Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 5

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सात महासागर ओर सात द्वीपों की रचना कैसे हुई?

जब महाराजा प्रियव्रत ने भगवान ब्रम्हा के निर्देश पर राज सिंहासन स्वीकार किया, तब उनके पिता, मनु ने वानप्रस्थ किया. तत्पश्चात महाराजा प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह किया. बर्हिष्मती के गर्भ से उन्हें अग्निधरा, इदमजिह्वा, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतप्रस्थ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि नामक दस पुत्र हुए. उन्हें एक बेटी भी हुई, जिसका नाम ऊर्जस्वती था. महाराजा प्रियव्रत अपनी पत्नी और परिवार के साथ कई हजार वर्षों तक रहे. महाराजा प्रियव्रत के रथ के पहियों के छापों ने सात महासागरों और सात द्वीपों का निर्माण किया. प्रियव्रत के दस पुत्रों में से कवि, महावीर और सवन नामक तीन पुत्रों ने संन्यास स्वीकार किया, जो जीवन का चौथा आश्रम होता है, और शेष सात पुत्र सात द्वीपों के शासक बने. बाहरी अंतरिक्ष के ग्रहों को कभी-कभी द्वीप कहा जाता है. हमें समुद्र में विभिन्न प्रकार के द्वीपों का अनुभव है, और इसी तरह, चौदह लोकों में विभाजित, विभिन्न ग्रह अंतरिक्ष के महासागर में द्वीप हैं. जब प्रियव्रत ने अपने रथ से सूर्य का पीछा किया, तब उन्होंने सात अलग-अलग प्रकार के महासागरों और ग्रह प्रणालियों का निर्माण किया, जिन्हें एक साथ भू-मंडल या भूलोक के रूप में जाना जाता है. गायत्री मंत्र में, हम जप करते हैं, ओम् भूर्भुवः स्वः तत् सवितुर वरेण्यम्. भूलोक ग्रह मंडल के ऊपर भुवर्लोक स्थित है, और उसके ऊपर स्ववर्गीय ग्रहमंडल स्वर्गलोक है. इन सभी ग्रह मंडलों का नियंत्रण सविता, सूर्य-देवता द्वारा किया जाता है. यह समझना चाहिए कि सभी द्वीप, विभिन्न प्रकार के महासागरों से घिरे हुए हैं, और कहा जाता है कि प्रत्येक महासागर की चौड़ाई उस द्वीप के समान ही होती है जिसके आस-पास वह स्थित है. हालांकि, महासागरों की लंबाई, द्वीपों की लंबाई के बराबर नहीं हो सकती. वीरराघव के अनुसार, पहले द्वीप की चौड़ाई 100,000 योजन है. एक योजन आठ मील के बराबर होता है, इसलिए पहले द्वीप की चौड़ाई 800,000 मील होने की गणना की जाती है. इसके आस-पास की जलराशि की चौड़ाई समान होनी चाहिए, लेकिन उसकी लंबाई अलग होनी चाहिए.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवा सर्ग, अध्याय 01 – पाठ 01, 31, व 33

गृहस्थ जीवन का भोग करना दोष क्यों होता है?

श्रील सुकदेव गोस्वामी बताते हैं कि नारद मुनि ने राजा प्रियव्रत को मानव जीवन के लक्ष्य के बारे में सटीक निर्देश दिया था. मानव जीवन का लक्ष्य व्यक्ति के आत्म का अनुभव करना है और फिर धीरे-धीरे वापस घर, परम भगवान तक लौटना है. चूँकि नारद मुनि ने इस विषय पर राजा को पूर्ण रूपेण निर्देश दिया, तो उन्होंने फिर से गृहस्थ जीवन में प्रवेश क्यों किया, जो भौतिक बंधन का मुख्य कारण है? महाराजा परीक्षित बहुत चकित थे कि राजा प्रियव्रत गृहस्थ जीवन में बने रहे, विशेषकर चूँकि वे न केवल आत्म-ज्ञानी थे, बल्कि भगवान के प्रथम श्रेणी के भक्त भी थे. एक भक्त को वास्तव में गृहस्थ जीवन के लिए कोई आकर्षण नहीं होता है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, राजा प्रियव्रत ने गृहस्थ जीवन का बहुत आनंद लिया. कोई यह तर्क दे सकता है, “गृहस्थ जीवन का आनंद लेना गलत क्यों है?” इसका उत्तर यह है कि गृहस्थ जीवन में व्यक्ति भ्रामक गतिविधियों के परिणामों से बंध जाता है. गृहस्थ जीवन का सार इंद्रिय भोग है, और जब तक व्यक्ति अपने मन को इंद्रिय भोग के लिए कड़ी मेहनत करने में लगाता है, तब तक व्यक्ति भ्रामक गतिविधियों की प्रतिक्रियाओं से बंधा होता है. आत्म-साक्षात्कार की यह अज्ञानता मानव जीवन की सबसे बड़ी हार है. जीवन का मानवीय रूप विशेष रूप से भ्रामक गतिविधियों के बंधन से बाहर निकलने के लिए है, लेकिन जब तक व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति विस्मृति मे रहता है और एक सामान्य प्राणी के जैसे व्यवहार करता है – भोजन करना, सोना, संभोग करना और बचाव करना – उसे भौतिक अस्तित्व के अपने बद्ध जीवन को जारी रखना पड़ेगा. ऐसे जीवन को स्वरूप-विस्मृति, व्यक्ति की वैधानिक स्थिति की विस्मृति, कहा जाता है. इसलिए वैदिक सभ्यता में व्यक्ति को जीवन की शुरुआत में ही ब्रह्मचारी के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है. एक ब्रह्मचारी को तपस्या करनी चाहिए और संभोग लिप्तता से बचना चाहिए. इसलिए यदि कोई ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों में पूरी तरह प्रशिक्षित है, तो वह सामान्यतः गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करता है. उसके बाद उन्हें नैष्टिक-ब्रह्मचारी कहा जाता है, जो संपूर्ण ब्रह्मचर्य का संकेत देता है. इस प्रकार राजा परीक्षित आश्चर्यचकित थे कि महान राजा प्रियव्रत ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया, यद्यपि वे नैष्टिक-ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों में प्रशिक्षित थे.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” पांचवाँ सर्ग, अध्याय 1 – पाठ 1

आध्यात्मिक पथ इतना मंगल होता है कि एक भक्त किसी भी स्थिति में नहीं खो सकता.

चूँकि भौतिक संसार कृष्ण चेतना में प्रगति के लिए बाधाओं से भरा हुआ है, ऐसा लग सकता है कि बहुत से व्यवधान हैं, फिर भी कृष्ण, भगवान के परम व्यक्तित्व, भगवद्-गीता (9.31) में घोषित करते हैं, कौंतेय प्रतिजानिहि न मे भक्तः प्रनाश्यति: जब कोई भगवान के चरण कमलों में शरण ले लेता है, वह भटक नहीं सकता. आध्यात्मिक पथ इतना मंगल होता है कि एक भक्त किसी भी स्थिति में नहीं खो सकता. ऐसा भगवद्-गीता में स्वयं भगवान द्वारा बताया गया है पार्थ नैवेह नमुत्र विनाशस् तस्य विद्यते: “मेरे प्रिय अर्जुन, एक भक्त के लिए भटक जाने का कोई प्रश्न नहीं उठता, इस जीवन में या अगले जन्म में.” (भगी. 6.40) भगवद्-गीता (6.43) में भगवान स्पष्ट रूप से बताते हैं कि ऐसा किस प्रकार है.

तत्र तम बुद्धि-संयोगम लभते पौरव-देहिकम
यतते च ततो भुयः समसिद्धौ कुरु-नंदन

भगवान के आदेश पर, एक संपूर्ण भक्त कभी-कभी एक सामान्य मानव के समान इस भौतिक संसार में आता है. उसके पिछले अभ्यास के कारण, ऐसा संपूर्ण भक्त सहज ही भक्ति सेवा पर आसक्त हो जाता है, स्पष्ट रूप से बिना किसी हेतु के. आस-पास के वातावरण के कारण सभी प्रकार की बाधाओं के बावजूद, वह स्वतः ही भक्ति सेवा में नियमित रहता है और धीरे-धीरे प्रगति करता है जब तक कि वह फिर से संपूर्ण न बन जाए. बिल्वमंगल ठाकुर अपने पूर्व जीवन में एक उन्नत भक्त थे, लेकिन अगले जन्म में वह बहुत पतित हो गए और वेश्याओं पर आसक्त हो गए. अचानक, यद्यपि, उश वेश्या के शब्दों से उनका संपूर्ण व्यवहार बदल गया था, जिसने उन्हें बहुत आसक्त बनाया था, और वे एक महान भक्त बने. उच्च स्तर के भक्तों के जीवन में, ऐसे कई उदाहरण होते हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि जब कोई भगवान के चरण कमलों में शरण ले लेता है, तो वह भटक नहीं सकता (कौन्तेय प्रतिजनि न मे भक्तः प्रणस्यति).

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 01- पाठ 05

वैष्णव-अपराध एक प्रकार से भक्ति सेवा के प्रति बाधा होता है.

श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों को चेतावनी दी थी की वैष्णव अपराध, किसी वैष्णव के चरणों में अपराध नहीं करें, जिसका वर्णन उन्होंने पागल हाथी के आक्रमण के रूप में किया है. जब एक पागल हाथी किसी सुंदर उद्यान में प्रवेश करता है, तो वह सभी कुछ नष्ट कर देता है, और उजाड़ मैदान छोड़ जाता है. उसी प्रकार, वैष्णव-अपराध की शक्ति इतनी विराट होती है कि एक वरिष्ठ भक्त भी उसकी आध्यात्मिक संपत्तियों से लगभग वंचित हो जाता है, यदि वह ऐसा करे तो. चूँकि कृष्ण चेतना अमर है, इसे एक साथ नष्ट नहीं किया जा सकता, लेकिन समय विशेष के लिए प्रगति को सीमित किया जा सकता है. अतः वैष्णव-अपराध एक प्रकार से भक्ति सेवा के प्रति बाधा होता है. जब कोई एक वैष्णव के चरणों में अपराध करता है, तो व्यक्ति को उससे तुरंत क्षमा याचना करनी चाहिए ताकि उसकी आध्यात्मिक प्रगति बाधित न हो सके.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 01- पाठ 05

कलियुग के लिए श्रीमद्-भागवतम् की कुछ भविष्यवाणियाँ.

श्रीमद्-भागवतम् भविष्यवाणी करती है कि कलि-युग में शासन दस्यु-धर्म निभाएगा, जिसका अर्थ ठग और चोरों का कर्तव्य है. राज्य के आधुनिक प्रमुख ठग और चोर हैं जो नागरिकों की रक्षा करने की बजाय उन्हें लूटते हैं. ठग और चोर नियमों की परवाह किए बिना लूटमार करते हैं, लेकिन कलि के इस युग में, जैसा कि श्रीमद्-भागवतम् में कहा गया है, विधि निर्माता ही नागरिकों को लूटते हैं. अगली घटना की भविष्यवाणी, जो पहले ही बीतने को है, वह यह कि नागरिकों और शासन के पापमय कृत्यों के कारण वर्षा बहुत कम हो जाएगी. धीरे-धीरे पूरी तरह अकाल होगा और अन्न का उत्पादन नहीं होगा. लोग केवल मांस और बीज खाने तक सीमित हो जाएंगे, और बहुत से अच्छे, आध्यात्मिक रुझान वाले लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ेगा क्योंकि वे सूखा, करों, और अकाल से बहुत परेशान हो चुके होंगे. ऐसे विनाश से विश्व को बचाने की एकमात्र आशा कृष्ण चेतना आंदोलन है. यह संपूर्ण मानव समाज के वास्तविक कल्याण के लिए सबसे वैज्ञानिक और प्रामाणिक आंदोलन है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 02 – पाठ 01

आत्म-निर्भर होने के कारण, परम भगवान को महान बलियों की आवश्यकता नहीं होती.

आत्म-निर्भर होने के कारण, परम भगवान को महान बलियों की आवश्यकता नहीं होती. अधिक ऐश्वर्यमयी जीवन के लिए भोग-विलास उन लोगों के लिए होता है जो अपने हित में ऐसे भौतिक ऐश्वर्य की कामना करते हैं. यज्ञार्थात कर्मणो ‘न्यत्र लोको’ यम कर्म-बंधनः [भ.गी. 3.9] यदि हम परम भगवान को संतुष्ट करने के लिए कार्य नहीं करते हैं, तो हम माया की गतिविधियों में संलग्न हैं. हम एक भव्य मंदिर का निर्माण कर सकते हैं और हजारों डॉलर खर्च कर सकते हैं, लेकिन इस तरह के मंदिर की आवश्यकता भगवान को नहीं होती है. भगवान के निवास के लिए कई लाखों मंदिर हैं और उन्हें हमारे प्रयास की आवश्यकता नहीं है. उन्हें राजसी गतिविधि की कोई आवश्यकता नहीं है. ऐसी संलग्नता हमारे लाभ के लिए है. यदि हम एक भव्य मंदिर के निर्माण में अपना धन लगाते हैं, तो हम अपने प्रयासों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाते हैं. यह हमारे लाभ के लिए है. इसके अतिरिक्त, यदि हम परम भगवान के लिए कुछ अच्छा करने का प्रयास करते हैं, तो वह हमसे प्रसन्न होते हैं और हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है. निष्कर्ष यह, कि यह सुंदर व्यवस्था भगवान के लिए नहीं बल्कि स्वयं हमारे लिए है. यदि हम किसी तरह भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, तो हमारी चेतना को शुद्ध किया जा सकता है और हम भगवान के पास, वापस घर लौटने के योग्य बन सकते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 03- पाठ 08

भगवान एक हैं.

भगवान एक हैं, और भगवान उस या इस धर्म से संबंध नहीं रखते हैं. कलियुग में विभिन्न धार्मिक संप्रदाय अपने ईश्वर को दूसरों के ईश्वर से अलग मानते हैं, लेकिन यह संभव नहीं है. भगवान एक है, और वह विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार उनका गुणगान किया जाता है. इस श्लोक में कैवल्यत शब्द का अर्थ है कि भगवान का कोई प्रतिद्वंदी नहीं है. भगवान एक ही हैं. श्वेताशवतार उपनिषद् (6.8) में कहा गया है, न तत-समस् चभ्याधिकस च द्रश्यते: “कोई भी उनके समकक्ष या उनसे महान नहीं है”. यही भगवान कि परिभाषा है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 03- पाठ 17

 

कभी-कभी भगवान ब्रह्मा, नारद या भगवान शिव जैसे महान व्यक्तित्वों को भी भगवान के रूप में संबोधित किया जाता है.

वेदांत-सूत्र में वर्णित भगवान विष्णु, परम आत्म (आत्मा), ही सब कुछ के स्रोत हैं: जनमदस्य यतः. चूँकि ब्रह्मा का जन्म सीधे भगवान विष्णु से हुआ था, इसलिए उन्हें आत्म-योनि कहा जाता है. उन्हें भगवान भी कहा जाता है, यद्यपि सामान्यतः भगवान से अभिप्राय भगवान के परम व्यक्तित्व से होता है. कभी-कभी महान व्यक्तित्वों – भगवान ब्रह्मा, नारद या भगवान शिव जैसे देवताओं को भी भगवान के रूप में संबोधित किया जाता है, क्योंकि वे भगवान के परम व्यक्तित्व के उद्देश्य को पूरा करते हैं. भगवान ब्रह्मा को भगवान कहा जाता है क्योंकि वे इस ब्रह्मांड के द्वितीय निर्माता हैं. यह पद, भगवान, कभी-कभी भगवान की कृपा से एक शुद्ध भक्त को प्रदान किया जाता है ताकि उसे बहुत सम्मानित किया जाए.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 05- पाठ 07 और 39

परिवार की आसक्ति सर्वशक्तिशाली भ्रम है.

संभोग स्त्री और पुरुष के बीच प्राकृतिक आकर्षण का काम करता है और जब वे विवाहित होते हैं, तो उनका संबंध और अधिक जुड़ जाता है. स्त्री और पुरुष के उलझन भरे संबंध के कारण भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है, जिससे व्यक्ति सोचता है, “यह पुरुष मेरा पति है,” या “यह स्त्री मेरी पत्नी है.” इसे हृदय-ग्रन्थि कहा जाता है, “हृदय में कड़ी गाँठ.” इस गाँठ को खोलना बहुत कठिन होता है, भले ही एक पुरुष और स्त्री या तो वर्णाश्रम के सिद्धांतों के लिए अलग हो जाएँ या बस तलाक लेने के लिए. कुछ भी हो, पुरुष हमेशा स्त्री के बारे में सोचता है, और स्त्री हमेशा पुरुष के विचारों में रहती है. इस प्रकार एक व्यक्ति भौतिक रूप से परिवार, संपत्ति और बच्चों से आसक्त हो जाता है, हालाँकि ये सभी अस्थायी होते हैं. संपत्ति रखने वाला दुर्भाग्य से अपनी संपत्ति और धन के साथ ही अपनी पहचान करता है. कभी-कभी, त्याग करने के बाद भी, व्यक्ति किसी मंदिर या कुछ ऐसी वस्तुओं के प्रति आसक्त होता है जो संन्यासी की संपत्ति होती हैं, लेकिन ऐसी आसक्ति उतनी सशक्त नहीं होती जितनी परिवार की आसक्ति. परिवार के प्रति आसक्ति सबसे शक्तिशाली भ्रम है. सत्यसंहिता में, यह कहा गया है:

ब्रह्मद्य याज्ञवल्कद्य मुच्यन्ते स्त्री-सहायिनः
बोध्यन्ते केचनित्सम विशेषम च विदो विदुः

कभी-कभी भगवान ब्रह्मा जैसे असाधारण व्यक्तित्वों के बीच यह पाया जाता है कि पत्नी और बच्चे बंधन का कारण नहीं होते हैं. इसके विपरीत, पत्नी वास्तव में आध्यात्मिक जीवन और मुक्ति में सहायता करती है. बहरहाल, अधिकांश लोग वैवाहिक संबंधों की गांठों से बंधे होते हैं, और फलस्वरूप वे कृष्ण के साथ अपने संबंध को भूल जाते हैं.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” पांचवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 8

जिन जीवों के पास जीवन शक्ति होती है वे निष्क्रिय पदार्थ से श्रेष्ठ होते हैं.

दो ऊर्जाएं हैं – भौतिक और आध्यात्मिक – और दोनों मूल रूप से कृष्ण से आती हैं. दो ऊर्जाओं में से [आत्मा और निष्क्रिय पदार्थ] प्रकट होते हैं, जिन प्राणियों के पास जीवन शक्ति [सब्जियां, घास, पेड़ और पौधे] होती है वे निष्क्रिय पदार्थों [पत्थर, पृथ्वी, आदि] से श्रेष्ण होते हैं. गतिहीन पौधों और वनस्पतियों से कीड़े और साँप श्रेष्ठ हैं, जो गतिशील रह सकते हैं. कीड़े और सांपों से बेहतर वे जानवर हैं जिन्होंने बुद्धि विकसित की है. पशुओं से मानव श्रेष्ठ होते हैं, मानवों से भूत श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि उनके कोई भौतिक शरीर नहीं होते. भूतों से श्रेष्ठ गंधर्व होते हैं, और उनसे श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं. सिद्धों से श्रेष्ठ किन्नर होते हैं, और उनसे श्रेष्ठ असुर होते हैं. असुरों से श्रेष्ठ देवता हैं, और देवताओं में, स्वर्ग के राजा, इंद्र श्रेष्ठतम हैं. इंद्र से श्रेष्ठ भगवान ब्रम्हा के प्रत्यक्ष पुत्र हैं, राजा दक्ष जैसे पुत्र, और ब्रम्हा के पुत्रों में भगवान शिव श्रेष्ठ हैं. चूँकि भगवान शिव भगवान ब्रम्हा के पुत्र हैं, इसलिए ब्रम्हा को उच्चतर माना जाता है, लेकिन ब्रम्हा भी मेरे, भगवान के परम व्यक्तित्व के अधीन हैं. चूँकि मेरा झुकाव ब्राम्हणों की ओर है, ब्राम्हण सबसे श्रेष्ठ होते हैं. भगवान को ब्रह्मयज्ञ के रूप में पूजा जाता है. भगवान भक्तों या ब्राह्मणों पर बहुत अनुराग रखते हैं. इसमें तथाकथित जाति के ब्राह्मणों का उल्लेख नहीं है, बल्कि योग्य ब्राह्मणों का है. ब्राह्मण को आठ गुणों जैसे कि साम, दाम, सत्य और तितीक्षा से योग्य होना चाहिए. ब्राह्मणों की हमेशा पूजा की जानी चाहिए, और उनके मार्गदर्शन में शासक को अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए और नागरिकों पर शासन करना चाहिए. दुर्भाग्य से, कलि के इस युग में, कार्य करने वाले का चयन बहुत बुद्धिमान लोगों द्वारा नहीं किया गया है, और न ही उसे योग्य ब्राह्मणों द्वारा निर्देशित किया गया है. परिणामस्वरूप, अराजकता पैदा होती है. जनता को कृष्ण चेतना में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुसार वे सरकार का नेतृत्व करने के लिए भरत महाराजा जैसे प्रथम श्रेणी के भक्त का चयन कर सकें. यदि राज्य को मुखिया का नेतृत्व योग्य ब्राम्हणों द्वारा किया जाता है, तब सब कुछ श्रेष्ठ होता है.

