यद्यपि हिरण्यकश्यपु ने लंबे समय तक तपस्या की, लेकिन फिर भी उसे एक दैत्य और राक्षस के रूप में जाना जाता था. यहाँ तक कि महान संत व्यक्ति भी इस तरह की गंभीर तपस्या नहीं कर सकते थे. तब उसे राक्षस और दैत्य क्यों कहा जाता था? ऐसा इसलिए क्योंकि उसने जो भी किया वह उसकी स्वयं की इंद्रिय संतुष्टि के लिए था. उसके पुत्र प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे, अतः प्रह्लाद क्या कर सकता था? फिर भी नारद मुनि के निर्देशों के अनुसार बस थोड़ी सी भक्ति सेवा करने से, प्रह्लाद भगवान को इतना प्रिय हो गया कि भगवान उसे बचाने के लिए आए, जबकि हिरण्यकशिपु अपनी सारी तपस्या के बाद भी मारा गया था. यही भक्ति सेवा और पूर्णता की अन्य सभी विधियों का अंतर है. जो व्यक्ति इंद्रिय संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या करता है वह पूरी दुनिया के लिए डरावना होता है. जबकि एक भक्त जो थोड़ी सी भी भक्ति सेवा करता है, वह सभी के लिए एक मित्र (सुह्रदम सर्व-भूतानाम) होता है. चूँकि भगवान हर जीव के शुभचिंतक होते हैं और चूँकि एक भक्त भगवान के गुणों को धारण करता है, भक्त भी भक्ति सेवा द्वारा सभी के सौभाग्य के लिए कार्य करता है. इस प्रकार यद्यपि हिरण्यकश्यपु ने इतनी कठोर तपस्या की, लेकिन वह एक दैत्य और एक राक्षस ही बना रहा, जबकि प्रह्लाद महाराजा, एक ही दैत्य पिता से पैदा होकर भी, परम अनन्य भक्त बन गए और परम भगवान ने व्यक्तिगत रूप से उनकी रक्षा की. इसीलिए भक्ति को सर्वोपधि-विनर्मुक्तम कहा जाता है, जो दर्शाता है कि एक भक्त सभी भौतिक पदों से मुक्त हो जाता है, और सभी भौतिक कामनाओं से मुक्त होकर, अन्यभिलाषित-शून्यम, पारलौकिक स्थिति में स्थित हो जाता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3- पाठ 15 व 16

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