामयी और लालची है, तो इस संसार में सोने का कुल भंडार भी उसकी कामुक इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकता है. ये इच्छाएँ आग के समान होती हैं. व्यक्ति धधकती अग्नि पर घी डाल सकता है, लेकिन अग्नि के बुझने की आशा नहीं की जा सकती. ऐसी अग्नि को बुझाने के लिए एक भिन्न प्रक्रिया अपनानी पड़ती है. इसलिए शास्त्र सुझाव देता है कि बुद्धि के द्वारा व्यक्ति भोग के जीवन को त्याग दे. जिनकी बुद्धि क्षीण होती है वे किसी महान प्रयास के बिना इन्द्रिय भोग को नहीं त्याग सकते, विशेषकर मैथुन के संबंध में, क्योंकि एक सुंदर स्त्री सबसे ज्ञानी पुरुष को भी भ्रमित कर देती है. यद्यपि राजा ययाति ने सांसारिक जीवन को त्याग दिया और अपनी संपत्ति अपने पुत्रों में बाँट दी. उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एक भिक्षु, या संन्यासी के जीवन को अपनाया, भौतिक भोग के सभी आकर्षणों को त्याग दिया, और स्वयं को पूर्ण रूपेण भगवान की भक्ति सेवा में लगा दिया. इस प्रकार उन्होंने सिद्धि प्राप्त की. बाद में, जब उनकी प्रिय पत्नी, देवयानी, अपनी त्रुटिपूर्ण आचरण के जीवन से मुक्त हो गईं, तो उन्होंने भी स्वयं को भगवान की भक्ति सेवा में लगा लिया.”
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, नौवाँ सर्ग, अध्याय 19- परिचय और पाठ 3
वृंदावन में रहने के योग्य कौन होता है?
वन में जाना और वहाँ पशुओं के साथ रहना, भगवान के परम व्यक्तित्व का ध्यान करना, कामुक इच्छाओं को त्यागने का एकमात्र साधन है. जब तक व्यक्ति ऐसी इच्छाओं का त्याग नहीं करता, तब तक उसका मन भौतिक संदूषण से मुक्त नहीं हो सकता. इसलिए, यदि व्यक्ति बार-बार जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोग के बंधन से मुक्त होने में रुचि रखता है, तो उसे एक निश्चित आयु के बाद वन में जाना चाहिए. पंचशोर्ध्वं वनं व्रजेत. पचास वर्ष की आयु के बाद स्वेच्छा से पारिवारिक जीवन का त्याग कर वन में जाना चाहिए. सबसे अच्छा वन वृंदावन है, जहाँ व्यक्ति को पशुओं के साथ रहने की आवश्यकता नहीं है, किंतु वह भगवान के परम व्यक्तित्व के साथ जुड़ सकता है, जो वृंदावन को कभी नहीं छोड़ता है. वृंदावन में कृष्ण भावनामृत को विकसित करना भौतिक बंधनों से मुक्त होने का सबसे अच्छा साधन है, क्योंकि वृंदावन में व्यक्ति स्वतः ही कृष्ण का ध्यान कर सकता है. वृंदावन में कई मंदिर हैं, और इनमें से एक या अधिक मंदिरों में कोई भी व्यक्ति परम भगवान के रूप को राधा-कृष्ण या कृष्ण-बलराम के रूप में देख सकता है और इस रूप का ध्यान कर सकता है. जैसा कि यहाँ ब्रह्मण्य अध्याय द्वारा व्यक्त किया गया है, व्यक्ति को अपने मन को परम भगवान, परब्रह्मण पर केंद्रित करना चाहिए. यह परंब्रह्म कृष्ण है, जैसा कि भगवद गीता में अर्जुन द्वारा पुष्टि की गई है (परम ब्रह्म परं धाम पवित्रम परमं भवान). कृष्ण और उनका निवास, वृंदावन, भिन्न नहीं हैं. श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है, आराध्यो भगवान व्रजेष-तन्यास तद्-धाम वृंदावनम. वृंदावन कृष्ण के समान ही है. इसलिए, यदि किसी व्यक्ति को किसी प्रकार वृंदावन में रहने का अवसर मिलता है, और यदि वह ढोंगी नहीं