स्रोत: अभय भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 05 – पाठ 21 और 22

ब्राम्हण कौन होता है?

एक ब्राम्हण वह होता है जिसने मन और इंद्रिय नियंत्रण का अभ्यास करके वैदिक निष्कर्षों को आत्मसात कर लिया हो. वह सभी वेदों का सच्चा संस्करण बोलता है. जैसा कि भगवद गीता (15.15) में पुष्टि की गई है: वेदैस च सर्वैर अहम् एव वेद्यः. सभी वेदों का अध्ययन करके, व्यक्ति को भगवान श्रीकृष्ण के पारलौकिक पद को समझना चाहिए. वह जिसने वेदों के सत्व को ग्रहण कर लिया हो वह सत्य का प्रवचन कर सकता है. वह उन बद्ध आत्माओं के प्रति दयालु होता है जो कृष्ण के प्रति सचेत नहीं होने के कारण इस बद्ध संसार के त्रिविध दुखों को झेल रही हैं. एक ब्राम्हण को लोगों पर दया करनी चाहिए और उन्हें उन्नत करने के लिए कृष्ण चेतना का प्रचार करना चाहिए. भगवान के परम व्यक्तित्व, भगवान श्रीकृष्ण स्वयं, बद्ध आत्माओं को आध्यात्मिक जीवन के बारे में शिक्षित करने के लिए आध्यात्मिक राज्य से इस ब्रम्हांड में उतरते हैं. उसी समान, ब्राम्हण भी वैसा ही करते हैं. वैदिक निर्देशों को आत्मसात करने के बाद, वे बद्ध आत्माओं की मुक्ति के परम भगवान के प्रयास में सहायता करते हैं. अपनी सत्व-गुण विशेषताओं के कारण ब्राम्हण परम भगवान को बहुत प्रिय होते हैं, और वे भौतिक संसार में सभी बद्ध आत्माओं के लिए कल्याणकारी गतिविधियों में भाग लेते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 05- पाठ 24

जीवन पदार्थ से मिलता है या पदार्थ जीवन से मिलता है?

यह आधुनिक अवधारणा कि जीवन पदार्थ से आता है का समर्थन कुछ सीमा में इस छंद में किया गया है, भूतेषु विरुद्भ्यः. अर्थात्, जीव वनस्पतियों, घास, पेड़-पौधों से विकसित होते हैं. जो निष्क्रिय पदार्थों से श्रेष्ठतर हैं. दूसरे शब्दों में, पदार्थ में भी वनस्पतियों के रूप में जीवों की रचना करने की शक्ति है. इस अर्थ में, जीवन पदार्थ से निकलता है, लेकिन पदार्थ भी जीवन से आता है. जैसा कि कृष्ण भागवद्-गीता (10.8) में कहते हैं, अहं सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्वम् प्रवर्तते: “समस्त आध्यात्मिक और भौतिक संसारों का स्रोत मैं हूँ. सभी कुछ मुझसे ही उत्पन्न होता है.”

दो ऊर्जाएँ होती हैं–भौतिक और आध्यात्मिक और दोनों मूल रूप से कृष्ण से ही आती हैं. कृष्ण ही सर्वोत्तम जीव हैं. हालाँकि ऐसा कहा जा सकता है कि भौतिक संसार में जीवन शक्ति पदार्थ से पैदा होती है, परंतु यह मानना होगा कि पदार्थ वास्तविकता में सर्वोत्तम जीव से उपजता है. नित्यो नित्यम चेतनस चेतनानम्. निष्कर्ष यह है कि, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों, सभी कुछ, सर्वोत्तम जीव से उपजता है. विकासवादी दृष्टि से, श्रेष्ठता तब आती है जब कोई जीव ब्राम्हण के स्तर तक पहुँचता है. ब्राम्हण सर्वोत्तम ब्राम्हण का उपासक होता है, और सर्वोत्तम ब्राम्हण, ब्राम्हण का उपासक होता है. दूसरे शब्दों में, भक्त परम भगवान के अधीनस्थ होता है, और भगवान का रुझान अपने भक्त की संतुष्टि को देखने में होता है. ब्राम्हण को द्विज-देव कहा जाता है, और भगवान को द्विज-देव-देव कहा जाता है. वह ब्राम्हणों के भगवान हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 05 – पाठ21 व 22

जैन धर्म का आरंभ

जब भगवान कृष्ण इस ग्रह पर उपस्थित थे, पुंड्रका नाम के एक व्यक्ति ने चार हाथों वाले नारायण की नकल की और स्वयं को परम भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व घोषित किया. वह कृष्ण के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता था. इसी प्रकार, भगवान ऋषभदेव के समय में, कोंक और वेंक के राजा अरहत ने एक परमहंस का अभिनय किया और भगवान ऋषभदेव की नकल की. उन्होंने धर्म की एक प्रणाली शुरू की और इस कलियुग में लोगों की पतित स्थिति का लाभ उठाया. किंकर्तव्यविमूढ़ राजा अर्हत ने वैदिक सिद्धांतों का त्याग किया, जो कि जोखिम से मुक्त हैं, और वेदों के विपरीत धर्म की एक नई प्रणाली की कल्पना की. यह जैन धर्म की शुरुआत थी. जैन भगवान ऋषभदेव को अपने मूल उपदेशक के रूप में संदर्भित करते हैं. यदि ऐसे लोग ऋषभदेव के गंभीर अनुयायी हैं, तो उन्हें उनके निर्देश भी लेने चाहिए. ऋषभदेव ने अपने सौ पुत्रों को निर्देश दिया कि वे माया के चंगुल से मुक्त हो सकें. यदि कोई वास्तव में ऋषभदेव का अनुसरण करता है, तो उसे निश्चित रूप से माया के चंगुल से छुड़ाया जाएगा और वापस देवभूमि में, परम भगवान के व्यक्तित्व के पास पहुँचा दिया जाएगा.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 06 - पाठ 9 और 12

लोगों की भौतिक स्थिति को सुधारना असंभव है.

माया अत्यंत शक्तिशाली है. परोपकार, परहितवाद और साम्यवाद के नाम पर, संसार भर में लोग पीड़ित मानवता के लिए करुणा का अनुभव कर रहे हैं. परोपकारी और परहितवादी लोग यह अनुभव नहीं करते हैं कि लोगों की भौतिक स्थिति में सुधार करना असंभव है. भौतिक स्थिति पहले से ही उच्चतर प्रशासन द्वारा व्यक्ति के कर्म के अनुसार स्थापित की जाती है. उन्हें बदला नहीं जा सकता. पीड़ित प्राणियों को हम केवल एक ही लाभ दे सकते हैं, उन्हें आध्यात्मिक चेतना में उन्नत करने का प्रयास कर सकते हैं. भौतिक सुख-सुविधाओं को बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता. इसलिए श्रीमद-भागवतम (1.5.18) में कहा गया है,तल लभ्यते दुखवाद अन्यतः सुखम:”जहाँ तक भौतिक सुख का प्रश्न है, वह बिना परिश्रम के आता है, जैसे क्लेश बिना परिश्रम के आता है.” भौतिक सुख और कष्ट बिना प्रयास के प्राप्त किया जा सकता है. भौतिक गतिविधियों के लिए व्यक्ति को चिंता नहीं करना चाहिए. यदि कोई अन्य के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति रखता है या भला करने में सक्षम है, तो उसे लोगों को कृष्ण चेतना में उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए. इस प्रकार हर कोई भगवान की कृपा से आध्यात्मिक रूप से प्रगति करता है. हमें निर्देशित करने के लिए, भरत महाराजा ने ऐसा व्यवहार किया. हमें बहुत सावधान रहना चाहिए और शारीरिक, संदर्भ में तथाकथित कल्याणकारी गतिविधियों द्वारा पथभ्रष्ट नहीं होना चाहिए. किसी भी मूल्य पर भगवान विष्णु की कृपा पाने में अपनी रुचि नहीं छोड़नी चाहिए. सामान्यतः लोग यह नहीं जानते, या वे इसे भूल जाते हैं. फलस्वरूप वे अपने मूल हित, विष्णु की कृपा प्राप्ति का त्याग कर देते हैं, और शारीरिक सुख के लिए परोपकारी कार्यों में संलग्न हो जाते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” पांचवाँ सर्ग, अध्याय 8 – पाठ 10

कोई भक्त अपने पिछले दुर्व्यवहार और अनैतिक गतिविधियों से कैसे प्रभावित होता है?

ब्रम्ह संहिता (5.54) में ऐसा कहा गया है, कर्माणि निर्दहति किंतु च भक्ति-भजम: “उनके लिए जो भक्ति सेवा, भक्ति-भजन में रत हो, पिछले कर्मों के परिणामों की क्षतिपूर्ति कर दी जाती है.” इसके अनुसार, भरत महाराज को उनके पिछले बुरे कर्मों के लिए दण्ड नहीं दिया जा सका था. निष्कर्ष यही हो सकता है कि महाराज भरत उद्देश्यपूर्ण रूप से मृग पर अतिआसक्त बन गए थे और उन्होंने अपनी आध्यात्मिक प्रगति की उपेक्षा की. अपनी त्रुटि को तुरंत ठीक करने के लिए, कुछ समय के लिए उन्हें एक मृग का शरीर दे दिया गया था. ऐसा केवल गंभीर भक्ति सेवा के लिए उनकी इच्छा को बढ़ाने के लिए था. यद्यपि भरत महाराज को एक पशु का शरीर दे दिया गया था, वे यह नहीं भूले कि उनकी उद्देश्यपूर्ण भूल के कारण क्या हुआ था. वह अपने मृग के शरीर से निकलने के लिए व्याकुल थे, और यह दर्शाता है कि भक्ति सेवा के लिए उनका स्नेह सघन हो गया था, इतना कि वे अगले जीवन में एक ब्राम्हण के शरीर में पूर्णता अर्जित करने वाले थे. ऐसा इस विश्वास के साथ है कि हम अपनी बैक टू गॉडहेड पत्रिका में घोषणा करते हैं कि वृंदावन में रहने वाले गोस्वामी जैसे भक्त जो जानबूझकर कुछ पाप कर्म करते हैं वे उस पवित्र भूमि में कुत्ते, वानर, और कछुओं के शरीर में पैदा होते हैं. इस प्रकार वे थोड़े समय के लिए इन निचले जीवन रूपों को धारण करते हैं और उन पशुओं के शरीर त्यागने के बाद, उन्हें फिर से आध्यात्मिक संसार में पदोन्नत किया जाता है. ऐसे दण्ड केवल कुछ समय के लिए होता है, और यह पिछले कर्म के कारण नहीं होता. यह पिछले कर्म का परिणाम प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह भक्त को सुधारने और उसे शुद्ध भक्ति सेवा में लाने के लिए किया जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 08- पाठ 26

हमें भक्ति सेवा निष्पादित करते समय सावधान रहना चाहिए.

वे जिन्होंने कृष्ण चेतना ग्रहण कर ली है उन्हें बहुत सावधान रहना चाहिए कि एक क्षण भी व्यर्थ न हो और एक भी क्षण जाप के बिना और भगवान के परम व्यक्तित्व और उनकी गतिविधि के स्मरण के बिना व्यतीत न हो. कृष्ण स्वयं अपने कर्मों और उनके भक्तों के कर्मों द्वारा हमें शिक्षा देते हैं कि भक्ति सेवा में सतर्क कैसे बनना है. भरत महाराजा के माध्यम से, कृष्ण हमें सिखाते हैं कि हमें भक्ति सेवा के निर्वहन में सावधानी बरतनी चाहिए. यदि हम अपने मनों को पूरी तरह से विचलन के बिना स्थिर बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें उन्हें पूरी तरह से भक्ति सेवा में संलग्न करना चाहिए. जहाँ तक कृष्णा चेतना के लिए इंटरनेशनल सोसाइटी के सदस्यों का प्रश्न है, उन्होंने इस कृष्ण चेतना आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया है. तब भी उन्हें भरत महाराज के जीवन से बहुत सतर्क रहने की शिक्षा लेनी चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि एक भी क्षण व्यर्थ की बातों, नींद या तामसिक भोजन में व्यर्थ न हो. भोजन करना निषिद्ध नहीं है, लेकिन यदि हम तामसिक भोजन करते हैं तो हम निश्चित रूप से आवश्यकता से अधिक सोएंगे. इंद्रिय तुष्टि का परिणाम निकलता है, और हमें निचले जीवन रूप में अवनत किया जा सकता है. इस प्रकार हमारी आध्यात्मिक प्रगति को कुछ समय के लिए ही सही लेकिन सीमित की जा सकती है. सर्वश्रेष्ठ मार्ग श्रील रूप गोस्वामी के सुझाव को स्वीकार करना है: अव्यर्थ-कलत्वम. हमें देखना चाहिए कि हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण भक्ति सेवा करने में प्रयुक्त होना चाहिए और किसी भी वस्तु में नहीं. यह स्थिति उनके लिए सुरक्षित है जो घर वापस, भगवाना के पास लौटने की इच्छा रखते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 08- पाठ 29;

मन हमें हमेशा ऐसा करने या वैसा करने को कहता रहता है.

एक सरल हथियार है जिसके साथ मन को जीता जा सकता है – उपेक्षा. मन हमेशा हमें यह या वह करने के लिए कह रहा है; इसलिए हमें मन के आदेशों की अवज्ञा करने में बहुत कुशल होना चाहिए. धीरे-धीरे मन को आत्मा के आदेश मानने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए. ऐसा नहीं कि व्यक्ति को मन के आदेश मानना चाहिए. श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर कहा करते थे कि मन को नियंत्रित करने के लिए व्यक्ति को जागते ही और फिर सोने से पहले कई बार जूतों से पीटना चाहिए. इस प्रकार व्यक्ति मन को नियंत्रित कर सकता है. सभी शास्त्रों का यही निर्देश है. यदि व्यक्ति ऐसा नहीं करता, तो वह मन की आज्ञा मानने के लिए अभिशप्त है. एक अन्य प्रामाणिक प्रक्रिया आध्यात्मिक गुरु के आदेशों का क़ड़ाई से पालन करना और प्रभु की सेवा में संलग्न होना है. तब मन स्वतः ही नियंत्रण में आ जाएगा. श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रील रूप गोस्वामी को निर्देश दिया था:

ब्रह्माण्ड भ्रमते कोना भाग्यवान जीव
गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाया भक्ति-लता-बीज

जब कोई गुरु और कृष्ण भगवान के परम व्यक्तित्व की दया से आध्यात्मिक सेवा का बीज प्राप्त करता है, तब उसका वास्तविक जीवन शुरू होता है.

स्रोत: अभय भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 11 – पाठ 17

सभी नक्षत्र – तारे, सूर्य और चंद्रमा – सीमित आत्मा की गतिविधियों के साक्षी हैं.

यह कहा जाता है कि घरेलू आकर्षण पत्नी में रहता है क्योंकि मैथुन गृहस्थ जीवन का केंद्र है: यानि मैथुनादि-गृहमेधि-सुखम हि तुच्छम् [SB 7.9.45]. अपनी पत्नी को आकर्षण का केंद्र बनाने वाला, कोई भौतिकवादी व्यक्ति, दिन रात बहुत परिश्रम करता है. भौतिक जीवन में उसका एकमात्र आनंद यौन क्रीड़ा होता है. इसलिए कामी मित्र या पत्नियों के रूप में स्त्रियों से आकर्षित होते हैं. वास्तव में, वे बिना मैथुन के कार्य नहीं कर सकते. परिस्थितियों के अनुसार पत्नी की तुलना एक बवंडर से की जाती है, खासकर उसके मासिक धर्म के दौरान. जो लोग गृहस्थ जीवन के नियमों और कानूनों का कड़ाई से पालन करते हैं, वे मासिक धर्म के अंत में महीने में केवल एक बार मैथुन में संलग्न होते हैं. जब कोई इस अवसर की प्रतीक्षा करता है, उसकी आँखें उसकी पत्नी की सुंदरता से अभिभूत हो जाती हैं. इसलिए यह कहा जाता है कि बवंडर आंखों को धूल से ढंकता है. ऐसे लालची व्यक्ति को पता नहीं है कि उसकी सभी भौतिक गतिविधियाँ अलग-अलग देवताओँ, विशेष रूप से सूर्य देवता द्वारा देखी जा रही हैं, और अगले जन्म के कर्म के लिए दर्ज की जा रही हैं. ज्योतिषीय गणनाओं को ज्योति-शास्त्र कहा जाता है. क्योंकि भौतिक संसार में ज्योति, या संयोग, विभिन्न सितारों और ग्रहों से आता है, विज्ञान को ज्योति-शास्त्र कहा जाता है, नक्षत्रों का विज्ञान ज्योति की गणना से, हमारे भविष्य का संकेत मिलता है। दूसरे शब्दों में, सभी नक्षत्र – तारे, सूर्य और चंद्रमा – सीमित आत्मा की गतिविधियों के साक्षी हैं. इसलिए उसे एक विशेष प्रकार का शरीर दिया जाता है. एक कामी व्यक्ति, जिसकी आँखें बवंडर या भौतिक अस्तित्व से ढंकीं हैं वह बिलकुल विचार नहीं करता कि उसकी गतिविधियों को विभिन्न नक्षत्रों और ग्रहों द्वारा देखा जा रहा है और अभिलेखन किया जा रहा है. ऐसा न जानते हुए, सीमित आत्मा अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सभी प्रकार की पापमय गतिविधियाँ करती है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 13 – पाठ 04

भौतिक संसार के जंगल में स्त्री का पीछा करना जारी है.

किसी बड़े वन में, मधुकोश बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. लोग अक्सर छत्तों से शहद इकट्ठा करने वहाँ जाते हैं, और कभी-कभी मधुमक्खियाँ आक्रमण कर देती हैं और उन्हें दंड देती हैं. मानव समाज में, जो कृष्ण के प्रति सचेत नहीं हैं, वे केवल यौन जीवन के लिए ही भौतिक जीवन के जंगल में रह जाते हैं. इस प्रकार के विषयासक्त एक पत्नी से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं होते हैं. उन्हें कई स्त्रियाँ चाहिए. दिनों दिन, बड़ी मुश्किल से, वे ऐसी स्त्रियों को पाने का प्रयास करते हैं, और कभी-कभी, इस तरह के शहद का स्वाद लेने के प्रयास में, उस पर किसी स्त्री के संबंधियों द्वारा हमला किया जाता है और उसे बहुत प्रताड़ित किया जाता है. दूसरों को प्रलोभन देकर, व्यक्ति पराई स्त्री को भोग के लिए पा सकता है, फिर भी कोई अन्य लंपट उसे हर सकता है या उसे कुछ श्रेष्ठतर देने का प्रलोभन दे सकता है. भौतिक संसार के जंगल में स्त्री का पीछ करना जारी है, कभी नियमानुसार और कभी अवैध रूप में. फलस्वरूप इस कृष्ण चेतना आंदोलन में भक्तों को अवैध संभोग करने से मना किया जाता है. इस प्रकार वे बहुत सी कठिनाइयों से बच जाते हैं. विधिवत विवाह करके एक स्त्री से संतुष्ट रहना चाहिए. समाज में गड़बड़ी पैदा किये बिना और ऐसा करने के लिए दंडित हुए बिना व्यक्ति अपनी पत्नी की काम इच्छाओं को पूरा कर सकता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), "श्रीमद् भागवतम्", पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 13 - पाठ 10

मानव जन्म आत्म-साक्षात्कार के लिए एक महान अवसर होता है.

