“आध्यात्मिक अनुभव के अपने स्वयं की विधियों को रचने वाले कपटी हमेशा पाए जाते हैं. कुछ भौतिक लाभ की प्राप्ति के लिए, बद्ध आत्मा इन छद्म सन्यासियों और योगियों के पास सरलता से प्राप्त होने वाली कृपा के लिए जाता है, लेकिन उनसे उसे आध्यात्मिक या भौतिक, कोई भी वास्तविक लाभ नहीं मिलता. इस युग में बहुत से कपटी हैं जो कुछ करतब और जादू दिखाते हैं. वे अपने अनुयायियों को हतप्रभ करने के लिए सोना तक बना डालते हैं, औऱ उनके अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. इस प्रकार की धोखा-धड़ी कलियुग में बहुत प्रमुख है. विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर सच्चे गुरु का वर्णन इस प्रकार करते हैं.

संसार-दावानल-इध-लोकत्रणाय कारुण्य-घनघनत्वम
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्नवश्य वंदे गुरुः श्री-चरणारविंदम

व्यक्ति को ऐसे गुरु के पास जाना चाहिए जो इस भौतिक संसार के दावानल को, अस्तित्व के संघर्ष बुझा सके. लोग धोखा खाना चाहते हैं और इसलिए वे योगियों और स्वामियों को पास जाते हैं जो चालबाज़ी करते हैं लेकिन चालबाज़ियाँ भौतिक जीवन के दुख को कम नहीं करतीं. यदि सोना बना लेने का सामर्थ्य भगवान बन जाने की योग्यता है, तो फिर क्यों न कृष्ण को स्वीकार करें, जो समस्त ब्रम्हांड के संचालक हैं, जिसमें असंख्य टनों भर सोना है? जैसा कि पहले बताया गया है, कि सोने के रंग की तुलना भूगर्भीय अग्नि या पीले मल से की गई है; इसलिए व्यक्ति को सोना पैदा करने वाले गुरुओं के प्रति आकर्षित नहीं होना चाहिए बल्कि जड़ भारत जैसे किसी भक्त के पास गंभीरता से पहुँचना चाहिए. जड़ भारत ने महाराज राहुगण को इतने अच्छी शिक्षा दी कि महाराज शारीरिक गर्भाधान से मुक्त हो गए थे. किसी छद्म गुरु को स्वीकार करके व्यक्ति सुखी नहीं बन सकता. ऐसे गुरु को स्वीकार करना चाहिए जैसा कि श्रीमद्-भागवतम् (11.3.21) में सुझाया गया है. तस्मद गुरुम् प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम: जीवन का सर्वोत्तम लाभ लेने के लिए व्यक्ति को प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए. ऐसे गुरु का वर्णन इस प्रकार किया गया है: शब्दे परे च निशांतम्. ऐसा गुरु सोना नहीं बनाता या शब्दजाल नहीं बुनता. उसे वैदिक ज्ञान के निष्कर्षों का भली भाँति अध्ययन होता है (वेदैस च सर्वैर अहम् एव वेद्यः). वह सारे भौतिक संदूषणों से मुक्त होता है और कृष्ण की सेवा में रत होता है. यदि व्यक्ति ऐसे किसी गुरु के चरण कमलों की धूलि प्राप्त करने में समर्थ हो, तो उसका जीवन सफल हो जाता है. अन्यथा वह इस जीवन और आगामी जीवन में असमंजस में ही बना रहता है.”

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14 – पाठ 13

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