यदि आध्यात्मिक संसार में कोई वास्तविक मूलरूप न होता, तो इस संसार की विविधताएँ असंभव होतीं.

“अवैयक्तिकतावादी यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि अनुभववादी दार्शनिक की दृष्टि की विविधताएँ झूठी हैं. अवैयक्तिकतावादी दर्शन, विवर्त वाद, सामान्यतः रस्सी को साँप स्वीकार कर लेना इस तथ्य के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इस उदाहरण के अनुसार, हमारी दृष्टि में व्याप्त विविधताएँ झूठी हैं, वैसे ही जैसे किसी रस्सी को साँप के रूप में देखना झूठा होता है. जबकि, वैष्णव कहते हैं कि भले ही रस्सी के साँप होने का विचार झूठ है, किंतु साँप झूठ नहीं है; व्यक्ति को साँप का वास्तविकता में अनुभव होता है, और इसलिए वह जानता है कि भले ही रस्सी का साँप के रूप में प्रस्तुत किया जाना झूठा या भ्रामक हो, वास्तविकता में साँप होता है. उसी प्रकार, यह संसार, जो विविधताओं से भरा हुआ है, झूठा नहीं है; यह वैकुंठ संसार, आध्यात्मिक संसार की वास्तविकता का प्रतिबिंब है.

किसी दर्पण से सूर्य का परावपर्तन और कुछ नहीं बल्कि अंधेरे में प्रकाश का होना है. इसलिए यद्यपि वह सीधे सूर्य का प्रकाश नहीं है, सूर्य के प्रकाश के बिना परावर्तन असंभव होगा. उसी प्रकार, इस संसार की विविधताएँ असंभव होतीं, यदि आध्यात्मिक संसार में कोई वास्तविक मूलरूप न होता. मायावादी दार्शनिक इसे नहीं समझ सकते, लेकिन एक वास्तविक दार्शनिक को यह मानना ही होगा कि सूर्य की पृष्ठभूमि के बिना प्रकाश बिलकुल भी संभव नहीं होता है. इसलिए मायावादी दार्शनिक द्वारा इस भौतिक संसार को झूठा सिद्ध करने के लिए प्रयोग किया गया शब्दजाल अऩुभवहीन बालकों को तो आश्चर्यचकित करत सकता है, लेकिन पूर्ण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अच्छी प्रकार से जानता है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं हो सकता. इसलिए एक वैष्णव येन केन प्रकारेण कृष्ण को स्वीकारने पर बल देता है (तस्मत केनपि उपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत).”

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15 – पाठ 58