मानव जन्म आत्म-साक्षात्कार के लिए एक महान अवसर होता है. किसी का जन्म किसी उच्चतर ग्रह मण्डल में देवताओं के बीच हुआ हो, लेकिन भौतिक सुख-साधनों की प्रचुरता के कारण व्यक्ति भौतिक बंधन से मुक्त नहीं हो पाता. यहाँ तक कि इस धरा पर भी जो लोग बहुत संपन्न हैं, वे सामान्यतः कृष्ण चेतना अपनाने की चिंता नहीं करते. एक बुद्धिमान व्यक्ति जो वास्तव में भौतिक चंगुल से मुक्त होने में रुचि रखता है उसे शुद्ध भक्तों के साथ जुड़ना चाहिए. इस प्रकार की संगति से, व्यक्ति धीरे-धीरे धन और स्त्रियों के भौतिक आकर्षण से मुक्त हो सकता है. धन और स्त्री भौतिक आसक्ति के मूल सिद्धांत हैं. इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन लोगों को सुझाव दिया है जो भगवान के राज्य में प्रवेश करने हेतु योग्य बनने के लिए वास्तव में भगवान के पास लौटने, धन और स्त्रियों का त्याग करने के बारे में गंभीर हैं. धन और स्त्रियों का भगवान की सेवा में पूरी तरह से उपयोग किया जा सकता है, और जो इस तरह से उनका उपयोग कर सकता है, वह भौतिक बंधन से मुक्त हो सकता है. सतं प्रसंगं मम वीर्य-संविदो भवन्ति हृत-कर्ण-रसयनः कथाः (भाग. 3.25.25). केवल भक्तों की संगति में ही व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व की महिमा का आस्वादन कर सकता है. किसी शुद्ध भक्त की थोड़ी ही संगति के माध्यम से व्यक्ति वापस परम भगवान तक जाने की अपनी यात्रा में सफल हो सकता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पंचम सर्ग, अध्याय 13- पाठ 21

आध्यात्मिक जीवन के अनुसार जितना हो सके स्वर्ण से बचना चाहिए.

परीक्षित महाराज ने कलियुग को उनका राज्य तुंरत छोड़ने और चार स्थानों पर रहने के लिए कहा: वेश्यालय, मदिरालय, वधशाला और जुआघर. यद्यपि, कलि-युग ने उनसे केवल ऐसा स्थान प्रदान करने का अनुरोध किया जहाँ ये चारों स्थान सम्मिलित हों, और महाराज परीक्षित ने उसको वह स्थान दिया जहाँ सोना रखा जाता है. सोने में पाप के चारों सिद्धांत समाहित होते हैं, और इसलिए, आध्यात्मिक जीवन के अनुसार, जितना हो सके स्वर्ण से बचना चाहिए. यदि सोना होगा, तो निश्चित ही अवैध मैथुन, मांसाहार, जुआ और मद्यपान भी होगा. सोने का रंग बड़ा चमकीला होता है, और एक भौतिकवादी व्यक्ति उसके पीले रंग से बहुत आकर्षित हो जाता है. यद्यपि, सोना एक प्रकार का मल ही होता है. रोगी यकृत के साथ कोई व्यक्ति पीले मल का त्याग करता है. इस मल का रंग भौतिकवादी व्यक्ति को आकर्षित करता है, वैसे ही जैसे वन की आग उसको आकर्षित करती है जिसे ऊष्मा की आवश्यकता होती है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 14- पाठ 7

वासना के कारण अवैध यौन संबंध सर्वाधिक प्रचलित है.

“भगवद्-गीता (7.11) में कहा गया है: धर्मविरुद्धौ भूतेषु कामो’स्मि भारतर्षभ. यौन संबंध की आज्ञा केवल संतान प्राप्ति के लिए है, भोग के लिए नहीं. व्यक्ति परिवार, समाज और संसार के लाभ के लिए एक उत्तम संतान की प्राप्ति हेतु मैथुन में रत हो सकता है. अन्यथा यौन संबंध धार्मिक जीवन के नियमों के विरुद्ध है. एक भौतिकवादी व्यक्ति विश्वास नहीं करता कि प्रकृति में सभी वस्तुओं का प्रबंधन किया जाता है, और वह नहीं जानता कि यदि व्यक्ति कुछ गलत करता है, तो विभिन्न देवता उसके साक्षी होते हैं. कोई व्यक्ति अवैध मैथुन का आनंद लेता है, और अपनी अंधी, वासना के कारण वह सोचता है कि कोई भी उसे नहीं देख सकता है, परंतु इस अवैध मैथुन को भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रतिनिधि पूर्णता से देख लेते हैं. इस प्रकार व्यक्ति को कई तरीकों से दंडित किया जाता है. वर्तमान में कलयुग में अवैध मैथुन के कारण कई गर्भधारण होते हैं, और कभी-कभी गर्भपात भी हो जाता है. भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रतिनिधि इन पापमयी गतिविधियों के साक्षी होते हैं, और ऐसी परिस्थिति का निर्माण करने वाले पुरुष और स्त्री को भविष्य में भौतिक प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा दंडित किया जाता है (दैवी ह्य एषा गुण-मयी मम माया दुरात्यय). अवैध मैथुन को कभी क्षमा नहीं किया जाता, और जो इसमें भाग लेते हैं उन्हें जीवनांतर तक दंडित किया जाता है. जैसा कि भगवद-गीता (16.20) में पुष्टि की गई है:

असुरिम् योनिम् आपन्न मुधा जन्मानि जन्मानि
मम अप्रप्यैव कौन्तेय ततो यन्त्य अधमम गतिम्

“पैशाचिक जीवन की प्रजाति में बारंबार जन्म लेने वाले व्यक्ति मुझ तक कभी नहीं पहुँच सकते. धीरे-धीरे वे सबसे घृणित प्रकार के अस्तित्व तक पतित हो जाते हैं.” भगवान का परम व्यक्तित्व किसी को भी प्रकृति के कठोर नियमों के विरुद्ध व्यवहार नहीं करने देता; इसलिए अवैध यौन संबंध का दंड जन्म-जन्मांतरों तक दिया जाता है. अवैध यौन संबंध से गर्भधारण होते हैं, और ये अनचाहे गर्भधारण गर्भपात की ओर ले जाते हैं. इसमें शामिल व्यक्ति इन पापों के भागी होते हैं, इतने अधिक कि उन्हें आगामी जीवन में भी इसी समान दंडित किया जाता है. अतः अगले जीवन में वे भी किसी माता के गर्भ में प्रवेश लेते हैं और उसी विधि से मार दिए जाते हैं. कृष्ण चेतना के पारलौकिक स्तर पर रहते हुए इन सभी चीज़ों से बचा जा सकता है. इस विधि से व्यक्ति पापमय गतिविधियाँ नहीं करता. अवैध यौन संबंध वासना के कारण सर्वाधिक प्रचलित है. जब व्यक्ति कामना की अवस्था से संबंध बनाता है, तब वह जन्म जन्मांतर के लिए कष्टों में फँस जाता है. ”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 09

कृष्ण कहते हैं कि उस भक्त से सब कुछ ले लेते हैं जिनका पक्ष वे विशेष रूप से लेते हैं.

भौतिक जीवन का मुख्य रोग शरीर धारण है. भौतिक कर्मों में बारंबार विकल होने के कारण, बद्ध आत्मा भौतिक भोग की निरर्थकता के बारे में अस्थायी रूप से विचार करती है, लेकिन दोबारा वही प्रयास करती है. भक्तों की संगति में, व्यक्ति भौतिक निरर्थकता के बारे में विश्वस्त तो हो जाता है, लेकिन वह अपनी सक्रियता नहीं छोड़ पाता, यद्यपि वह वापस परम भगवान तक, वापस घर लौटने के लिए बहुत उत्सुक होता है. इन परिस्थितियों में, भगवान का परम व्यक्तित्व, जो हर किसी के हृदय में स्थित है, दया स्वरूप, ऐसे भक्त की सभी भौतिक संपत्ति छीन लेते है. जैसा कि श्रीमद- भागवतम (10.88.8) में कहा गया है: यस्यहम् अनुग्रहनामि हरिष्ये तद्-धनम सनैः. भगवान कृष्ण कहते हैं कि वे जिस भक्त के पक्ष में वे विशेष रूप से होते हैं उसका भौतिक संपत्ति से अत्यधिक जुड़ाव होने पर वे उस भक्त से सब कुछ छीन लेते हैं. जब सब कुछ छीन लिया जाता है, तो भक्त समाज, मित्रता और प्रेम में असहाय और निराश अनुभव करता है. उसे लगता है कि उसका परिवार अब उसकी चिंता नहीं करता, और इसलिए वह पूर्ण रूप से परम भगवान के चरण कमलों में समर्पित हो जाता है. यह उस भक्त पर भगवान द्वारा किया गया एक विशेष उपकार है जो एक सशक्त शारीरिक धारणा के कारण संपूर्ण रूप से भगवान के समक्ष समर्पण नहीं कर सकता है. जैसा कि चैतन्य-चरितामृत (मध्य 22.39) में बताया गया है: अमी–विजना, ये मूर्खे ‘विषय’ केने दीबा. भगवान उस भक्त को समझते हैं जो भगवान की सेवा में संलग्न होने में संकोच करता है, वह नहीं जानता कि क्या उसे फिर से अपने भौतिक जीवन को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना चाहिए. बार-बार के प्रयासों और असफलताओं के बाद, वह पूरी तरह से भगवान के चरण कमलों के समक्ष समर्पण कर देता है. तब भगवान उसे दिशा देते हैं, और प्रसन्नता अर्जित करते हुए, वह सभी भौतिक जुड़ाव भूल जाता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 14- पाठ 10

कुछ भौतिक लाभ प्राप्त करने हेतु, बद्ध आत्मा छद्म सन्यासियों और योगियों के पास पहुँच जाती है.

“आध्यात्मिक अनुभव के अपने स्वयं की विधियों को रचने वाले कपटी हमेशा पाए जाते हैं. कुछ भौतिक लाभ की प्राप्ति के लिए, बद्ध आत्मा इन छद्म सन्यासियों और योगियों के पास सरलता से प्राप्त होने वाली कृपा के लिए जाता है, लेकिन उनसे उसे आध्यात्मिक या भौतिक, कोई भी वास्तविक लाभ नहीं मिलता. इस युग में बहुत से कपटी हैं जो कुछ करतब और जादू दिखाते हैं. वे अपने अनुयायियों को हतप्रभ करने के लिए सोना तक बना डालते हैं, औऱ उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. इस प्रकार की धोखा-धड़ी कलियुग में बहुत प्रमुख है. विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर सच्चे गुरु का वर्णन इस प्रकार करते हैं.

संसार-दावानल-इध-लोकत्रणाय कारुण्य-घनघनत्वम
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्नवश्य वंदे गुरुः श्री-चरणारविंदम

व्यक्ति को ऐसे गुरु के पास जाना चाहिए जो इस भौतिक संसार के दावानल को, अस्तित्व के संघर्ष बुझा सके. लोग धोखा खाना चाहते हैं और इसलिए वे योगियों और स्वामियों को पास जाते हैं जो चालबाज़ी करते हैं लेकिन चालबाज़ियाँ भौतिक जीवन के दुख को कम नहीं करतीं. यदि सोना बना लेने का सामर्थ्य भगवान बन जाने की योग्यता है, तो फिर क्यों न कृष्ण को स्वीकार करें, जो समस्त ब्रम्हांड के संचालक हैं, जिसमें असंख्य टनों भर सोना है? जैसा कि पहले बताया गया है, कि सोने के रंग की तुलना भूगर्भीय अग्नि या पीले मल से की गई है; इसलिए व्यक्ति को सोना पैदा करने वाले गुरुओं के प्रति आकर्षित नहीं होना चाहिए बल्कि जड़ भारत जैसे किसी भक्त के पास गंभीरता से पहुँचना चाहिए. जड़ भारत ने महाराज राहुगण को इतने अच्छी शिक्षा दी कि महाराज शारीरिक गर्भाधान से मुक्त हो गए थे. किसी छद्म गुरु को स्वीकार करके व्यक्ति सुखी नहीं बन सकता. ऐसे गुरु को स्वीकार करना चाहिए जैसा कि श्रीमद्-भागवतम् (11.3.21) में सुझाया गया है. तस्मद गुरुम् प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम: जीवन का सर्वोत्तम लाभ लेने के लिए व्यक्ति को प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए. ऐसे गुरु का वर्णन इस प्रकार किया गया है: शब्दे परे च निशांतम्. ऐसा गुरु सोना नहीं बनाता या शब्दजाल नहीं बुनता. उसे वैदिक ज्ञान के निष्कर्षों का भली भाँति अध्ययन होता है (वेदैस च सर्वैर अहम् एव वेद्यः). वह सारे भौतिक संदूषणों से मुक्त होता है और कृष्ण की सेवा में रत होता है. यदि व्यक्ति ऐसे किसी गुरु के चरण कमलों की धूलि प्राप्त करने में समर्थ हो, तो उसका जीवन सफल हो जाता है. अन्यथा वह इस जीवन और आगामी जीवन में असमंजस में ही बना रहता है.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 13

अति विकसित आध्यात्मवादी सुझाते हैं कि व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश नहीं लेना चाहिए.

तथाकथित पारिवारिक स्थिति की तुलना किसी मैदान के अंधे कुँए से की जाती है. यदि कोई अंधे कुँए में गिर जाए जो घास से ढँका हो, तो उसे बचाने के लिए चीख-पुकार के बावजूद उसका जीवन खो जाएगा. इसलिए अति विकसित आध्यात्मवादी सुझाते हैं कि व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश नहीं लेना चाहिए. तपस्या और जीवन भर शुद्ध ब्रम्हचारी रहने के लिए स्वयं को ब्रम्हचर्य-आश्रम में तैयार करना श्रेष्ठतर है ताकि व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में भौतिक जीवन के कांटों की चुभन का अनुभव न करे. गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति को मित्रों और संबंधियों के आमंत्रण स्वीकारने पड़ते हैं और आनुष्ठानिक समारोह करने पड़ते हैं. ऐसा करते हुए, व्यक्ति ऐसी बातों के पाश में पड़ जाता है, भले ही उसके पास ऐसा करने के पर्याप्त साधन न हों. गृहस्थ जीवन शैली को बनाए रखने के लिए, व्यक्ति को धनार्जन हेतु बहुत श्रम करना पड़ता है. इस प्रकार व्यक्ति भौतिक जीवन में फँस जाता है, और वह कांटों की चुभन का कष्ट भोगता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14- पाठ 18

अवैध यौन संबंध के कारण कई भक्त पतित हो जाते हैं.

भौतिक जीवन ऐसा होता है कि अवैध यौन संबंध, जुआ, नशा और माँस भक्षण में रत होने के कारण बद्ध आत्मा हमेशा खतरनाक स्थिति में रहती है. माँस भक्षण और नशा इंद्रियों को अधिकाधिक उत्तेजित कर देते हैं, और बद्ध आत्मा स्त्रियों के पाश में आ जाता है. स्त्रियों की संगति के लिए धन की आवश्यकता होती है, और धन अर्जित करने के लिए, व्यक्ति भिक्षा माँगता है, उधार लेता है या चोरी करता है. निस्संदेह, वह ऐसे घृणित कार्य करता है जिनके परिणाम से उसे इस जीवन और आगामी जीवन में कष्ट भोगने पड़ते हैं. अतः अवैध यौन क्रिया को उन लोगों द्वारा रोका जाना चाहिए जो आध्यात्मिक रूझान रखते हैं या जो आध्यात्मिक बोध के मार्ग पर हैं. कई भक्त अवैध यौन संबंध के कारण पतित हो जाते हैं. वे धन चुरा सकते हैं और यहाँ तक कि अत्यंत सम्मानित त्याग के पथ से भी पतित हो सकते हैं. फिर जीवन यापन के लिए वे बहुत तुच्छ सेवाएँ भी स्वीकार कर लेते हैं और भिखारी बन जाते हैं. इसलिए शास्त्रों में ऐसा कहा गया है, यन् मैथुनादि-ग्रहमेधि-सुखम् हि तुच्छम : भौतिकवाद मैथुन पर आधारित है, भले वैध या अवैध. मैथुन खतरों से भरा हुआ होता है, उन लोगों के लिए भी जो गृहस्थ जीवन के आदी हैं. भले ही व्यक्ति के पास मैथुन का लायसेंस हो या नहीं, उसमें बहुत गड़बड़ी है. बहु-दुख-भाक: जब कोई मैथुन में रत होता है, तो उसके बाद कई कष्ट आते हैं. भौतिक जीवन में व्यक्ति अधिकाधिक कष्ट उठाता है. एक कंजूस व्यक्ति अपनी संपत्ति का उचित उपयोग नहीं कर सकता, और उसी प्रकार एक भौतिकवादी व्यक्ति मानव रूप का दुरुपयोग करता है. इसका उपयोग आध्यात्मिक उद्धार करने के स्थान पर, वह शरीर का उपयोग इंद्रिय भोग के लिए करता है. इसलिए वह कृपण कहलाता है.

अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 22

लक्ष्मी को रखने की सर्वश्रेष्ठ विधि उन्हें नारायण के साथ रखना होता है.

“वैभव भाग्य के देवी, लक्ष्मी से आता है, और भाग्य की देवी नारायण, भगवान के परम व्यक्तित्व की संपत्ति हैं. भाग्य की देवी कहीं और नहीं ठहर सकती, बल्कि नारायण की शरण में रहती हैं; इसीलिए उनका एक अन्य नाम चंचला भी है. वे जब तक अपने पति नारायण के साथ न हों, शांत नहीं रह सकतीं. उदाहरण के लिए, लक्ष्मी को भौतिकवादी रावण ने हर लिया था. रावण ने सीता, भगवान राम की भाग्य की देवी, का अपहरण किया था. परिणामस्वरूप, रावण का समस्त परिवार, वैभव और राज्य नष्ट हो गया था, और सीता, भाग्य की देवी को उसके पंजों से छुड़ा लिया गया था और राम से उनका पुनर्मिलन हो गया था. अतः समस्त संपत्ति, वैभव और ऐश्वर्य कृष्ण के स्वामित्व में होते हैं. जैसा कि भगवद्-गीता (5.29) में कहा गया है :
भोक्तारम यज्ञ-तापसम सर्व-लोक-महेश्वरम
“भगवान का परम व्यक्तित्व सभी बलिदानों और तपस्याओं का सच्चा लाभार्थी है, और वह सभी ग्रह प्रणालियों का परम स्वामी है.” मूर्ख भौतिकवादी लोग धन इकट्ठा करते हैं और अन्य चोरों से चोरी करते हैं, लेकिन वे उसे नहीं रख सकते. किसी भी विधि से, उसका व्यय हो जाता है. एक व्यक्ति अन्य से छल करता है, और दूसरा व्यक्ति किसी अन्य को छल देता है; इसलिए लक्ष्मी को रखने की सबसे अच्छी विधि है उसे नारायण के साथ रखा जाए. यही कृष्ण चेतना आंदोलन की विशेषता है. हम नारायण (कृष्ण) के साथ लक्ष्मी (राधारानी) की पूजा करते हैं. हम विभिन्न स्रोतों से धन इकट्ठा करते हैं, लेकिन वह धन किसी और का नहीं, बल्कि राधा और कृष्ण (लक्ष्मी- नारायण) का है. यदि धन का उपयोग लक्ष्मी-नारायण की सेवा में किया जाता है, तो भक्त स्वतः ही एक एश्वर्यपूर्ण जीवन जीता है. हालाँकि, यदि कोई रावण की तरह लक्ष्मी का आनंद लेना चाहता है, तो वह प्रकृति के नियमों द्वारा परास्त कर दिया जाएगा, और उसके पास जो कुछ भी सामान होगा वह छीन लिया जाएगा. अंत में मृत्यु सब कुछ ले जाएगी, और मृत्यु कृष्ण की प्रतिनिधि होती है.”

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 24

जो तमो गुण के माध्यम से मानव रूप में आते हैं, वे अपने पिछले जीवन में वानर थे.

