भगवद्-गीता में भगवान कृष्ण भागवत-धर्म का संदर्भ सबसे गोपनीय धार्मिक सिद्धांत (सर्व गुह्यतमम्, गुह्यद् गुह्यतरम्) के रूप में देते हैं. कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “चूँकि तुम मेरे बहुत प्रिय मित्र हो, मैं तुम्हारे लिए सबसे गोपनीय धर्म की व्याख्या कर रहा हूँ.” “ सर्व-धर्मम परित्याज्य मम एकम शरणम् व्रज : अन्य सभी कर्तव्यों को त्याग दो और मेरी शरण में आ जाओ.” कोई पूछ सकता है, “यदि इस सिद्धांत को बहुत बिरले ही समझा जा सकता है, तो इसका क्या उपयोग है?” उत्तर में, यमराज यहाँ बताते हैं कि इस धार्मिक सिद्धांत को समझा जा सकता है यदि व्यक्ति भगवान ब्रम्हा, भगवान शिव, चार कुमारों और अन्य मानक विद्वानों की परंपरा प्रणाली का पालन करता है. शिष्य उत्तराधिकार की चार शाखाएँ हैं: एक भगवान ब्रम्हा से, एक भगवान शिव से, एक लक्ष्मी, भाग्य की देवी से, और एक कुमारों से. भगवान ब्रम्हा का शिष्य उत्तराधिकार ब्रम्ह-संप्रदाय कहलाता है, भगवान शिव (शम्भू) का शिष्य उत्तराधिकार रुद्र-संप्रदाय कहलाता है, भाग्य की देवी लक्ष्मी की परंपरा श्री-संप्रदाय कहलाती है, और कुमारों की पंपरा को कुमार-संप्रदाय कहते हैं. सबसे गोपनीय धार्मिक प्रणाली को समझने के लिए व्यक्ति को इन चारों संप्रदाय में से किसी एक की शरण में जाना आवश्यक है. पद्म पुराण में यह कहा गया है, संप्रदाय-विहीन ये मंत्रस ते निष्फल मतः यदि व्यक्ति चार मान्य शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मंत्र या दीक्षा निष्फल है. आज के समय में कई अपसंप्रदाय, या संप्रदाय हैं, जो प्रामाणिक नहीं हैं, जिनका भगवान ब्रम्हा, भगवान शिव, कुमारों या लक्ष्मी से कोई जुड़ाव नहीं है. ऐसे संप्रदायों से लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं. शास्त्र कहते हैं कि ऐसे किसी संप्रदाय में दीक्षित होना समय नष्ट करना है, क्योंकि वह वास्तविक धार्मिक सिद्धांत समझने में व्यक्ति को कभी समर्थ नहीं बनाएगा.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छटा सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 21

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