है, लेकिन केवल वृंदावन में रहता है और अपना मन कृष्ण पर केंद्रित करता है, तो वह भौतिक बंधन से मुक्त हो जाता है. व्यक्ति का मन शुद्ध नहीं होता है, यद्यपि, वृंदावन में भी, यदि कोई कामुक इच्छाओं से उत्तेजित होता है. तो उसे वृंदावन में रहना और अपराध नहीं करना चाहिए, क्योंकि वृंदावन में पापमय जीवन वहाँ के वानरों और शूकरों से अधिक श्रेष्ठ नहीं होता है. वृंदावन में बहुत से वानर और शूकर रहते हैं, और वे अपनी यौन इच्छाओं के प्रति चिंतित रहते हैं. जो पुरुष वृंदावन गए हैं, लेकिन जो अब भी मैथुन के लिए लालायित हैं, उन्हें तुरंत वृंदावन छोड़ देना चाहिए और भगवान के चरण कमलों में अपने घोर अपराधों को रोक देना चाहिए. बहुत से पथभ्रष्ट पुरुष हैं जो अपनी यौन इच्छाओं को पूरा करने के लिए वृंदावन में रहते हैं, किंतु वे निश्चित रूप से वानरों और शूकरों से अधिक श्रेष्ठ नहीं होते हैं. वह जो माया के वश में होते हैं, और विशेष रूप से कामुक इच्छाओं के वश में हैं, माया-मृग कहलाते हैं. वास्तव में, भौतिक जीवन की बद्ध अवस्था में हर व्यक्ति माया-मृग ही होता है. ऐसा कहा जाता है, माया-मृगं दायितायेप्सितं अन्वधावद: श्री चैतन्य महाप्रभु ने माया-मृगों, इस भौतिक संसार के लोग, जो कामुक इच्छाओं के कारण पीड़ित हैं, उन पर अपनी अकारण दया दिखाने के लिए संन्यास लिया. व्यक्ति को श्री चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और सदैव पूर्ण कृष्ण चेतना में कृष्ण का चिंतन करना चाहिए. तभी व्यक्ति वृन्दावन में रहने का पात्र होगा, और उसका जीवन सफल होगा.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, नौवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 19
किसी भी स्थिति में पति और पत्नी को अलग नहीं होना चाहिए.
चूँकि पुत्र अपने पिता को पुत नामक नर्क में दंड से बचाता है, उसको पुत्र कहा जाता है. इस सिद्धांत के अनुसार, जब पिता और माता के बीच असहमति होती है, तो वह पिता होता है, जिसका उद्धार पुत्र द्वारा किया जाता है, न कि माता का. किंतु यदि पत्नी अपने पति के प्रति निष्ठावान और दृढ़ होती है, तो जब पिता का उद्धार होता है, तब माँ का भी उद्धार हो जाता है. परिणामस्वरूप, वैदिक साहित्य में तलाक जैसी कोई वस्तु नहीं होती है. एक पत्नी को हमेशा अपने पति के प्रति पवित्र और निष्ठावान रहने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, क्योंकि इससे उसे किसी भी घृणित भौतिक स्थिति से मुक्ति प्राप्त करने में सहायता मिलती है. यह श्लोक स्पष्ट रूप से कहता है, पुत्रो नयति नारदेव यम-क्षयत: “पुत्र अपने पिता को यमराज के कारावास से बचाता है.” वह कभी यह नहीं कहता, पुत्र नयति मातरम: “बेटा अपनी माँ को बचाता है.” बीज देने वाले पिता का उद्धार होता है, भण्डारण करने वाली माता का नहीं. परिणामस्वरूप, पति और पत्नी को किसी भी हालत में अलग नहीं होना चाहिए, क्योंकि यदि उनकी एक संतान है जिसका पालन वे वैष्णव बनIने के लिए करते हैं, तो वह माता और पिता दोनों को यमराज के कारावास और नारकीय जीवन के दण्ड से बचा सकता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, नौवाँ सर्ग, अध्याय 20- पाठ 22



