जलीय जीवों से प्राणी के स्तर तक विकास की प्रक्रिया को पूरा करके, एक जीव अंततः मानव रूप में पहुँच जाता है. भौतिक प्रकृति की तीन अवस्थाएँ हमेशा विकासवादी प्रक्रिया में कार्य कर रही हैं. जो लोग सत्त्वगुण की गुणवत्ता के माध्यम से मानव रूप में आते हैं, वे अपने अंतिम पशु अवतार में गाय थे. जो लोग रजो-गुण की गुणवत्ता के माध्यम से मानव रूप में आते हैं, वे अपने अंतिम पशु अवतार में शेर थे. और जो लोग तमो-गुण की गुणवत्ता के माध्यम से मानव रूप में आते हैं, वे अपने अंतिम पशु अवतार में वानर थे. इस युग में, जो लोग वानर प्रजाति के माध्यम से आते हैं उन्हें डार्विन जैसे आधुनिक मानवविज्ञानी वानरों के वंशज मानते हैं. हम यहाँ जानकारी प्राप्त करते हैं कि जो लोग केवल मैथुन में रुचि रखते हैं वे वास्तव में वानरों से बेहतर नहीं हैं. वानर यौन आनंद में बहुत विशेषज्ञ होते हैं, और कभी-कभी यौन ग्रंथियों को वानरों से लिया जाता है और मानव शरीर में लगाया जाता है ताकि मनुष्य बुढ़ापे में मैथुन का आनंद ले सकें. इस प्रकार से आधुनिक सभ्यता आगे बढ़ी है. भारत में कई वानरों को पकड़ा गया और उन्हें यूरोप भेजा गया ताकि उनकी सेक्स ग्रंथियां बूढ़े लोगों के लिए प्रतिस्थापन के रूप में कार्य कर सकें. जो लोग वास्तव में वानरों के वंशज हैं वे मैथुन के माध्यम से अपने कुलीन परिवारों का विस्तार करने में रुचि रखते हैं. वेदों में यौन सुधार और उच्च ग्रह प्रणालियों तक उत्थान के लिए कुछ अनुष्ठान विशेष रूप से आते हैं, जहाँ देवता मैथुन का आनंद ले रहे हैं. देवताओं का भी रूझान मैथुन के प्रति बहुत होता है क्योंकि यह भौतिक आनंद का मूल सिद्धांत है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 30

जीवन की पूर्णता मृत्यु के समय नारायण (कृष्ण) का स्मरण करने में होती है.

समस्त वेदों का उद्देश्य कर्म, ज्ञान, और योग–फलकारी गतिविधि, चिंतनशील ज्ञान और रहस्यवादी योग को समझना है. हम आध्यात्मिक बोध का कोई भी मार्ग स्वीकार करें, अंतिम लक्ष्य नारायण, भगवान के परम व्यक्तित्व ही हैं. जीव उनसे शाश्वत रूप से भक्ति सेवा के माध्यम से जुड़े हुए हैं. यद्यपि महाराजा भरत राजसी परिवार में प्रकट हुए, फिर भी उन्होंने अनदेखा किया और हिरण के रूप में जन्म लिया. हिरण के शरीर में रहते हुए भी, महाराजा भरत भगवान के परम व्यक्तित्व को नहीं भूले; इसलिए जब वे हिरण का शरीर त्याग रहे थे, तब उन्होंने उच्च स्वर में इस प्रार्थना का उच्चारण किया: “भगवान का सर्वोच्च व्यक्तित्व बलिदान का वैयक्तीकरण है. वह आनुष्ठानिक कर्मों का परिणाम देता है. वह धार्मिक प्रणालियों, गूढ़ योग का वैयक्तीकरण, समस्त ज्ञान का स्रोत, समस्त उत्पत्ति का नियंत्रक, और प्रत्येक जीव में स्थित परम आत्मा होता है. वह सुंदर और आकर्षक है. मैं उनके प्रति श्रद्धा अर्पित करते हुए और आशा करता हूँ कि मैं सदैव उनकी पारलौकिक प्रेममयी सेवा में सदैव के लिए रत होऊंगा.” यह कहते हुए महाराजा भरत ने अपना शरीर छोड़ दिया. क्योंकि वे अपने हिरण के शरीर में बहुत सतर्क थे, उन्होंने एक ब्राम्हण परिवार में जड़ भरत के रूप में जन्म लिया. इस जीवनकाल के दौरान, वे संपूर्ण रूप से कृष्ण चेतन बने रहे और उन्होंने कृष्ण चेतना के उपदेश का प्रत्यक्ष प्रचार किया, जिसकी शुरुआत महाराज राहुगण को निर्देश से की गई.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 45

भौतिक अस्तित्व का वन.

व्यापारी कभी-कभी कई दुर्लभ वस्तुओं का संचय करने और शहर में उन्हें अच्छे लाभ पर बेचने के लिए वन में जाते हैं, लेकिन वन का मार्ग हमेशा विपत्तियों से भरा होता है. जब शुद्ध आत्मा भौतिक संसार का आनंद लेने के लिए भगवान की सेवा छोड़ना चाहती है, तो कृष्ण निश्चित ही उसे भौतिक संसार में प्रवेश करने का अवसर देते हैं. जैसा कि प्रेमविवर्त में कहा गया है: कृष्ण-बहिरमुख हाना भोग वंच करे. यही कारण है कि शुद्ध आत्मा भौतिक संसार में पतित हो जाती है. भौतिक प्रकृति की तीन अवस्थाओं के प्रभाव में अपनी गतिविधियों के कारण, जीव विभिन्न प्रजातियों में विभिन्न स्थिति ग्रहण करते हैं. कभी-कभी वह स्वर्गीय ग्रहों में एक देवता होता है और कभी-कभी निम्न ग्रहों प्रणालियों में सबसे तुच्छ प्राणी होता है. इस संबंध में, श्रील नरोत्तम दास ठाकुर कहते हैं,नाना योनि सदा फिरे: जीव विभिन्न प्रजातियों से गुजरता है. कारादरी भक्षण करे: वह घृणित चीजों को खाने और उनका आनंद लेने के लिए बाध्य होता है. तारा जन्म अध-पतेय्या: इस प्रकार उसका पूरा जीवन नष्ट हो जाता है. सर्व-दयालु वैष्णव के संरक्षण के बिना, बद्ध आत्मा माया के चंगुल से बाहर नहीं निकल सकती. जैसा कि भगवद-गीता (मनः शस्थानिन्द्रियाणि प्रकृति-स्थानि कर्षति), में कहा गया है, जीव अपने मन और पाँच ज्ञान प्राप्त करने वाली इंद्रियों के साथ भौतिक जीवन शुरू करते हैं, और इनके साथ वह भौतिक संसार के भीतर अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है. इन इंद्रियों की तुलना वन के भीतर के बदमाशों और चोरों से की जाती है. वे एक मनुष्य के ज्ञान को छीन लेते हैं और उसे अज्ञानता के तंत्र में डाल देते हैं. इस प्रकार इंद्रियाँ दुष्टों और चोरों के जैसी हैं जो उसके आध्यात्मिक ज्ञान को लूट लेते हैं. इसके ऊपर, परिवार के सदस्य, पत्नी और बच्चे हैं, जो बिल्कुल वन के हिंसक पशुओं जैसे हैं. ऐसे हिंसक पशुओं की वृत्ति मनुष्च का मांस खाना होती है. जीव सियार और लोमड़ियों (पत्नी और बच्चों) द्वारा स्वयं पर आक्रमण होने देता है, और इस प्रकार उसका वास्तविक आध्यात्मिक जीवन समाप्त हो जाता है. भौतिक जीवन के वन में, हर कोई मच्छरों की तरह ईर्ष्या करता है, और चूहे और छछूंदर हमेशा व्यवधान पैदा करते हैं. इस भौतिक संसार में सभी कई अजीब स्थितियों में रखे गए हैं और वे ईर्ष्यालु लोगों और व्यवधान करने वाले प्राणियों से घिरे हुए हैं. परिणाम ये कि भौतिक संसार में जीव को कई जीवों द्वारा लूटा और कष्ट पहुँचाया जाता है. बहरहाल, इन गड़बड़ियों के बावजूद, वह अपने पारिवारिक जीवन को छोड़ना नहीं चाहता है, और वह भविष्य में प्रसन्न रहने के प्रयास में अपनी भ्रामक गतिविधियों को जारी रखता है. इस प्रकार वह कर्म के परिणामों में अधिक से अधिक उलझ जाता है, और इस प्रकार वह बलात् अपवित्र कार्य करने के लिए विवश हो जाता है. दिन के दौरान सूर्य और रात के दौरान चंद्रमा उसके साक्षी होते हैं. देवता भी साक्षी होते हैं, लेकिन बद्ध आत्मा सोचती है कि इंद्रिय तुष्टि के उसके प्रयासों को किसी के भी द्वारा नहीं देखा जा रहा है. कभी-कभी, जब उसे पकड़ लिया जाता है, वह अस्थायी रूप से सबकुछ त्याग देता है, लेकिन शरीर के प्रति उसकी महान आसक्ति के कारण, इससे पहले कि वह पूर्णता अर्जित कर सके, उसका त्याग छूट जाता है. इस भौतिक संसार में कई ईर्ष्यालु लोग हैं. कर-आरोपण करने वाली सरकार है, जिसकी तुलना उल्लू से की जाती है, और ऐसे अदृश्य झिंगूर हैं जो असहनीय ध्वनियाँ पैदा करते हैं. निश्चित ही बद्ध आत्मा को भौतिक प्रकृति के प्रतिनिधियों द्वारा बहुत कष्ट पहुँचाया जाता है, लेकिन अवांछनीय संगति के कारण उसकी बुद्धि खो जाती है. भौतिक अस्तित्व के व्यवधानों से मुक्ति पाने के प्रयास में, वह तथाकथित योगियों, साधुओं और अवतारों का शिकार बनता है, जो कुछ जादू दिखा सकते हैं, लेकिन जो भक्ति सेवा को नहीं समझते हैं. कभी-कभी बद्ध आत्मा समस्त धन से रहित हो जाता है, और परिणामस्वरूप वह अपने परिवार के सदस्यों के प्रति असहिष्णु हो जाता है. इस भौतिक संसार में लेश मात्र भी वास्तविक सुख नहीं है, जिसकी लालसा बद्ध आत्मा जन्म जन्मांतर तक करता रहता है. सरकारी अधिकारी मांसाहारी राक्षसों के समान हैं, जो सरकार के संचालन के लिए भारी कर लगाते हैं. इन भारी करों के कारण कड़ी मेहनत करने वाली बद्ध आत्मा बहुत दुखी हो जाती है. भ्रामक गतिविधियों का रास्ता कठिन पहाड़ों की ओर जाता है, और कभी-कभी बद्ध आत्मा इन पहाड़ों को पार करना चाहता है, लेकिन वह कभी सफल नहीं होता है, और परिणामस्वरूप वह अधिक से अधिक दुखी और निराश हो जाता है. भौतिक और आर्थिक रूप से लज्जित होने के कारण, बद्ध आत्मा अनावश्यक रूप से अपने परिवार को दंडित करता है. भौतिक अवस्था में चार मुख्य आवश्यकताएँ होती हैं, जिनमें से नींद की तुलना एक अजगर से की जाती है. सोते समय, तो बद्ध आत्मा अपने वास्तविक अस्तित्व को पूरी तरह से भूल जाता है, और नींद में वह भौतिक जीवन के कष्टों का अनुभव नहीं करता है. कभी-कभी, धन की आवश्यकता होने के कारण, बद्ध आत्मा चोरी और धोखाधड़ी करता है, हालाँकि वह स्पष्ट रूप से आध्यात्मिक उन्नति के लिए भक्तों के साथ जुड़ा हो सकता है. उसका एकमात्र व्यवसाय माया के चंगुल से निकलना है, लेकिन अनुचित मार्गदर्शन के कारण वह भौतिक व्यवहार में अधिक से अधिक उलझता जाता है. यह भौतिक संसार केवल लज्जाजनक है और सुख, संकट, लगाव, शत्रुता और ईर्ष्या के रूप में प्रस्तुत क्लेशों से निर्मित है. कुल मिलाकर यह बस क्लेश और दुख से भरा है. जब कोई व्यक्ति पत्नी और संभोग के प्रति आसक्ति के कारण अपनी बुद्धि खो देता है, तो उसकी संपूर्ण चेतना प्रदूषित हो जाती है. इस प्रकार वह केवल महिलाओं की संगति के बारे में विचार करता है. काल, जो सर्प के समान है, सभी का जीवन छीन लेता है, जिसमें भगवान ब्रह्मा और तुच्छ चींटी भी शामिल हैं. कभी-कभी बद्ध आत्मा स्वयं को अक्षम्य समय से बचाने का प्रयास करता है और इस प्रकार किसी छद्म उद्धारकर्ता की शरण ले लेता है. दुर्भाग्य से, छद्म उद्धारकर्ता स्वयं को भी नहीं बचा सकता है. फिर, वह दूसरों की रक्षा कैसे कर सकता है? छद्म उद्धारकों को योग्य ब्राह्मणों और वैदिक स्रोतों से प्राप्त ज्ञान की चिंता नहीं होती. उनका एकमात्र कार्य संभोग में लिप्त होना और विधवाओं के लिए भी यौन स्वतंत्रता का सुझाव देना है. इस प्रकार वे वैसे ही हैं जैसे वन में वानर होते हैं. इस प्रकार श्रील सुकदेव गोस्वामी महाराजा परीक्षित को भौतिक वन और उसके कठिन मार्ग के बारे में बताते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” पांचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – परिचय

इस युग के लोग भगवान के परम व्यक्तित्व के ऐश्वर्य को समझने में धीमे हैं.

भगवान के परम व्यक्तित्व की व्यवस्था के द्वारा, कुछ ग्रहों की नदियाँ अपने तटों पर सोना उत्पन्न करती हैं. इस पृथ्वी के विपन्न निवासियों को, उनके अधूरे ज्ञान के कारण, किसी तथाकथित भगवान द्वारा वशीभूत कर लिया जाता है, जो थोड़ी मात्रा में सोना उत्पन्न कर सकता है. यद्यपि, ऐसा समझा जाता है कि इस भौतिक संसार के उच्चतर ग्रह प्रणाली में, जम्बू नदी के तट का कीचड़ जम्बू रस के साथ मिलता है, धूप के साथ वायु में प्रतिक्रिया करता है, और स्वतः ही बहुत बड़ी मात्रा में सोना उत्पन्न करता है. इस प्रकार वहाँ पुरुष और नारी स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित रहते हैं, और वे बहुत सुंदर दिखते हैं. दुर्भाग्य से, पृथ्वी पर सोने की इतनी कमी है कि संसार की सरकारें इसे आरक्षित रखने और पत्र (कागज़) मुद्रा जारी करने का प्रयास करती हैं. क्योंकि वह मुद्रा सोने द्वारा समर्थित नहीं है, इसलिए जिस कागज़ को वे पैसे के रूप में वितरित करते हैं वह मूल्यहीन होता है, लेकिन फिर भी पृथ्वी पर लोगों को भौतिक उन्नति का बहुत गर्व है. आधुनिक समय में, युवतियों और स्त्रियों के पास सोने के स्थान पर प्लास्टिक से बने आभूषण होते हैं, और सोने के स्थान पर प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग किया जाता है, फिर भी लोगों को अपनी भौतिक संपत्ति पर बहुत गर्व है. इसलिए इस युग के लोगों का वर्णन मंदः सुमंद-मतयो मंद-भाग्य हि उपद्रुतः (भग.1.1.10) के रूप में किया जाता है. दूसरे शब्दों में, भगवान के परम व्यक्तित्व के एश्वर्य को समझने के लिए वे बहुत कमज़ोर और धीमे हैं. उनका वर्णन सुमंद-मत्यः के रूप में किया गया है क्योंकि उनकी अवधारणाएं इतनी अपंग हैं कि वे एक गप्पबाज़ को स्वीकार कर लेते हैं जो भगवान बनने के लिए थोड़ा सोना उत्पन्न कर लेता है. चूँकि उनके पास कोई सोना नहीं है, वे वास्तव में विपन्न हैं, और इसलिए उन्हें दुर्भाग्यशाली माना जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 16 – पाठ 20-21

ब्रम्हांड में गंगा का अवतरण

भगवान विष्णु, जो सभी बलिदानों के भोक्ता हैं, वे बाली महाराज के बलि क्षेत्र में वामन देव के रूप में प्रकट हुए. तब उन्होंने अपने बाएँ पैर को ब्रम्हांड के छोर तक बढ़ाया और अपने महा पाद के नख से उसके आवरण में एक छेद कर दिया. छेद के माध्यम से, हेतुक महासागर के जल को गंगा नदी के रूप में ब्रम्हांड में प्रवेश मिला. भगवान के चरण कमल को धोने के कारण, जो लाल रंग की धूलि से ढँके होते हैं, गंगा के जल को बहुत सुंदर गुलाबी रंग प्राप्त हुआ. प्रत्येक जीव गंगा के पारलौकिक जल को छूकर भौतिक संदूषण से अपने मन को तुरंत शुद्ध कर सकता है, तब भी उसका पानी हमेशा निर्मल रहता है. चूँकि ब्रम्हांड में उतरने से पहले गंगा सीधे भगवान के चरण कमलों का स्पर्श करती है, इसलिए उसे विष्णुपदी के रूप में जाना जाता है. बाद में उसे अन्य नाम जैसे जान्ह्वी और भागीरथी मिले. एक सहस्त्र सहस्राब्दियों के बाद, गंगा का जल इस ब्रह्मांड के सबसे ऊपरी ग्रह ध्रुवलोक पर और फिर ध्रुवलोक के नीचे स्थित सात ग्रहों तक पहुँच गया. फिर इसे असंख्य आकाशीय वायु यानों द्वारा चंद्रमा तक ले जाया जाता है, और फिर यह मेरु पर्वत की चोटी पर गिरती है, जिसे सुमेरु-पर्वत के रूप में जाना जाता है. इस प्रकार, गंगा का जल अंतत: निचले ग्रहों और हिमालय की चोटियों तक पहुँच जाता है, और वहाँ से यह हरिद्वार और पूरे भारत के मैदानी इलाकों में बहती है, जिससे पूरी भूमि शुद्ध होती है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 1 व 4

भौतिक जगत में आनंद के स्वर्गीय स्थान

“आनंद प्राप्ति के स्वर्गीय स्थानों को तीन समूहों में बाँटा गया है: आकाशीय स्वर्गीय ग्रह, भूमंडल (पृथ्वी की सतह) के स्वर्गीय स्थान, और बिल स्वर्गीय स्थान, जो निम्नतर क्षेत्रों में पाये जाते हैं. स्वर्गीय स्थानों (भौम – स्वर्ग-पद-नि) के इन तीन वर्गों में, पृथ्वी की सतह पर भारत वर्ष (पृथ्वी ग्रह) के अतिरिक्त आठ वर्ष होते हैं. भगवद-गीता (9.21) में कृष्ण कहते हैं, क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोक विसन्ति: जब स्वर्ग में रहने वाले व्यक्ति की पवित्र गतिविधियों के परिणाम समाप्त हो जाते हैं, तो वे इस धरती पर लौट आते हैं. इस प्रकार वे स्वर्गीय ग्रहों तक उन्नत हो जाते हैं, और फिर वे दोबारा पृथ्वी के ग्रहों पर पतित होते हैं. इस प्रक्रिया को ब्रम्हांड भ्रमण के रूप में जाना जाता है, ब्रम्हांड भर में विचरण करते हुए भटकना. जो बुद्धिमान होते हैं – दूसरे शब्दों में, जो लोग अपनी बुद्धि नहीं खोते हैं – वे स्वयं को आवागमन की इस प्रक्रिया में शामिल नहीं करते हैं. वे भगवान की भक्ति सेवा में लग जाते हैं ताकि अंततः वे इस ब्रह्मांड के आवरण को भेद सकें और आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश कर सकें. फिर वे वैकुंठलोक के रूप में ज्ञात किसी एक ग्रह में, या उससे भी उच्च स्थान कृष्णलोक (गोलोक वृंदावन) में स्थापित हो जाते हैं.

इन आठ वर्षों या भूभागों में, पृथ्वी लोक की गणना के अनुसार मानव दस सहस्त्र वर्षों तक जीवित रहते हैं. सभी निवासी लगभग देवताओं जैसे होते हैं. उनका शारीरिक बल दस हजार हाथियों का होता है. निस्संदेह, उनके शरीर वज्र के समान शक्तिशाली होते हैं. उनके जीवन की युवा अवधि बहुत ही मनभावन होती है, और पुरुष और महिला दोनों लंबे समय तक यौन सुख का आनंद लेते हैं. वर्षों तक इंद्रिय सुख के बाद–जब जीवन का शेष एक वर्ष बचा होता है–पत्नी गर्भ धारण करती है. इस प्रकार इन स्वर्गीय क्षेत्र के निवासियों के लिए सुख का मानक ठीक उन मानवों जैसा होता है जो त्रेता-युग की अवधि में रहते थे. चार युग होते हैं: सत्य-युग, त्रेता-युग, द्वापर-युग और कलि युग. पहले युग के दौरान, लोग बड़े पवित्र थे, प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक बोध और भगवान की प्रतीति के लिए गूढ़ योग प्रणाली का अभ्यास करता था. चूँकि हर कोई हमेशा समाधि में लीन रहता था, कोई भी व्यक्ति भौतिक इंद्रिय भोग में रुचि नहीं रखता था. त्रेता युग में, लोग क्लेश रहित इंद्रिय सुख का भोग करते थे. भौतिक कष्ट द्वापर युग में प्रारंभ हुए, लेकिन वे उतने कठोर नहीं थे. कठोर भौतिक दुखों की वास्तविक शुरुआत कलियुग के आगमन से हुई. इस श्लोक में एक और बिंदु है कि सभी आठों स्वर्गीय वर्षों में, यद्यपि पुरुष और महिलाएँ यौन सुख का आनंद लेते हैं, लेकिन गर्भावस्था नहीं होती. गर्भावस्था केवल निम्न-श्रेणी के जीवन में होती है। उदाहरण के लिए, कुत्ते और शूकर जैसे पशु एक वर्ष में दो बार गर्भवती हो जाते हैं, और हर बार वे कम से कम आधा दर्जन संतानों को जन्म देते हैं. यहाँ तक कि जीवन की निम्न प्रजातियाँ जैसे सर्प एक बार में सैकड़ों सँपोलों को जन्म देते हैं. यह श्लोक हमें बताता है कि हमसे उच्चतर जीवन स्तरों में, गर्भावस्था पूरे जीवनकाल में एक बार होती है. लोगों के पास अभी भी यौन जीवन है, लेकिन गर्भावस्था नहीं है. उन ग्रहों के निवासी कमल के फूलों से भरे हुए सरोवरों, फूलों, फलों, विभिन्न प्रकार के पक्षियों और गुनगुनाती मधुमक्खियों से भरे बगीचों के मनभावन वातावरण में जीवन का आनंद लेते हैं. उस वातावरण में वे अपनी अत्यंत सुंदर पत्नियों के साथ जीवन का आनंद लेते हैं, जो हमेशा कामातुर रहती हैं. तब भी वे सभी भगवान के परम व्यक्तित्व के भक्त हैं. इस पृथ्वी के निवासी भी ऐसे स्वर्गीय सुख की कामना करते हैं, लेकिन जब उन्हें किसी तरह कृत्रिम सुख जैसे काम सुख और नशा अर्जित हो जाता है, वे परम भगवान की सेवा को पूरी तरह से भूल जाते हैं. स्वर्गीय ग्रहों में, हालाँकि, निवासी उच्चतर इंद्रिय सुख का भोग करते हैं, वे कभी भी परम जीव के सेवक रूपी अपनी शाश्वत स्थिति को नहीं भूलते.

आध्यात्मिक संसार में, लोग अपने अति भक्तिपूर्ण व्यवहार के कारण, यौन जीवन के प्रति बहुत आकर्षित नहीं होते हैं. व्यावहारिक रूप से कहें तो, आध्यात्मिक दुनिया में यौन जीवन नहीं है, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है, तो भी गर्भावस्था नहीं होती है. पृथ्वी ग्रह पर, यद्यपि, मानव गर्भवान होते हैं, जबकि उनकी प्रवत्ति संतान होने से बचने की होती है. कलि के इस पापमय युग में, लोग गर्भ में शिशु को मारने की प्रक्रिया में लग गए. यह अभ्यास सर्वाधिक तुच्छ है; इससे उन लोगों की दयनीय भौतिक स्थिति अविरत ही बनी रह सकती है जो ऐसा करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 11, 12 और 13

केवल सबसे भाग्यशाली व्यक्ति ही गुरु के संपर्क में आते हैं.

समस्त ब्रम्हांड में भटक रहे सभी जीवों के बीच, जो सबसे भाग्यशाली होता है वही भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रतिनिधि के संपर्क में आता है और इस प्रकार भक्ति सेवा संपन्न करने का अवसर पाता है. वे जो गंभीरता पूर्वक कृष्ण की कृपा चाहते हैं किसी गुरु, कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के संपर्क में आते हैं. मानसिक अटकलों में रत रहने वाले मायावादी और अपने कर्मों के फल चाहने वाले कर्मी गुरु नहीं बन सकते. गुरु को कृष्ण का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होना चाहिए जो बिना किसी परिवर्तन के कृष्ण के निर्देश को बताता हो. अतः सबसे भाग्यशाली व्यक्ति ही गुरु के संपर्क में आते हैं. जैसा कि वैदिक साहित्य में पुष्टि की गई है, तद्-विज्ञानार्थम् स गुरुम् एवभिगच्छेत: आध्यात्मिक संसार के प्रकरणों को समझने के लिए व्यक्ति को गुरु की खोज करनी पड़ती है. श्रीमद्-भागवतम् इस बिंदु की पुष्टि भी करता है. तस्मद् गुरुम् प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम: जो व्यक्ति आध्यात्मिक संसार की गतिविधियों को समझने में बहुत रुचि रखता है उसे एक गुरु की ख़ोज करनी चाहिए – जो कृष्ण का प्रामाणिक प्रतिनिधि हो.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 11

स्वर्गीय ग्रहों में, यद्यपि पुरुष और स्त्रियाँ मैथुन का आनंद लेते हैं, लेकिन वहाँ कोई गर्भधारण नहीं होता.

चार युग होते हैं: सत्य युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलि युग. पहले युग सत्ययुग में, लोग बड़े पवित्र होते थे. हर कोई आध्यात्मिक ज्ञान और भगवान की अनुभूति के लिए गूढ़ योग पद्धति का अभ्यास करता था. क्योंकि सभी लोग सदैव समाधि में लीन रहते थे, कोई भी भौतिक इंद्रिय भोग में रुचि नहीं रखता था. त्रेता युग में, लोग इंद्रिय भोग का आनंद बिना किसी पीड़ा के लिया करते थे. भौतिक कष्ट द्वापर युग से प्रारंभ हुए, लेकिन वे बहुत घोर नहीं थे. घोर भौतिक दुखों का प्रारंभ कलि युग की शुरुआत से हुआ. इस श्लोक में एक और बात है कि इन आठों स्वर्गीय वर्षों में, यद्यपि पुरुष और स्त्रियाँ मैथुन का आनंद लेते हैं, लेकिन कोई गर्भधारण नहीं होता है. श्लोक हमें बताता है कि हमारे जीवन से उच्चतर वर्ग के जीवों में गर्भधारण पूरे जीवनकाल में एक बार होता है. उन ग्रहों के निवासी जीवन का आनंद ताज़े खिले कमल के फूलों से भरी झीलों और फलों, फूलों, विभिन्न प्रकार के पक्षियों और भंवरों से भरपूर वाटिकाओं के आनंदमयी वातावरण में लेते हैं. उस वातावरण में वे अपनी सुंदर पत्नियों के साथ जीवन का आनंद लेते हैं, जो सदैव कामातुर रहती हैं. तथापि वे सभी भगवान के परम व्यक्तित्व के भक्त होते हैं. इस पृथ्वी के निवासी भी वैसा ही स्वर्गीय आनंद चाहते हैं, लेकिन जब वे किसी प्रकार बनावटी सुख जैसे मैथुन और नशा अर्जित कर लेते हैं, तो वे परम भगवान की सेवा को पूरी तरह भूल जाते हैं. स्वर्गीय ग्रहों में हालाँकि, वहाँ के निवासी उच्चतर इंद्रिय सुख भोगते हैं, लेकिन वे परम भगवान के सेवक होने की अपनी स्थिति को कभी नहीं भूलते. तब भी लोगों का यौन जीवन होता है, लेकिन कोई गर्भाधान नहीं है. आध्यात्मिक संसार में, लोग उनके अति भक्तिपूर्ण व्यवहार के कारण यौन जीवन की ओर बहुत आकर्षित नहीं होते. व्यावहारिक रूप से, आध्यात्मिक संसार में कोई यौन जीवन नहीं होता, लेकिन यदि कभी-कभी ऐसा होता भी है, तो कोई भी गर्भधारण नहीं होता. गर्भधारण केवल निचले स्तर के जीवन में होता है. पृथ्वी ग्रह पर, मानव को गर्भधारण होता है, यद्यपि प्रवृत्ति संतान उत्पत्ति से बचने की होती है. कलि के इस पापमयी युग में, लोग शिशु को गर्भ में ही मारने तक की प्रक्रिया में लिप्त हो गए हैं. यह सबसे तुच्छ व्यवहार है; इससे इसे निष्पादित करने वाले लोगों की दयनीय भौतिक स्थितियों केवल और भी स्थायी बन सकती है.

अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 12 और 13

आध्यात्मिक संसार के अतिरिक्त, भगवान की पूजा हमेशा अर्च-विग्रह के रूप में की जाती है.

देवता परम भगवान की उपासना उनके विभिन्न अर्च-विग्रह रूपों में करते हैं क्योंकि आध्यात्मिक संसार के अतिरिक्त, भगवान के परम व्यक्तित्व की प्रत्यक्ष उपासना व्यक्तिगत रूप में नहीं की जा सकती. भौतिक जगत में, भगवान की पूज हमेशा मंदिर में अर्च-विग्रह के रूप में की जाती है. अर्च विग्रह और मूल व्यक्तित्व के बीच कोई अंतर नहीं होता, और इसलिए जो लोग, भले ही इस ग्रह पर, किसी संपूर्ण वैभवपूर्ण मंदिर में अर्च-विग्रह की पूजा में रत हैं, उसे निस्संदेह भगवान के परम व्यक्तित्व की सीधे संपर्क में समझा जाना चाहिए. जैसा कि शास्त्रों में निर्देश है, अर्च्ये विष्णौ शील-धीर गुरुषु नर-मतिः : “किसी को भी मंदिर में अर्च-विग्रह को मात्र शिला या धातु नहीं मानना चाहिए न ही उसे यह विचार करना चाहिए कि आध्यात्मिक गुरु कोई सामान्य मानव है.” इस शास्त्रीय आज्ञा का पालन व्यक्ति को कठोरता से करना चाहिए और भगवान के परम व्यक्तित्व, अर्च-विग्रह की उपासना बिना अभद्रता के करना चाहिए. आध्यात्मिक गुरु भगवान के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि होता है, और किसी को भी उसे एख साधारण मनुष्य नहीं मानना चाहिए. अर्च-विग्रह और आध्यात्मिक गुरु के प्रति अपराध से बचकर, व्यक्ति, आध्यात्मिक जीवन, या कृष्ण चेतना में उन्नति कर सकता है. पद्म पुराण में कहा गया है कि आध्यात्मिक संसार में भगवान व्यक्तिगत रूप से सभी दिशाओं में विस्तार लेते हैं और उन्हें वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूप में पूजा जाता है. उन्हीं भगवान का प्रतिनिधित्व इस संसार में अर्च-विग्रह करते हैं, जो उनकी रचना का केवल एक चौथाई अंश है. वासुदेव, शंकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी इस भौतिक संसार की चार दिशाओं में विद्यमान हैं. इस भौतिक संसार में जल से आच्छादित एक वैकुंठलोक है, और उस ग्रह पर वेदवती नामक एक स्थान है, जहाँ वासुदेव स्थित हैं. एक अन्य ग्रह जिसे विष्णुलोक के नाम से जाना जाता है, सत्यलोक के ऊपर स्थित है, और वहाँ संकर्षण उपस्थित हैं. उसी प्रकार, द्वारका-पुरी में, प्रद्युम्न प्रमुख हैं. श्वेतद्वीप के रूप में ज्ञात द्वीप पर, दूध का एक महासागर है, और उस महासागर के बीच में एक स्थान है जिसे ऐरावती-पुर कहा जाता है, जहाँ अनिरुद्ध अनंत पर लेटे हुए हैं. कुछ सत्वत-तंत्रों में नौ वर्षों और प्रत्येक में पूजित प्रमुख अर्च-विग्रह का वर्णन मिलता है: (1) वासुदेव (2) संकर्षण (3) प्रद्युम्न (4) अनिरुद्ध (5) नारायण (6) नृसिंह (7) हयग्रीव (8) महावराह, और (9) ब्रम्हा. “इस संबंध में वर्णित भगवान ब्रम्हा भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. जब भगवान ब्रम्हा के रूप में सशक्त करने योग्य कोई मनुष्य न हो, तो भगवान स्वयं ही भगवान ब्रम्हा का पद धारण करते हैं. तत्र ब्रम्हा तु विज्ञेयः पूर्वोक्त-विधाय हरिः. यहाँ वर्णित ब्रम्हा स्वयं हरि हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 14

भगवान शिव सदैव भगवान संकर्षण का ध्यान तल्लीनता में करते हैं.

परम भगवान का चौगुना विस्तार वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण से मिल कर होता है. चौथा विस्तार, संकर्षण, निश्चित ही पारौकिक है, लेकिन चूँकि भौतिक जगत में विनाश की उनकी गतिविधियाँ अज्ञानता की अवस्था में हैं, उन्हें तामसी, अज्ञानता की अवस्था में भगवान के रूप, से जाना जाता है. भगवान शिव जानते हैं कि शंकर्षण स्वयं उनके अस्तित्व का मूल कारण हैं, और इस प्रकार वह हमेशा तन्मयता में उनका ध्यान करते हैं. भगवान शिव भौतिक जगत के विनाश के प्रभारी हैं. भगवान ब्रह्मा भौतिक जगत का निर्माण करते हैं, भगवान विष्णु इसका पालन करते हैं, और भगवान शिव इसका विनाश करते हैं. चूँकि विनाश आज्ञानता की अवस्था में होता है, भगवान शिव और उनके पूज्यनीय देवता, संकर्षण को तकनीकी रूप से तामसी पुकारा जाता है. भगवान तमो-गुण के अवतार हैं. चूँकि भगवान शिव और संकर्षण दोनों सदैव प्रबुद्ध और पारलौकिक अवस्था में होते हैं, उन्हें भौतिक प्रकृति की अवस्थाओं– भलाई, कामना और अज्ञानता– से कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन चूँकि उनकी गतिविधियाँ उन्हें अज्ञानता की अवस्था के साथ सम्मिलित करती हैं, उन्हें कभी-कभी तामसी कहा जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 16

एक वैष्णव के गुण.

कृष्णदास कविराज ने वैष्णव के निम्न छब्बीस सुगुण बताए हैं: (1) वह सभी के प्रति दयालु होता है. (2) वह किसी को भी अपना शत्रु नहीं बनाता. (3) वह सच्चा होता है. (4) वह सबके प्रति समान होता है. (5) कोई भी उसमें कोई दुर्गुण नहीं खोज सकता. (6) वह सदाशय होता है. (7) वह मृदुल होता है. (8) वह हमेशा निर्मल होता है. (9) वह संपत्ति रहित होता है. (10) वह सबके लाभ के लिए कार्य करता है. (11) वह बहुत शांत होता है. (12) वह सदैव कृष्ण के प्रति समर्पित होता है. (13) उसकी कोई सांसारिक इच्छा नहीं होती. (14) वह बहुत विनम्र होता है. (15) वह स्थिर होता है. (16) वह अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है. (17) वह कभी आवश्यकता से अधिक नहीं खाता. (18) वह भगवान की मायावी ऊर्जा से प्रभावित नहीं होता. (19) वह सभी का आदर करता है. (20) वह अपने लिए कोई सम्मान नहीं चाहता. (21) वह बहुत गंभीर होता है. (22) वह दयालु होता है. (23) वह मित्रवत होता है. (24) वह काव्यात्मक होता है. (25) वह विशेषज्ञ होता है. (26) वह मौन रहता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18- पाठ 12

सभी जीवों के वास्तविक पति कृष्ण ही हैं.

“लक्ष्मीदेवी (रमा) उन स्त्रियों के प्रति अनुकम्पा दिखाती हैं जो अच्छे पति के लिए आशीर्वाद पाने के लिए भगवान की उपासना करती हैं. यद्यपि ऐसी स्त्रियाँ संतान, संपत्ति, दीर्घायु और जो भी उन्हें प्रिय है, उनके साथ प्रसन्न रहने की कामना करती हैं, वे संभवतः ऐसा नहीं कर पातीं. भौतिक संसार में, एक तथाकथित पति भगवान के परम व्यक्तित्व के नियंत्रण पर निर्भर होता है. ऐसी स्त्री के अनेक उदाहरण हैं, जिसका पति, स्वयं अपने परिणामी कर्मों के परिणाम पर निर्भर होते हुए, अपनी पत्नी, संतानों, उसकी संपत्ति या उसके जीवन की अवधि का परिपालन नहीं कर सकता. इसलिए, वास्तविक रूप से सभी स्त्रियों के एकमात्र परम पति कृष्ण ही हैं. चूँकि गोपियाँ मुक्त आत्माएँ थीं, उन्होंने इस तथ्य को समझ लिया. इसलिए उन्होंने अपने भौतिक पतियों का परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक पति के रूप में कृष्ण को स्वीकार लिया. कृष्ण न केवल गोपियों के, बल्कि प्रत्येक जीव के वास्तविक पति हैं. सबको संपूर्णता में यह समझ लेना चाहिए कि कृष्ण ही सभी जीवों के वास्तविक पति हैं, जिन्हें भगवद-गीता में प्राकृत (महिला) के रूप में वर्णित किया गया है, पुरुष के रूप में नहीं. भगवद-गीता (10.12) में, केवल कृष्ण को पुरुष के रूप में संबोधित किया गया है:

परम ब्रम्ह परम धाम पवित्रम परमम भवन
पुरुषम शाश्वतम दिव्यम आदि-देवम अजम विभुम

“आप ही परम ब्राम्हण, सर्वोच्च, परम धाम और शुद्धिकर्ता, परम सत्य और शाश्वत दिव्य व्यक्ति हैं. आप प्राथमिक भगवान, पारललौकिक और मूल हैं, और आप अजन्मे और सर्वव्यापी सौंदर्य हैं.” कृष्ण ही वास्तविक पुरुष हैं, और जीव प्रकृति हैं. इस प्रकार कृष्ण भोक्ता हैं, और सभी जीव का उद्देश्य उनके द्वारा भोगा जाना है. इस लिए वह स्त्री जो अपनी सुरक्षा के लिए एक भौतिक पति खोजती है, या ऐसा कोई भी पुरुष जो उस स्त्री का पति बनना चाहे, वह भ्रम के वशीभूत है. पति बनने का अर्थ है धन और सुरक्षा का सम्मान करते हुए पत्नी और संतानों का भली प्रकार से पालन-पोषण करना. यद्यपि एक सांसारिक पति, संभवतः ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि वह अपने कर्म पर निर्भर होता है. कर्मणा-दैव-नेत्रेणा: उसकी परिस्थितियाँ उसके अतीत के परिणामी कर्मों से निर्धारित होती हैं. इसलिए अगर कोई गर्व से यह सोचता है कि वह अपनी पत्नी की रक्षा कर सकता है, तो वह भ्रम में है. कृष्ण एकमात्र पति हैं, और इसलिए इस भौतिक संसार में पति और पत्नी के बीच का संबंध पूर्ण नहीं हो सकता. चूँकि हम विवाह के इच्छुक हैं, कृष्ण ने दया करके तथाकथित पति को पत्नी को पास रखने की और पत्नी को एक तथाकथित पति के साथ रहने की अनुमति आपसी संतुष्टि के लिए दी. इसोपनिषद में कहा गया है, तेन त्यक्तेन भुंजिथा: भगवान सभी को अपना भाग प्रदान करते हैं. यद्यपि, वास्तव में, प्रत्येक जीव प्रकृति या स्त्री है, और कृष्ण एकमात्र पति हैं.

एकले ईश्वर कृष्ण, आरे सब भृत्य यारे याइचे नचाया, से ताइचे करे नृत्य (Cc. Adi 5.142)

कृष्ण सभी के वास्तविक स्वामी या पति हैं, और अन्य सभी जीव, तथाकथित पतियों, या पत्नियों का रूप लेकर, उनकी इच्छानुसार नृत्य कर रहे हैं. एक तथाकथित पति उसकी पत्नी के साथ इंद्रिय तुष्टि के लिए मिलन कर सकता है, लेकिन उसकी इंद्रियाँ ह्रषिकेश, इंद्रियों के स्वामी द्वारा संचालित होती है, इशलिए वे ही वास्तविक पति हैं.”

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 19

लक्ष्मीदेवी किसी भौतिकवादी व्यक्ति को अपना आशीर्वाद नहीं देतीं.

“यद्यपि कभी-कभी एक भौतिकवादी किसी अन्य भौतिकवादी की दृष्टि में बहुत अधिक ऐश्वर्यवान हो जाता है, इस प्रकार का ऐश्वर्य उसे दुर्गादेवी, भाग्य की देवी की भौतिक विस्तार द्वारा दिया जाता है, स्वयं लक्ष्मीदेवी द्वारा नहीं. भौतिक धन की इच्छा रखने वाले निम्नलिखित मंत्र के साथ दुर्गादेवी की पूजा करते हैं: धनम् देहि रूपं देहि रूप-पति-भजम् देहि “”हे पूज्य माँ दुर्गादेवी, कृपया मुझे धन, बल, प्रसिद्धि, अच्छी पत्नी इत्यादि प्रदान करें.”” देवी दुर्गा को प्रसन्न करने से व्यक्ति इस तरह के लाभ प्राप्त कर सकता है, लेकिन चूँकि वे अस्थायी होते हैं, उनका परिणाम केवल माया-सुख (भ्रामक सुख) होता है. दूसरी ओर, प्रह्लाद और ध्रुव महाराज जैसे भक्तों ने असाधारण वैभव प्राप्त किया, लेकिन वह ऐश्वर्य माया-सुख नहीं था. जब कोई भक्त अपूर्व ऐश्वर्य प्राप्त करता है, तो वे भाग्य की देवी के प्रत्यक्ष उपहार होते हैं, जो नारायण के हृदय में रहती हैं.

देवी दुर्गा की उपासना करने से वयक्ति को जो ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं उन्हें अस्थायी माना जाता है. जैसाकि भगवद-गीता (7.23) में वर्णित है, अंतवत तु फलम तेषाम् तद् भवति अल्प-मेधषम: अल्पबुद्धि के लोग ही अस्थायी सुख की कामना करते हैं. हम वास्तविकता में देख चुके हैं कि भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का एक शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरु की संपत्ति का सुख भोगना चाहता था, और उसके प्रति दयालु होने के नाते, आध्यात्मिक गुरु ने अस्थायी संपत्ति उसे दे दी, किंतु समस्त संसार में चैतन्य महाप्रभु के पंथ का प्रचार करने की शक्ति नहीं दी. प्रवचन करने की शक्ति की दया ऐसे भक्त को दी जाती है जो अपने आध्यात्मिक गुरु से कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहता बल्कि केवल उनकी सेवा करना चाहता है. इस बात को दैत्य रावण की कथा वर्णित करती है. यद्यपि रावण ने भाग्य की देवी सीतादेवी का अपहरण भगवान राम की रखवाली से करने का प्रयास किया, वह संभवतः ऐसा कर नहीं पाया. जिन सीतादेवी को वह बलपूर्वक अपने साथ ले गया वे वास्तव में सीतादेवी नहीं थीं, बल्कि माया, या दुर्गादेवी का एक विस्तार थीं. परिणामस्वरूप, वास्तविक भाग्य की देवी का आशीर्वाद पाने के स्थान पर, रावण और उसका समस्त परिवार दुर्गादेवी की शक्ति से नष्ट हो गया. (सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साधना-शक्ति एक).”

स्रोत-अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 22

ऐसा क्यों है कि लक्ष्मी, इतनी पवित्र पत्नी होकर भी, कृष्ण से संबंध चाहती हैं?

“भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु चैतन्य-चरितामृत (मध्य 9.111-131) में व्यंकट भट्ट के साथ इस बिंदु पर चर्चा करते हैं: “भगवान ने व्यंकट भट्ट से पूछा,” आपकी पूजनीय भाग्य की देवी, लक्ष्मी, हमेशा नारायण की छाती पर रहती हैं, और वे निश्चित रूप से सृष्टि की सबसे पवित्र महिला हैं. यद्यपि, मेरे भगवान भगवान श्रीकृष्ण हैं, जो एक ग्वाला हैं और गायों के पालन में रत हैं. ऐसा क्यों है कि लक्ष्मी, इतनी पवित्र पत्नी होने के नाते भी, मेरे भगवान के साथ जुड़ना चाहती हैं? केवल कृष्ण के साथ जुड़ने के लिए, लक्ष्मी ने वैकुंठ में सभी पारलौकिक सुखों को त्याग दिया और लंबे समय तक प्रतिज्ञा और नियामक सिद्धांतों को स्वीकार किया और असीमित तपस्या की.’
“व्यंकट भट्ट ने उत्तर दिया, ‘भगवान कृष्ण और भगवान नारायण समान हैं और एक ही हैं, लेकिन कृष्ण की लीलाएँ उनके क्रीड़ागत स्वभाव के कारण अधिक आनंद करने योग्य हैं. वे कृष्ण की शक्तियों के लिए बहुत आनंददायी हैं. चूँकि कृष्ण और नारायण दोनों एक ही व्यक्तित्व हैं, इसलिए लक्ष्मी के कृष्ण से जुड़ाव ने उनके पवित्रता के व्रत को नहीं तोड़ा. बल्कि, यह बहुत आनंददायक था कि भाग्य की देवी भगवान कृष्ण की संगति चाहती थीं. भाग्य की देवी का मानना था कि कृष्ण के साथ उनके संबंध से उनकी पवित्रता नष्ट नहीं होगी. बल्कि, कृष्ण के साथ जुड़कर वह रास नृत्य का आनंद ले सकती थीं. यदि वे स्वयं का कृष्ण के साथ आनंद लेना चाहती थीं तो इसमें क्या दोष है? तुम इस बारे में प्रहसन क्यों कर रहे हो.’ “भगवान चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया, मैं जानता हूँ कि भाग्य की देवी में कोई दोष नहीं है, लेकिन फिर भी वे रास नृत्य में प्रवेश नहीं ले सकती थीं. हम प्रकट ग्रंथों से यह सुनते हैं. वैदिक ज्ञान के विद्वानों ने भगवान रामचंद्र से दंडकारण्य में भेंट की थी, और उनके तप और साधना द्वारा उन्हें रास नृत्य में प्रवेश लेने की अनुमति मिली. किंतु क्या तुम मुझे बता सकते हो कि भाग्य की देवी, लक्ष्मी को यह अवसर क्यों नहीं मिला?”

“इसके उत्तर में व्यंकट भट्ट ने कहा, मैं घटना के रहस्य में प्रवेश नहीं कर सकता. मैं एक सामान्य प्राणी हूँ. मेरी बुद्धि सीमित है, और मैं हमेशा व्यवधान में रहता हूँ. मैं परम भगवान की लीलाओं को कैसे समझ सकता हूँ? वे लाखों सागरों से भी गहरी हैं.”

“भगवान चैतन्य ने उत्तर दिया, ‘भगवान कृष्ण की एक विशिष्ट विशेषता है. वे अपने व्यक्तिगत संयुग्मित प्रेम की मधुरता से हर किसी का हृदय मोह लेते हैं. व्रजलोक या गोलोक वृंदावन के रूप में ज्ञात ग्रह के निवासियों के पदचिन्हों पर चलकर, श्री कृष्ण के चरण कमलों का आश्रय प्राप्त किया जा सकता है. यद्यपि, उस ग्रह के निवासियों को यह नहीं पता है कि भगवान कृष्ण भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. इस बात से अनजान कि कृष्ण परम भगवान हैं, वृंदावन के निवासी जैसे नंद महाराजा, यशोदादेवी और गोपियाँ कृष्ण को अपना प्रिय पुत्र या प्रेमी मानते हैं. माता यशोदा उन्हें अपना पुत्र मानती हैं और कभी-कभी उन्हें एक ओखली से बांध देती हैं. कृष्ण के ग्वाले साथियों को लगता है कि वह एक साधारण बालक हैं और उनके कंधों पर चढ़ जाते हैं. गोलोक वृंदावन में कृष्ण को प्रेम करने के अतिरिक्त किसी की कोई इच्छा नहीं है. निष्कर्ष यह है कि कोई भी कृष्ण की संगति नहीं कर सकता है जब तक कि वह व्रजभूमि के निवासियों से संपूर्ण पक्ष प्राप्त नहीं कर लेता. इसलिए यदि कोई प्रत्यक्ष कृष्ण द्वारा मुक्ति चाहता है, तो उसे वृंदावन के निवासियों की सेवा में ले जाना चाहिए, जो भगवान के पवित्र भक्त हैं.”

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 23

भाग्य की देवी (लक्ष्मी) को गोपियों के समान उपकार नहीं मिल सकता था।

“कई स्थानों पर, शास्त्र भगवान के परम व्यक्तित्व का वर्णन ऐसे करते हैं कि वे अपने भक्त के प्रति उनकी पत्नी से अधिक अवलंबित होते हैं, जो सदैव उनके वक्ष पर होती है. श्रीमद-भागवतम (11.14.15) में कहा गया है:

न तथा मे प्रियात्मा आत्मा-योनिर् न शंकरः
न च संकर्षणो न श्रीर नैवात्म च यथा भवन

यहाँ कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि उनके भक्त उन्हें भगवान ब्रम्ह, भगवान शिव, भगवान संकर्षण (जगत रचना के मूल कारण), भाग्य की देवी या स्वंय से भी अधिक प्रिय होते हैं. श्रीमद-भागवतम (10.9.20) में एक और स्थान पर शुकदेव गोस्वामी कहते हैं,

नेमम विरिंचो न भावो न शरीर अपि अंग संश्रय
प्रसादम लेभिरे गोपी यत् तत प्रप विमुक्तिदत

परम भगवान, जो किसी को भी मुक्ति दे सकते हैं, उन्होंने भगवान ब्रम्हा, भगवान शिव यहाँ तक कि भाग्य की देवी, जो स्वयं उनकी पत्नी हैं और जिनका संबंध उनके शरीर से है की अपेक्षा गोपियों के प्रति अधिक कृपा दिखाई. इसी प्रकार श्रीमद-भागवतम् (10.47.60) यह भी कहता है:

नयम् श्रियोंग उ नितांत-रतेः प्रसादः स्वर-योशिताम् नलिन-गंध-रुचम कुतो न्यः
रासोत्सवे स्य भुज-दंड-गृहिता-कंठलब्धशीषम् य उदगद व्रज-सुंदरीनाम्

“गोपियों को भगवान से ऐसे वरदान मिले हैं जो न लक्ष्मीदेवी को ना ही स्वर्गीय ग्रहों की सबसे सुंदर नृत्यांगनाओं को मिल सके हैं. रास नृत्य में, भगवान ने अपनी बाहें सबसे भाग्यशाली गोपियों के कंधों पर रखकर और प्रत्येक के साथ नृत्य करके उनके प्रति अपनी कृपा प्रदर्शित की है. गोपियों की तुलना किसी के भी साथ नहीं की जा सकती, जिन्हें भगवान की अहेतुक कृपा प्राप्त हुई है.” चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि गोपियों के पदचिन्हों पर चले बिना कोई भी भगवान के परम व्यक्तित्व की वास्तविक कृपा प्राप्त नहीं कर सकता है. यहां तक कि भाग्य की देवी भी गोपियों के समान अनुग्रह प्राप्त नहीं कर सकीं, हालांकि उन्होंने कई वर्षों तक कड़ी तपस्या और तप किए.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 23

भगवान रामचंद्र, भगवान कृष्ण के समान ही हैं.

“भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण, विभिन्न विस्तारों में प्रकट होते हैं, जैसा कि ब्रम्हसंहिता (5.39) में कहा गया है:

रामादि-मूर्तिषु काल-नियमेन तिष्ठान नानावतारम आकारोद् भुवनेषु किंतु
कृष्णः स्वयं समाभवत परमः पुमन यो गोविंदम आदि-पुरुषम तम अहम् भजामि

“मैं भगवान के परम व्यक्तित्व गोविंद की उपासना करता हूँ, जो सदैव राम, नृसिंह जैसे विभिन्न और कई उप अवतारों में भी स्थित होते हैं, किंतु कृष्ण के रूप में ज्ञात भगवान का मूल परम व्यक्तित्व कौन है और जो व्यक्तिगत रूप से भी अवतार लेते हैं.” कृष्ण ने, जो विष्णु-तत्व हैं, स्वयं को कई विष्णु रूपों में विस्तारित किया है, जिनमें से भगवान रामचंद्र एक हैं. हम जानते हैं कि विष्णुत्त्व का वाहन पारलौकिक पक्षी गरुड़ होता है और जिनके चार हाथों में विभिन्न अस्त्र होते हैं. इसलिए हमें संदेह हो सकता है कि भगवान रामचंद्र समान वर्ग में हैं या नहीं, क्योंकि उनके वाहन हनुमान हैं, गरुड़ नहीं, और उनके चार हाथ भी नहीं थे, न ही शंख, चक्र गदा और पद्म थे. अतः यह श्लोक स्पष्ट करता है कि रामचंद्र कृष्ण के समान (रामादी-मूर्तिषु काल) ही श्रेष्ठ हैं. यद्यपि कृष्ण भगवान के मूल परम व्यक्तित्व हैं, रामचंद्र उनसे भिन्न नहीं हैं. रामचंद्र भौतिक प्रकृति के गुणों से अप्रभावित रहते हैं, और इसलिए वे प्रशान्त हैं, उन गुणों से वे कभी विचलित नहीं होते.”

अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 4

भारत-वर्ष (भारत) के निवासी धीरे-धीरे पतित होते जा रहे हैं

मानव जीवन के अभियान की वास्तविक सफलता या पूर्ति भारत, भारत-वर्ष में अर्जित की जा सकती है, क्योंकि भारत-वर्ष में जीवन का उद्देश्य और सफलता प्राप्त करने की विधि प्रत्यक्ष हैं. लोगों को भारत-वर्ष द्वारा वहन किये जा रहे अवसर का लाभ लेना चाहिए, और ऐसा उनके लिए विशेषकर है जो वर्णाश्रम धर्म का पालन कर रहे हैं. यदि हम चार सामाजिक वर्ग (ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), और आध्यात्मिक जीवन की चार अवस्थाओं (ब्रम्हचारी, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यास) को स्वीकार करके वर्णाश्रम धर्म को नहीं अपनाते हैं, तो जीवन में सफलता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. दुर्भाग्य से, कलियुग के प्रभाव से, अब सब कुछ खो रहा है. भारत-वर्ष के निवासी धीरे-धीरे पतित म्लेच्छ और यवन बनते जा रहे हैं. फिर वे दूसरों को कैसे सिखाएंगे? इसलिए, इस कृष्ण चेतना आंदोलन को न केवल भारतवर्ष के निवासियों अपितु संसार के सभी लोगों के लिए शुरू किया गया है, जैसाकि श्री चैतन्य महाप्रभु ने घोषणा की है. अब भी समय है, और यदि भारत-वर्ष के निवासी कृष्ण चेतना के इस आंदोलन को गंभीरता से अपनाते हैं, तो नारकीय स्थिति में गिरने से समस्त संसार की रक्षा होगी. कृष्ण चेतना आंदोलन पंचरात्रिका-विधि और भागवत-विधि की प्रक्रियाओं का पालन समान रूप से करता है, ताकि लोग आंदोलन का लाभ ले सकें और अपना जीवन सफल बना सकें.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), संस्करण, “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 10

भारत-वर्ष (भारत) विशेष भूमि है

“भारत, भारत-वर्ष में आध्यात्मिक सेवा का निष्पादन करने के लिए कई सुविधाएँ हैं. भारत-वर्ष में, सभी आचार्यों ने अपने अनुभव का योगदान किया है, और श्री चैतन्य महाप्रभु व्यक्तिगत रूप से भारत-वर्ष के लोगों को यह शिक्षा देने के लिए अवतरित हुए कि आध्यात्मिक जीवन में प्रगति कैसे की जाए और भगवान की आध्यात्मिक सेवा में कैसे स्थिर हुआ जाए. सभी दृष्टिकोणों से, भारत-वर्ष विशेष स्थान है जहाँ व्यक्ति बहुत सरलता से आध्यात्मिक सेवा की प्रक्रिया को समझ सकता और अपने जीवन को सफल बनाने के लिए उसे अपना सकता है. यदि व्यक्ति आध्यात्मिक सेवा में अपना जीवन सफल बना लेता है और फिर संसार के अन्य भागों में आध्यात्मिक सेवा का प्रवचन करता है, तो सारे संसार के लोग वास्तव में लाभान्वित होंगे.

भारत-भूमिते हैल मनुष्य-जन्म सार्थक करि कर पर-उपकार

“जिसने मनुष्य के रूप में भारत भूमि (भारत-वर्ष) में जन्म लिया है उसे अपना जीवन सफल बनाना चाहिए और अन्य सभी लोगों के लाभ के लिए कार्य करना चाहिए.”

भारत-वर्ष की भूमि इतनी महान है कि वहाँ जन्म लेकर व्यक्ति न केवल स्वर्गीय ग्रहों को अर्जित कर सकता है बल्कि सीधे वापस घर, वापस परम भगवान तक जा सकता है. जैसा कि कृष्ण भगवत-गीता (9.25) में कहते हैं:

यन्ति देव-व्रत देवान पितृन्यन्ति पितृ-व्रतः
भूतानि यन्ति भूतेज्य यन्ति मद्-यज्ञो’पि मम

“जो देवताओं की पूजा करते हैं वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे; जो भूत और पिशाचों की पूजा करते हैं वे वैसे ही प्राणियों के बीच जन्म लेंगे; जो लोग पूर्वजों की पूजा करते हैं पूर्वजों के पास पहुँचते हैं; और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ रहेंगे.” भारत-वर्ष में लोग सामान्यतः वैदिक सिद्धांतों का पालन करते हैं और फलस्वरूप महान बलिदान देते हैं जिसके द्वारा वे स्वर्गीय ग्रहों तक उन्नत हो सकते हैं.

हालाँकि, ऐसी महान उपलब्धियों का क्या उपयोग? जैसा कि भगवद्-गीता (9:21) में कहा गया है, क्षीणे पुण्ये मर्त्य-लोकाम् विसंति: व्यक्ति के बलिदानों के परिणामों के बाद, दान और पवित्र गतिविधियाँ समाप्त हो जाती हैं, व्यक्ति को निम्न ग्रह मंडल पर लौटना पड़ता है और फिर से जन्म और मृत्यु के कष्ट भोगने पड़ते हैं.
हालाँकि, वह जो कृष्ण चैतन्य हो जाता है कृष्ण के पास वापस लौट सकता है (यन्ति-मद्-यजिनो ‘पि मम).

इसलिए, देवता भी उच्चतर ग्रह मंडलों तक उत्थित हो जाने का पछतावा करते हैं. स्वर्गीय ग्रहों के निवासियों को पछतावा होता है कि वे भारत-वर्ष में जन्म लेने का पूरा लाभ नहीं ले सके. उसके स्थान पर, वे इंद्रिय-सुख के उच्चतर मानक के बंधक बन गए, और इसलिए वे मृत्यु के समय नारायण के चरण कमलों को भूल गए. निष्कर्ष यह कि वह जिसने भारत-वर्ष की भूमि पर जन्म लिया है उसे भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा स्वयं दिए गए निर्देशों का पालन करना ही चाहिए. यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद् धम परमम् मम. व्यक्ति को सदैव के लिए, भगवान के परम व्यक्तित्व की संगति में पूर्ण आनंदमय ज्ञान में रहने के लिए, वापस घर, परम भगवान तक, वैकुंठ ग्रहों– या सर्वोच्च वैकुंठ ग्रह, गौलोक वृंदावन–जाने का प्रयास करना चाहिए.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 21 और 22

भले ही भौतिक उद्देश्यों के लिए, किंतु व्यक्ति को भगवान के परम व्यक्तित्व के अतिरिक्त किसी भी और की उपासना नहीं करना चाहिए.

“श्रीमद्-भागवतम् (2.3.10) में सुझाव है:

अकामः सर्व-कामो व मोक्ष-काम उदार-धिः
तीव्रेण भक्ति-योगेन यजेता पुरुषम् परम

“चाहे व्यक्ति सभी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो, भौतिक इच्छाओं से भरा हो, या परम के साथ एक बनने की इच्छा रखता हो, उसे भक्ति सेवा में संलग्न होना चाहिए.” इस प्रकार से, न केवल भक्त की कामनाएँ पूर्ण होगी, बल्कि ऐसा दिन आएगा जब भगवान के चरण कमलों की सेवा के अतिरिक्त उसकी कोई कामना नहीं रहेगी. किसी उद्देश्य के साथ भगवान की सेवा में आने वाला व्यक्ति सकाम-भक्त कहलाता है, और जो बिना किसी स्वार्थ के भगवान की सेवा करता है वह अकाम भक्त होता है. कृष्ण इतने दयालु हैं कि वे एक सकाम भक्त को अकाम भक्त में परिवर्तित कर देते हैं. एक शुद्ध भक्त, एक अकाम-भक्त, जिसका कोई भौतिक उद्देश्य नहीं होता, वह केवल भगवान के चरण कमलों की सेवा करके ही संतुष्ट हो जाता है. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता (6.22) में की गई है. यम लब्ध्वा चपरम लाभम मान्यते नाधिकम ततः, यदि वयक्ति भगवान के चरण कमलों की सेवा में रत हो जाता है, तो वह कुछ और नहीं चाहता. यह भक्ति सेवा की उच्चतम अवस्था है. भगवान सकाम-भक्तों, स्वार्थी भक्तों के प्रति भी इतने दयालु होते हैं, कि वे उनकी कामनाओं को इस प्रकार पूर्ण करते हैं कि एक दिन वह अकाम-भक्त बन जाता है. उदाहरण के लिए ध्रुव महाराज, अपने पिता से भी बढ़िया राज्य पाने के उद्देश्य से भक्त बने थे, किंतु अंततः वे एक अकाम-भक्त बन गए और उन्होंने भगवान से कहा, स्वमिन कृतार्थो’स्मि वर्णम न यचे : “मेरे प्रिय भगवान, मैं केवल आपके चरण कमलों की सेवा करके ही संतुष्ट हूँ. मुझे कोई भौतिक लाभ नहीं चाहिए.” कई बार ऐसा पाया जाता है कि एक छोटा बालक मैली वस्तुएँ खा लेता है, किंतु उसके माता-पिता वे वस्तुएँ दूर हटाकर उसे संदेश या कोई अन्य मिठाई देते हैं. भौतिक वरदान की आकांक्षा रखने वाले भक्तों की तुलना ऐसे बालकों से की जा सकती है. भगवान इतने दयालु हैं कि वे उनकी भौतिक इच्छाओं को हर लेते हैं और उन्हें सर्वोत्तम वरदान देते हैं. इसलिए, भले ही भौतिक स्वार्थ से, व्यक्ति को भगवान के परम व्यक्तित्व के अतिरिक्त किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए; व्यक्ति को स्वयं को भगवान की भक्ति सेवा में पूर्ण रूप से लगा देना चाहिए ताकि उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों और अंत में वह वापस घर, परम भगवान के पास जा सके.

इसकी व्याख्या चैतन्य-चित्रामृत (मध्य 22.37-39, 41) में इस प्रकार की गई है. अन्यकामी–एक भक्त भगवान के चरण कमलों की सेवा के अतिरिक्त कुछ और की कामना कर सकता है; यदि करे कृष्ण भजन–किंतु यदि वह भगवान कृष्ण की सेवा में रत होता है; न मगितेः कृष्ण तारे देना स्व-चरण–कृष्ण उसे अपने चरण कमलों में स्थान देते हैं, भले ही वह ऐसा न चाहता हो. कृष्ण कहे–भगवान कहते हैं ; अमा भजे–”वह मेरी सेवा में रत है.”मांगे विषय सुख–”किंतु वह भौतिक इंद्रिय संतुष्टि चाहता है. अमृता छाड़ि ‘विष मांगे:- “ऐशा भक्त उस व्यक्ति के समान है जो अमृत के स्थान पर विष की माँग कर रहा हो.” ऐई बड़ा मूर्ख: “यह उसकी मूर्खता है.” आमी-विज्ञ : किंतु मैं अनुभवी हूँ. “ऐई मूर्खे विषय केने दीबा: “ऐसे मूर्ख व्यक्ति को भौतिक सुख की बुरी वस्तुएँ मैं कैसे दे सकता हूँ?” स्व चरणामृत : “मेरे लिए उसे मेरे चरणों में शरण देना श्रेष्ठ होगा.” विषय भुलाइबा : “मैं उसकी सभी भौतिक इच्छाएँ विस्मृत कर दूँगा.” काम लागि’ कृष्ण भजे–यदि व्यक्ति इंद्रिय संतुष्टि के लिए भगवान के चरण कमलों की सेवा करता है; पाया कृष्ण रसे–परिणाम यह होता है कि वह अंततः भगवान के चरण कमलों की सेवा का स्वाद पा लेता है. काम छाड़ि दा हैते हय अभिलाषे : फिर वह सभी भौतिक कामनाओं को त्याग देता है और भगवान का शाश्वत सेवक बनना चाहता है.”

स्रोत:अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 27

वयक्ति के बलिदान, दान और अन्य पवित्र गतिविधियों के परिणाम समाप्त होने के बाद, व्यक्ति को निम्नतर ग्रह प्रणालियों पर वापस जाना पड़ता है.

“ऐसा निश्चित रूप से पवित्र गतिविधियों का परिणाम होता है कि व्यक्ति स्वर्गीय ग्रहों पर जन्म लेता है, लेकिन तब भी वहाँ से व्यक्ति को फिर से पृथ्वी पर आना ही पड़ता है, जैसा कि भगवद्-गीता में कहा गया है (क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकम् विशन्ति). यहाँ तक कि देवताओं को भी सामान्य व्यक्ति के जैसे कार्य करने के लिए पृथ्वी पर लौटना पड़ता है जब उनकी पवित्र गतिविधियों के परिणाम समाप्त हो जाते हैं. फिर भी यदि उनकी पवित्र गतिविधियों का थोड़ा भाग भी शेष रहे, तो देवता भारत-वर्ष की भूमि आने की कामना करते हैं. दूसरे शब्दों में, भारत-वर्ष में जन्म लेने के लिए, व्यक्ति को देवताओं की अपेक्षा अधिक पवित्र गतिविधियाँ करनी होती हैं. भारत-वर्ष में व्यक्ति सहज रूप से कृष्ण चैतन्य होता है, और यदि व्यक्ति अपनी कृष्ण चेतना को और भी विकसित करता है, तो कृष्ण की कृपा से वह कृष्ण चेतना में प्रवीण बन कर और बहुत सरलता से वापस घर, परम भगवान के पास लौटकर अपने सौभाग्य को निश्चित ही विस्तृत कर लेता है. वैदिक साहित्य में कई अन्य स्थानों पर ऐसा पाया जाता है कि देवता भी भारत-वर्ष की इस भूमि पर आना चाहते हैं. कोई मूर्ख व्यक्ति अपनी पवित्र गतिविधियों के परिणाम स्वरूप स्वर्गीय ग्रहों पर उन्नत होने की कामना कर सकता है, लेकिन स्वर्गीय ग्रहों के देवता भी भारत-वर्ष आना चाहते हैं और ऐसे शरीर पाना चाहते हैं जिनका उपयोग बहुत सरलता से कृष्ण चेतना के सक्रिय करने के लिए किया जा सके. इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु बार बार कहते हैं:

भारत-भूमिते हैल मनुष्य-जन्म यर
जन्म सार्थक कारी करा परा-उपकार

भारत-वर्ष की भूमि में जन्मे मनुष्य के पास कृष्ण चेतना विकसित करने का विशेषाधिकार होता है. इसलिए जो लोग पहले से ही भारत-वर्ष में पैदा हुए हैं, उन्हें शास्त्रों और गुरु से प्रशिक्षण लेना चाहिए और कृष्ण चेतना से पूरी तरह सुसज्जित होने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु की दया का लाभ उठाना चाहिए. कृष्ण चेतना का पूरा लाभ उठाकर, व्यक्ति वापस घर, परम भगवान तक लौट जाता है (यन्ति मद्-यजिनो’पि मम). इसलिए कृष्ण चेतना आंदोलन पूरे संसार में कई केंद्रों को खोलकर मानव समाज को यह सुविधा दे रहा है, ताकि लोग कृष्ण चेतना आंदोलन के शुद्ध भक्तों के साथ जुड़ सकें, कृष्ण चेतना के विज्ञान को समझ सकें और अंततः वापस घर, परम भगवान तक जा सकें. ”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 28

देवता यज्ञ के चढ़ावे को स्वीकार नहीं कर सकते.

देवता सेवक होते हैं जो भगवान के परम व्यक्तित्व के सहायक होते हैं. यदि व्यक्ति देवताओं की उपासना करता है, तो देवता परम के सेवक होने के नाते यज्ञ के चढ़ावे को भगवान तक पहुँचाते हैं, जैसे कोई कर संग्राहक नागरिकों से कर संग्रह करके सरकारी ख़जाने में जमा कर देता है. देवता यज्ञ के चढ़ावे को स्वीकार नहीं कर सकते; वे यज्ञीय चढ़ावे को केवल भगवान के परम व्यक्तित्व तक पहुँचा देते हैं. जैसा कि श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है, यस्य प्रसादद भगवत-प्रसादः : चूँकि गुरु भगवान के परम व्यक्तित्व का प्रतिनिधि होता है, उसे जो भी अर्पित किया जाए वह भगवान तक ले जाता है. उसी प्रकार, सभी देवता, परम भगवान के निष्ठावान सेवक होने के नाते, भगवान को वह सब हस्तांतरित कर देते हैं जो भी उन्हें यज्ञ में भेंट किया जाता है. इस समझ के साथ देवताओं की उपासना में कोई त्रुटि नहीं होती, लेकिन यह सोचना कि देवता भगवान के परम व्यक्तित्व से स्वतंत्र और उनके समकक्ष हैं, हृत ज्ञान, बुद्धि की हानि (कमैस तैस तीर ह्रता ज्ञानः) कहलाता है. जो भी यह सोचता है कि देवता ही वास्तविक भोक्ता हैं वह गलत है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 20- पाठ 17

आकाश में हम जो भी नक्षत्र देखते हैं, वह इस एक ब्रम्हांड के भीतर ही हैं

भगवद्-गीता (10.21) कृष्ण कहते हैं, नक्षत्राणां अहं शशि: “नक्षत्रों में मैं चंद्रमा हूँ.” इससे इंगित होता है कि चंद्रमा अन्य नक्षत्रों के समान है. वैदिक साहित्य हमें बताता है कि इस ब्रम्हांड में एक सूर्य है, जो गतिमान है. पश्चिमी अवधारणा कि आकाश में सभी नक्षत्र विभिन्न सूर्य हैं इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य में नहीं की गई है. न ही हम अनुमान लगा सकते हैं कि ये नक्षत्र अन्य ब्रम्हांडों के सूर्य हैं, क्योंकि प्रत्येक ब्रम्हांड भौतिक तत्वों की विभिन्न परतों से ढँका होता है, और इसलिए भले ही ब्रम्हांड समूह में साथ होते हैं, हम एक ब्रम्हांड से दूसरे तक नहीं देख सकते. दूसरे शब्दों में, हम जो कुछ भी देखते हैं वह इस एक ब्रम्हांड में ही है. प्रत्येक ब्रम्हांड में एक भगवान ब्रम्हा होते हैं, और अन्य ग्रहों पर अन्य देवता होते हैं, लेकिन सूर्य एक ही होता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 21 – पाठ 11

सूर्य की गति

“ब्रम्ह संहिता (5.52) में सूर्य की गति की पुष्टि की गई है: यसज्नय भ्रमति संभ्रत्काल-चक्रः. सूर्य भगवान के रथ में, सूर्य पर्वत के शिखर पर संवत्सर नाम की एक कक्षा में, मेरू पर्वत की परिक्रमा करते हुए यात्रा करता है. उत्तर दिशा की ओर सूर्य का पथ उत्तरायण कहलाता है, और दक्षिण दिशा में उसका पथ दक्षिणायन कहलाता है. एक दिशा देवताओं के लिए दिन का प्रतिनिधित्व करती है, औऱ दूसरी उनकी रात्रि का.

सूर्य स्थिर नहीं है; वह भी दूसरे ग्रहों के समान गतिशील है. सूर्य की गतिशीलता रात और दिन की अवधि तय करती है. जब सूर्य भूमध्य से उत्तर की ओर जाता है, तब वह दिन के समय धीमी गति से और रात्रि में बहुत तेज़ी से चलता है, इस प्रकार दिन के समय की अवधि बढ़ती है और रात के समय की अवधि घट जाती है. उसी प्रकार, जब सूर्य भूमध्य के दक्षिण की ओर गतिशील होता है, तब इसका ठीक उलटा होता है–दिन की अवधि घट जाती है, और रात्रि की अवधि बढ़ जाती है. जब सूर्य कर्कट राशि में प्रवेश करता है और फिर सिंह राशि में गति करता है और उसी प्रकार धनु-राशि में से गुज़रता है, तो उसका मार्ग दक्षिणायन, दक्षिणी मार्ग कहलाता है, और जब सूर्य मकर राशि और उसके बाद कुंभराशि से गुज़रता है और आगे मिथुन राशि से, तो उसका मार्ग उत्तरायण, उत्तरी मार्ग कहलाता है. जब सूर्य मेष और तुला राशि से गुज़रता है, तब दिन और रात की अवधि समान होती है. जब वह वृषभ के नेतृत्व वाली पाँच राशियों से गुज़रता है, तो दिन की अवधि (कर्क) तक बढ़ती है, और फिर प्रत्येक माह आधे घंटे की गति से धीरे धीरे घटती जाती है, जब तक कि दिन और रात फिर से समान (तुला में) नहीं हो जाते. जब सूर्य वृश्चिक से आरंभ होने वाली पाँच राशियों से गुज़रता है, तो दिन की अवधि (मकर राशि तक) घटती है, और फिर धीरे धीरे हर महीने बढ़ती जाती है, जब तक कि दिन और रात समान अवधि के न हो जाएँ (मेष राशि में). जब तक सूर्य दक्षिण की ओर गति करता है दिन लंबे होते जाते हैं, और जब वह उत्तर की ओर गति करता है तब रात लंबी होती जाती है.

सूर्य मानसोत्तर पर्वत की हर ओर से वृत्ताकार में गति करता है जिसकी लंबाई 95,100,000 योजन [760,800,000 मील] है. मानसोत्तर पर्वत, जो सुमेरु पर्वत के पूर्व में स्थित है, वह स्थान है जिसे देवधानी के रूप में जाना जाता है, जिसके स्वामी राजा इंद्र हैं. उसी प्रकार, दक्षिण में एक स्थान साम्यमणि है, जिस पर यमराज का अधिकार है, पश्चिम में एक स्थान को निमलोचनि के रूप में जाना जाता है, जिस पर वरुण का अधिकार है, और उत्तर में विभावरी नाम का एक स्थान है, जिस पर चंद्र-देवता का अधिकार है. सूर्योदय, दोपहर, सूर्यास्त और मध्यरात्रि इन सभी स्थानों पर निर्दिष्ट समयों के अनुसार होते हैं, इस प्रकार सभी जीवों को उनके विभिन्न कर्तव्यों में लगाते हैं और उनके कर्तव्य पालन को समाप्त भी करते हैं.

दोपहर में सुमेरु पर्वत पर रहने वाले जीव हमेशा बहुत उष्ण होते हैं, क्योंकि उनके लिए सूर्य हमेशा उनके शीर्ष पर होता है. यद्यपि सूर्य घड़ी की उलटी दिशा में गति करता है, तारामंडल के सम्मुख रहते हुए, सुमेरु पर्वत उसके वाम ओर होता है, वह घड़ी की दिशा में गति भी करता है और प्रतीत होता है कि पर्वत उसके दाँयी ओर है क्योंकि वह दक्षिणावर्त वायु से प्रभावित होता है. उन बिंदुओं के देशों के लोग जो उन विपरीत बिंदुओं पर हैं जहाँ सूर्य को उदित होते हुए पहले देखा जाता है, वे सूर्य को अस्त होता देखेंगे, और यदि उस बिंदु से एक सीधी रेखा खींची जाए जहाँ सूर्य दोपहर के समय हो, तो रेखा के विपरीत बिंदु पर स्थित देशों के लोगों को मध्यरात्रि का अनुभव होगा. उसी प्रकार, यदि जहाँ सूर्य अस्त हो रहा हो वहाँ रहने वाले लोग ठीक विपरीत बिंदु के देशों में जाएँ, तो वे सूर्य की समान स्थिति को नहीं देखेंगे.

जब सूर्य देवधानी, इंद्र के निवास से साम्यमणि, यमराज के निवास, की यात्रा करता है, तो वह 23,775,000 योजन [190,200,000 मील] की यात्रा पंद्रह घातिकाओं (छः घंटे) में करता है. सूर्य की कुल कक्षा उसकी चार गुणा, या 95,100,000 योजन (760,800,000 मील) होती है. यमराज के निवास से सूर्य निम्लोचनि, वरुण के निवास, वहाँ से विभावरी, चंद्र-देवता के निवास, और वहाँ से फिर से इंद्र के निवास की यात्रा करता है. इसी विधि से, चंद्रमा, अन्य नक्षत्रों के साथ, आकाशीय क्षेत्र में दृश्यमान होता है और फिर अस्त हो जाता है, फिर दोबारा दृश्यमान हो जाता है.

इस प्रकार, सूर्य-देवता का रथ, जो त्रयीमय है, या ओम भूर्भूवः स्वः द्वारा पूजित है, एक मुहूर्त में 3,400,800 योजन [27,206,400 मील] की गति से ऊपर वर्णित चार निवासों से होते हुए यात्रा करता है. सूर्यदेव के रथ में केवल एक पहिया होता है, जिसे संवत्सर के नाम से जाना जाता है. बारह मासों की गणना उसकी छड़ियों के रूप में की जाती है, छः ऋतुएँ उसके हाले के खंड होती हैं, और तीन चतुर्-मास्य की अवधियाँ उसकी त्रि-खंडीय धुरी होती हैं. पहिए की धुरी का एक भाग सुमेरु पर्वत के शिखर पर टिका हुआ है, और दूसरा मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है. धुरी के बाहरी छोस से चिपका हुआ, पहिया लगातार मानसोत्तर पर्वत पर वैसे घूमता है जैसे तेल निकालने की घानी. जैसा तेल की घानी में होता है, यह पहली धुरी एक दूसरी धुरी से संपर्क में होती है, जो एक चौथाई लंबी [3,937,500 योजन, या 31,500,000 मील] होती है. इस दूसरी धुरी का ऊपरी छोर वायु की रस्सी से ध्रुवलोक से जुड़ा होता है.

सूर्य देव के रथ की गाड़ी का 3,600,000 योजन [28,800,000 मील] लंबी और एक चौथाई चौड़ी [900,000 योजन, या 7,200,000 मील] होने का अनुमान है. रथ के घोड़ों जिन्हें, गायत्री और अन्य वैदिक छंदो का नाम दिया गया है, उन्हें अरुणदेव द्वारा 900,000 योजन चौड़े जोत में हाँका जाता है. इस रथ पर सूर्य-देवता लगातार सवारी करते हैं. सूर्य देवता के रथ में जोते गए सात घोड़ों का नाम गायत्री, भृति, उष्णीक, जगति, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति हैं. विभिन्न वैदिक छंदों के ये नाम सात घोड़ों को नामित करते हैं जो सूर्यदेव के रथ का वहन करते हैं. यद्यपि अरुणदेव सूर्य देव के आगे की ओर बैठते हैं और रथ को चलाने और घोड़ों को नियंत्रित करने में लगे होते हैं, वे सूर्य देव की ओर पीछे की ओर देखते हैं.

वलिखिल्य नाम के साठ सहस्त्र संत व्यक्ति हैं, जो प्रत्येक एक अंगूठे के आकार के हैं, जो सूर्य देवता के सम्मुख होते हैं और उनकी महिमा में स्तुति करते हैं. उसी प्रकार, चौदह अन्य संत, गंधर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता, जिन्हे दो के समूहों में बांटा गया है, प्रत्येक माह भिन्न नाम धारण करते हैं, और परम भगवान सूर्य-देव, जिनके कई नाम हैं, की पूजा करने के लिए लगातार विभिन्न अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं, सर्व शक्तिमान सूर्य देवता की पूजा करते हुए, गंधर्व उनके समक्ष गाते हैं, अप्सरा नृत्य करती हैं, निशाचर रथ का पीछा करते हैं, पन्नग रथ का ऋंगार करते हैं, यक्ष रथ की रक्षा करते हैं, और वलिखिल्य नामक संत सूर्य-देवता के चहुँ ओर रहते हुए स्तुति करते हैं. चौदह सहयोगियों के सात समूह पूरे ब्रह्मांड में नियमित रूप से हिम, उष्णता और वर्षा के लिए उचित समय का व्यवस्थापन करते हैं. भूमंडल से होते हुए इस कक्षा में, सूर्य-देवता 95,100,000 योजन [760,800,000 मील] की यात्रा एक क्षण में 2000 योजन और दो क्रोष की गति से करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), संस्करण, “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 21

ग्रह और नक्षत्र किस प्रकार आकाश में तैर रहे हैं?

भगवान का परम व्यक्तित्व और भौतिक प्रकृति इस महान ब्रम्हांड, और न केवल इस ब्रम्हांड बल्कि इसके बाहर के अन्य लाखों ब्रम्हांडों का पालन करने के लिए साथ-साथ कार्य करते हैं. ग्रह और नक्षत्र किस प्रकार तैर रहे हैं इस प्रश्न का उत्तर भी इस श्लोक में दिया गया है. ऐसा गुरुत्वाकर्षण के नियमों के कारण नहीं है. बल्कि, ग्रह और नक्षत्र वायु के हस्तक्षेप द्वारा प्रवाहमान रहने के योग्य होते हैं. इन्ही हस्तक्षेपों के कारण आकाश में बड़े, भारी बादल प्रवाहित होते हैं और गरुड़ उड़ते हैं. 747 जेट विमान जैसे आधुनिक वायुयान समान सिद्धांत पर ही कार्य करते हैं: वायु को नियंत्रित करके, वे आकाश में ऊँचा उड़ते हैं, और धरती पर गिरने का प्रतिरोध करते हैं. ऐसे सभी समायोजन पुरुष (नर) और प्रकृति (मादा) के सिद्धांत के सामंजस्य द्वारा ही संभव होते हैं. भौतिक प्रकृति के सहयोग से, जिसे प्रकृति माना जाता है, और भगवान का परम व्यक्तित्व, जिसे पुरुष माना जाता है, ब्रह्मांड के सभी प्रकरण उनके उचित क्रम में अच्छी तरह से चल रहे हैं. इस श्लोक में वर्णित महान गरुड़ के संबंध में, ऐसा समझा जाता है कि ऐसे बहुत बड़े गरुड़ होते हैं जो हाथी का शिकार कर सकते हैं. वे इतना ऊँचा उड़ते हैं कि वे एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक यात्रा कर सकते हैं. वे एक ग्रह में उड़ना शुरू करते हैं और दूसरे ग्रह पर उतरते हैं, और उड़ते हुए वे अंडे देते हैं जो वायु में गिरते हुए अन्य पक्षियों द्वारा पोसे जाते हैं. संस्कृत में ऐसे गरुड़ों को स्येन कहा जाता है. वर्तमान परिस्थितियों में, निस्संदेह, हम ऐसे विशाल पक्षी नहीं देख पाते, लेकिन कम से कम हम ऐसे गरुड़ों के बारे में जानते हैं जो वानरों को पकड़ सकते हैं और फिर उन्हें मारने के लिए नीचे फेंक देते हैं और उन्हें खा जाते हैं. उसी प्रकार, ऐसा समझा जाता है कि ऐसे विशाल पक्षी होते हैं जो हाथी को भी उठा सकते हैं, मार और खा सकते हैं. गरुड़ और बादल के दो उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि उड़ना और प्रवाह वायु के समायोजन से संभव है. इसी प्रकार से ग्रह भी प्रवाहमान हैं क्योंकि भौतिक प्रकृति परम भगवान के आदेशानुसार वायु को समायोजित करती है. ऐसा कहा जा सकता है कि ये समायोजन गुरुत्व का सिद्धांत बनाते हैं, लेकिन किसी भी प्रसंग में, व्यक्ति को स्वीकार करना चाहिए कि ये नियम भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा बनाए जाते हैं. तथाकथित वैज्ञानिकों का उन पर कोई नियंत्रण नहीं होता. वैज्ञानिक झूठ-मूठ अनुचित रूप से घोषणा कर सकते हैं कि कोई भगवान नहीं होता, लेकिन यह तथ्य नहीं है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 23 – पाठ 03

यमराज कौन हैं?

“यमराज एक काल्पनिक या पौराणिक चरित्र नहीं हैं; उनका अपना निवास स्थान पित्रलोक है, जिसमें वे राजा हैं. नास्तिकतावादी नर्क में विश्वास नहीं करते हों, लेकिन शुकदेव गोस्वामी नर्क ग्रहों के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं, जो गर्भोदक सागर और पाताललोक के बीच स्थित है. यमराज को भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा यह देखने के लिए नियुक्त किया गया है कि मानव उनके नियमों का उल्लंघन न करें. भगवद-गीता (4.17) में इसकी पुष्टि की गई है:

कर्मणो हि अपि बोद्धव्यम् बोद्धव्यम् च विकर्मणः
अकर्मणश् च बोद्धव्यम् गहन कर्मणो गतिः

कर्मों की जटिलता को समझना बहुत कठिन है. इसलिए व्यक्ति को ठीक ज्ञात होना चाहिए कि कर्म क्या है, निषिद्ध कर्म क्या है, और निष्क्रियता क्या है. “व्यक्ति को कर्म, विकर्म और अकर्म के स्वरूप को समझना चाहिए, और उसके अनुसार कार्य करना चाहिए. यह भगवान के परम व्यक्तित्व का नियम है. बद्ध आत्माएँ, जो इंद्रिय संतुष्टि के लिए इस भौतिक संसार में आई हैं, उन्हें कुछ नियामक सिद्धांतों के अधीन अपनी इंद्रियों का आनंद लेने की अनुमति है. यदि वे इन नियमों का उल्लंघन करते हैं, तो उनका परीक्षण यमराज द्वारा किया जाता है और दंडित किया जाता है. वे उन्हें नारकीय ग्रहों पर ले जाते हैं और उन्हें कृष्ण चेतना में लाने के लिए उचित रूप से शुद्ध करते हैं. यद्यपि, माया के प्रभाव से, बद्ध आत्माएँ अज्ञानता के गुण से प्रभावित रहती हैं. इस प्रकार यमराज द्वारा बार-बार दंड दिए जाने के बाद भी, उन्हें चेतना नहीं आती, बल्कि वे भौतिक स्थितियों में जीवन जारी रखती हैं, बार बार पापमय कर्म करती हैं.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 26 – पाठ 6

बाघ अपराधी नहीं होता यदि वह अन्य पशुओं पर आक्रमण करता और उनका मांस खाता है.

मानव को व्यवधान पहुंचाने के लिए प्रकृति के नियमों द्वारा बनाए गए निम्न पशु दंड के अधीन नहीं होते हैं. क्योंकि मानव ने चेतना विकसित की है, हालांकि, वह निंदित हुए बिना वर्णाश्रम-धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है. भगवद-गीता (4.13) में कृष्ण कहते हैं, चतुर्-वर्ण्यम माया सृष्टम गुण-कर्म-विभासः: “भौतिक प्रकृति की तीन विधियों और उनके कार्य के अनुसार, मानव समाज के चार विभाग मेरे द्वारा बनाए गए थे.” इसलिए सभी मनुष्यों को चार वर्गों–ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र– में बाँटा जाना चाहिए और उन्हें अपने लिए निर्धारित नियमों के अनुसार कार्य करना चाहिए. वे उनके निर्धारित नियमों से विचलित नहीं हो सकते. इनमें से एक नियम कहता है कि उन्हें किसी पशु को कष्ट नहीं देना चाहिए भले ही वे पशु मनुष्यों को कष्ट पहुँचाते हों. कोई बाघ यदि किसी अन्य पशु पर हमला करता है और उसका मांस खाता है तो वह पापी नहीं है, यदि विकसित चेतना वाला मनुष्य ऐसा करता है, तो उसे अवश्य दंडित किया जाना चाहिए. दूसरे शब्दों में, कोई मनुष्य जो अपनी विकसित चेतना का उपयोग करने के स्थान पर किसी पशु जैसा व्यवहार करता है, वह निश्चित ही कई विभिन्न नर्कों में दंड का अधिकारी होता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवा सर्ग, अध्याय 26 – पाठ 17

किसी भक्त की संगति महत्वपूर्ण क्यों है?

व्यक्ति को ऐसे लोगों की संगति खोजनी चाहिए जो कृष्ण चैतन्य हैं और आध्यात्मिक सेवा में रत हों. बिना ऐसी संगति के व्यक्ति प्रगति नहीं कर सकता. केवल सैद्धांतिक ज्ञान या अध्ययन द्वारा व्यक्ति सच्ची प्रगति नहीं कर सकता. व्यक्ति को भौतिकवादी व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए और भक्तों से संबंध रखना चाहिए क्योंकि बिना ऐसी संगति के व्यक्ति भगवान के क्रिया-कलापों को नहीं समझ सकता. सामान्यतः, लोग परम सत्य की अवैयक्तिक विशेषताओं का विश्वास कर लेते हैं. क्योंकि वे भक्तों से संबंध नहीं रखते, वे यह नहीं समझ सकते कि परम सत्य कोई व्यक्ति भी हो सकता है और उसकी व्यक्तिगत गतिविधियाँ हो सकती हैं. यह एक बहुत कठिन विषय है, और जब तक व्यक्ति को परम सत्य की व्यक्तिगत समझ न हो, समर्पण का कोई अर्थ नहीं होता. सेवा या समर्पण किसी अवैयक्तिक वस्तु को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. सेवा किसी व्यक्ति के लिए ही प्रस्तुत की जा सकती है. अ-भक्त श्रीमद्-भागवतम् या कोई अन्य वैदिक साहित्य पढ़ कर कृष्ण चेतना के गुण नहीं समझ सकते जहाँ भगवान के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है; उन्हें लगता है कि ये गतिविधियाँ काल्पनिक हैं, क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक जीवन के बारे में उचित मनोवृत्ति से नहीं समझाया गया है. भगवान के व्यक्तिगत कार्य-कलापों को समझने के लिए, व्यक्ति को भक्तों की संगति में रहना होगा, और ऐसी संगति द्वारा, जब व्यक्ति भगवान के पारलौकिक कार्यों पर विचार करके उन्हें समझने का प्रयास करता है, तो मुक्ति का मार्ग खुल जाता है, और वह स्वतंत्र हो जाता है. वह जिसे भगवान के परम व्यक्तित्व में श्रद्धा होती है, वह स्थिर हो जाता है और भगवान औऱ भक्तों की संगति के लिए उसका आकर्षण बढ़ जाता है. भक्तों की संगति का अर्थ है भगवान की संगति. जो भक्त ऐसा संबंध रखता है वह भगवान की सेवा करने की चेतना का विकास करता है, और फिर, आध्यात्मिक सेवा की पारलौकिक अवस्था में, धीरे-धीरे पारंगत हो जाता है. सभी ग्रंथों में लोगों को पवित्रता पूर्वक कर्म करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वे इंद्रिय तुष्टि का आनंद न केवल इस जीवन में बल्कि अगले जीवन में भी कर सकें. उदाहरण के लिए, व्यक्ति को पवित्र फलदायक कर्मों द्वारा उच्चतर ग्रहों के स्वर्गीय राज्य में उन्नति का वचन दिया जाता है. लेकिन भक्तों की संगति में एक भक्त भगवान के क्रिया-कलापों पर चिंतन करने को प्राथमिकता देता है- भगवान ने यह ब्रम्हांड कैसे रचा है, कैसे वे इसका पालन करते हैं, कैसे यह रचना विलीन होती है, और कैसे आध्यात्मिक राज्य में भगवान की लीलाएँ खेली जाती हैं. इन क्रिया-कलापों का वर्णन करने वाला संपूर्ण साहित्य उपलब्ध है, विशेषकर भगवद्-गीता, ब्रम्ह संहिता और श्रीमद्-भागवतम. गंभीर भक्त जो भक्तों की संगति करता है उसे इन विषयों को सुनने और उन पर चिंतन करने का अवसर मिलता है, और परिणाम यह कि उसे इस या उस संसार में, स्वर्ग में, या अन्य ग्रहों में तथाकथित प्रसन्नता के प्रति अरुचि का अनुभव होता है. भक्तों की रुचि बस भगवान की व्यक्तिगत संगति में स्थानांतरित हो जाने में होती है; वे अब अस्थायी तथाकथित प्रसन्नता की ओर आकर्षित नहीं होते. दूसरे शब्दों में, जब भगवान का कोई भक्त उपस्थित नहीं होता, तब समाज में बहुत कष्ट रहता है, और दूसरे लोगों से संबंध कष्टदायी हो जाता है. श्रीमद-भागवतम् (3.30.7) में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति जो किसी शुद्ध भक्त के संबंध से विहीन रहकर, कृष्ण चेतना के बिना समाज, मित्रता और प्रेम के माध्यम से प्रसन्न होने का प्रयास करता है, उसे सबसे विपदाग्रस्त समझना चाहिए. बृहद-भागवतामृत (5.44) के पांचवें सर्ग में यह कहा गया है कि एक शुद्ध भक्त की संगत स्वयं जीवन से भी अधिक अभीष्ट है और उसके बिना व्यक्ति एक पल भी प्रसन्नतापूर्वक नहीं काट सकता.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति के पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 157 व 158
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 381

हर किसी को छिपा हुआ खजाना का वर मिला हुआ है.

जीवन के अंतिम लक्ष्य के लिए मनुष्य की खोज के संबंध में, चैतन्य महाप्रभु, माधव की टिप्पणी से एक कथा जोड़ते हैं जो श्रीमद-भागवतम (माधव-भाष्य) के पांचवें सर्ग में आती है. एक निर्धन व्यक्ति सर्वज्ञ के पास अपना भविष्य जानने आया था. जब सर्वज्ञ ने उस व्यक्ति की कुंडली देखी, तो वह चकित रह गया कि वह व्यक्ति बहुत दीन था, और उसने उससे कहा, “तुम इतने दुखी क्यों हो? तुम्हारी कुंडली से मैं देख सकता हूँ कि तुम्हारे पास पिता का छोड़ा हुआ खजाना है. यद्यपि, कुंडली इंगित करती है कि तुम्हारे पिता ने इसका खुलासा नहीं किया क्योंकि उनकी मृत्यु एक विदेशी स्थान पर हुई थी, लेकिन अब तुम इस खजाने को खोज सकते हो, और खुश रह सकते हो.” इस कहानी का उद्धरण इसलिए दिया जाता है क्योंकि जीव अपने सर्वोच्च पिता कृष्ण के छिपे हुए ख़जाने की अनदेखी के कारण पीड़ित हैं. वह ख़ज़ाना परम भगवान का प्रेम है, और प्रत्येक वैदिक शास्त्र में बद्ध आत्मा को इसे खोजने का सुझाव दिया जाता है. जैसा कि भगवद्-गीता में कहा गया है, यूँ तो बद्ध आत्मा सबसे संपन्न व्यक्तित्व – भगवान के परम व्यक्तित्व – का पुत्र है, वह उसका अनुभव नहीं कर पाता. इसलिए वैदिक साहित्य उसे उसके पिता और उसकी पैतृक संपत्ति की खोज में सहायता करने के लिए दिया गया है. ज्योतिषी सर्वज्ञ ने निर्धन व्यक्ति को आगे सुझाव दिया: “छिपे हुए ख़जाने को खोजने के लिए अपने घर के दक्षिणी तरफ खुदाई मत करना, अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम पर एक जहरीले ततैया द्वारा हमला किया जाएगा और तुम चकरा जाओगे. खोज पूर्वी दिशा में की जानी चाहिए जहाँ वास्तविक प्रकाश हो, जिसे भक्ति सेवा या कृष्ण चेतना कहा जाता है. दक्षिण की ओर वैदिक अनुष्ठान हैं, और पश्चिम की ओर मानसिक अटकलें हैं, और उत्तर की ओर पर ध्यान योग है”. सर्वज्ञ के सुझाव को सभी को ध्यान से देखना चाहिए. यदि कोई अनुष्ठान प्रक्रिया द्वारा अंतिम लक्ष्य की खोज करता है, तो वह निश्चित रूप से चकरा जाएगा. इस तरह की प्रक्रिया में एक पुजारी के मार्गदर्शन में अनुष्ठान का निष्पादन किया जाता है, जो सेवा के बदले धन लेता है. कोई व्यक्ति सोच सकता है कि वह इस प्रकार के अनुष्ठान करके प्रसन्न हो जाएगा, लेकिन वास्तव में यदि उसे उनसे कुछ परिणाम प्राप्त होते हैं, तो वे बस अस्थायी हैं. उसका भौतिक संकट जारी रहेगा. इस प्रकार वह अनुष्ठान प्रक्रिया का पालन करके कभी भी वास्तव में प्रसन्न नहीं होगा. उसके स्थान पर, वह अपने भौतिक कष्टों को और बढ़ाएगा. ऐसा उत्तरी दिशा में खुदाई करने या ध्यान योग प्रक्रिया के माध्यम से ख़जाने की खोज के संबंध में भी कहा जा सकता है. इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति परम भगवान के साथ एक होने के बारे में सोचता है, लेकिन परम में यह विलय एक बड़े सर्प द्वारा निगल लिए जाने जैसा है. कई बार एक बड़ा सर्प एक छोटे सर्प को निगल जाता है, और परम के आध्यात्मिक अस्तित्व में विलय हो जाने के सदृश होता है. एक ओर छोटा सर्प पूर्णता की खोज कर रहा है, जिसे निगल लिया जाता है. स्पष्ट है कि यहाँ कोई समाधान नहीं है. पश्चिम की ओर यक्ष के रूप में भी एक बाधा है, एक बुरी आत्मा, जो ख़जाने की रक्षा करती है. विचार यह है कि छिपा ख़ज़ाना उसे कभी नहीं मिल सकता जो उसे पाने के लिए यक्ष की सहायता मांगता है. परिणाम यही होगा कि व्यक्ति बस मारा जाएगा. यह यक्ष अटकल लगाने वाला मन है, और इस प्रसंग में आत्म-साक्षात्कार की अनुमानकारी प्रक्रिया, या ज्ञान प्रक्रिया, भी आत्मघाती होती है. इसके बाद एकमात्र संभावना यह है कि पूर्ण कृष्ण चेतना में भक्ति सेवा की प्रक्रिया द्वारा पूर्वी किनारे पर छिपे हुए खजाने की खोज की जाए. वास्तव में, भक्ति सेवा की वह प्रक्रिया सदा से छिपा हुआ ख़जाना है, और जब कोई इसे प्राप्त कर लेता है, तो वह सदा के लिए संपन्न बन जाता है. वह जो कृष्ण की भक्ति में दरिद्र है, उसे सदैव भौतिक लाभ की आवश्यकता होती है. कभी वह जहरीले प्राणियों का दंश झेलता है, और कभी वह हतप्रभ रह जाता है; कभी-कभी वह अद्वैतवाद के दर्शन का अनुसरण करता है और इस तरह अपनी पहचान खो देता है, और कभी-कभी उसे एक बड़े नाग द्वारा निगल लिया जाता है. केवल इस सब का त्याग करने और भगवान की भक्ति सेवा में एकाग्र होकर ही व्यक्ति वास्तव में जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सकता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012, अंग्रेजी संस्करण), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 71

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